आज यह मुल्क इस मुकाम पर पहुंच गया है कि प्रधानमंत्री पद पर बैठे व्यक्ति को भी एक गंभीर मामले में एक्जामिन करने की चर्चा करता है. हमने राजनीति की गरिमा क्या बना दी? इस देश की राजनीति ने वह दौर भी देखा है, जब एक मामूली पद पर जिले में बैठे राजनेता से भी समाज प्रेरित होता था. आज हम सब जानते हैं कि प्रधानमंत्री ईमानदार हैं. पर सिस्टम इतना सड़ गया है कि एक ईमानदार इंसान को भी ‘एक्जामिन’ करने की जरूरत एक ईमानदार अफसर महसूस करता है.
।।हरिवंश।।
इस सप्ताह की पढ़ी कुछ खबरें, जेहन में बस गयी हैं. इन चंद खबरों से ही देश की सेहत की झलक मिलती है. कहां खड़ा है, मुल्क? इसी रास्ते चला, तो क्या भविष्य है? ऐसी चीजों की आहट देती खबरें. एक सजग नागरिक के तौर पर इन खबरों को जान कर हमारी भूमिका क्या होगी? यह यक्ष प्रश्न अलग, आज भारतीय समाज के सामने है.
पहली खबर है, इंडियन एक्सप्रेस (02.09.13) की. प्रधानमंत्री कार्यालय ने देश के 17 बड़े प्रोजेक्टों की पहचान की. प्राथमिकता के आधार पर पूरा कराने के लिए. मानिटरिंग शुरू हुई. इनमें से छह प्रोजेक्टों की छानबीन से पता चला है कि इनमें तय समय सीमा के तहत कोई प्रगति नहीं हुई. बिजली, उड़ान, हाइवे वगैरह महत्वपूर्ण इंफ्रास्ट्रक्चर योजनाओं की प्रगति समीक्षा के लिए प्रधानमंत्री कार्यालय में कई स्तर पर समयसीमा अनुपालन के कार्यक्रम तय हुए थे.
देश की सर्वोच्च ताकत प्रधानमंत्री कार्यालय के पास है. अगर वहां किसी काम को पूरा करने के लिए समयबद्ध योजना बने, मानिटरिंग हो और उस पर अमल न हो, तब नीचे क्या गत होगी? महर्षि व्यास ने कहा था- राजा, काल का कारण है. अगर राजधर्म बिगड़ा, तो प्रजा-धर्म में विकार होगा ही. समाज के शिखर स्थान निर्णायक नहीं होंगे, तो समाज कैसे बेहतर होगा? इस देश के सरकारी क्षेत्रों में जो लेट-लतीफी, भ्रष्टाचार और काम के प्रति अपसंस्कृति है, उसे सुधारने के लिए शीर्ष से सफाई और अनुशासन चाहिए. पर क्या इस देश में कभी ऐसे प्रसंगों पर भी चर्चा होती है?
दूसरी खबर द हिंदू (02.09.13) की है. पहले पेज की. सरकार ने निजी बीमाकर्ताओं को फर्जी लाभुकों के नाम पर बीमा के लिए करोड़ों रुपये दिये. केंद्र द्वारा प्रायोजित स्वास्थ्य कार्यक्रमों और कल्याण कार्यक्रमों के तहत गांव के गरीबों को ‘डायरेक्ट कैश ट्रांसफर’ (सीधे खाते में पैसे का भुगतान) योजना में भारी गड़बड़ी हुई. विभागीय जांच से पता चला कि निजी क्षेत्र की सबसे बड़ी बीमा कंपनी ने अस्तित्वविहीन लाभुकों की सूची बनायी. अनेक कल्याणकारी योजनाओं के तहत कपड़ा मंत्रलय से लेकर कृषि मंत्रलय वगैरह में इस योजना के तहत लाभुकों के बीमा किये गये. भुगतान भी हुआ. ऐसी योजनाओं में 75-90 फीसदी प्रीमियम केंद्र सरकार देती है. शेष राशि लाभुकों को देना होता है. या कुछ योजनाओं में लाभुकों द्वारा दी जानेवाली राशि राज्य सरकार देती है. इस प्रक्रिया में अनेक अस्तित्वविहीन लोगों को भुगतान हुआ. पहले बैंकों से भी ऐसे फरजी-अस्तित्वविहीन लोगों को ऋण दिये जाने की सूचनाएं आती थीं. बाद में सरकारी सब्सिडी लौटा कर सब काम पक्का कर लिया जाता था. अगर देश के मानस या रक्त में अनैतिकता, प्रपंच और छल है, तो देश की प्रगति का सपना भी छल है.
दरअसल, इस देश में परंपरा चल पड़ी है कि सरकार का पैसा यानी पराया पैसा. लूट का खजाना. इस लूट संस्कृति की नींव भी ऊपर से पड़ी है. अब सरकारी योजनाओं में प्रचलित लूट रोकने के लिए दो ही रास्ते हैं. पहला, अत्यंत सख्त कानून और इसका समयबद्ध अनुपालन. दूसरा, शिखर पर बैठे नेताओं का ईमानदार होना. नेताओं में चरित्र और संस्कार का होना बुनियादी जरूरत है. इसके बिना कोई कोशिश हो, देश का कल्याण संभव नहीं. पर ऐसे सवालों पर कभी आपने राजनीति, सरकार या संसद में चिंता सुनी है?
अगली खबर भी इंडियन एक्सप्रेस (04.09.13) की है. पहले पेज की लीड खबर. खबर की हेडिंग का हिंदी में आशय है, सीबीआइ के एक एसपी स्तर के अफसर ने कहा, पीएम (प्रधानमंत्री) से पूछताछ की जरूरत. सीबीआइ निदेशक ने कहा, अभी इस स्टेज पर नहीं. प्रधानमंत्री 2006-09 के बीच कोयला मंत्री थे. अखबार में छपी इस खबर के अनुसार, सीबीआइ के एसपी केआर चौरसिया (जो इस मामले की जांच कर रहे हैं) ने रिकार्ड कर उल्लेख किया है कि अब प्रधानमंत्री को एक्जामिन (पूछताछ) करना है. इस मामले की जांच में उन्होंने कई कदम उठाने की सूची बनायी है. इनमें से एक कदम यह भी है. उसी दिन इसी अखबार की खबर है कि सीबीआइ ने कहा कि कोयला मंत्रलय ने 12 इररेलिवेंट (अप्रासंगिक) फाइलें दी हैं. उल्लेखनीय है कि कोयला घोटाले से जुड़ी फाइलें गायब हो गयी हैं. यह भी खबर है कि सांसदों के ‘फेवर करनेवाले’ लिखे गये पत्र भी गायब हैं.
हम इस खबर के गुण-दोष के बारे में नहीं कहना चाहते. प्रधानमंत्री की निजी छवि आज भी हम जैसे लोगों के मन में नितांत बेदाग और ईमानदार है. पर यह सवाल भी उठता है कि एक ईमानदार व्यक्ति के शीर्ष पद पर बैठे रहने के बाद भी घोटालों या अराजकता की बाढ़ आये, तो वैसे व्यक्ति के वहां होने से मुल्क, समाज या देश को क्या लाभ? बहरहाल यह विषयांतर है. आज यह मुल्क इस मुकाम पर पहुंच गया है कि प्रधानमंत्री पद पर बैठे व्यक्ति को भी एक गंभीर मामले में एक्जामिन करने की चर्चा करता है. हमने राजनीति की गरिमा क्या बना दी? कहां से कहां पहुंचे? इस देश की राजनीति ने वह दौर भी देखा है, जब एक मामूली पद पर जिले में बैठे राजनेता से भी समाज प्रेरित होता था. उससे यकीन होता था कि हमारा नेता या राजनीति निष्पाप, निष्कलंक और धवल चरित्र के हैं. इनके रहते सिस्टम (व्यवस्था) में कोई बड़ी गड़बड़ी नहीं हो सकती.आज हम सब जानते हैं कि प्रधानमंत्री ईमानदार हैं. पर सिस्टम इतना सड़ गया है कि एक ईमानदार इंसान को भी ‘एक्जामिन’ (वह भी भ्रष्टाचार के एक गंभीर मामले में) करने की जरूरत एक ईमानदार अफसर महसूस करता है. आज यह मुल्क भरोसा खो रहा है, राजनेताओं से. बड़े पदों पर बैठे लोगों से. संविधान ने जिस कार्यपालिका को देश चलाने के लिए सबसे महत्वपूर्ण और निर्णायक माना, राजनीति ने उस पूरी कार्यपालिका की छवि, साख और विश्वसनीयता खत्म कर दी है. आज पूरा रूलिंग एलीट, चाहे वह शासन हो या विपक्षी या नौकरशाह, सबको लोग संदेह की नजर से देखते हैं. कारपोरेट घरानों की छवि महज मुनाफा कमाने की रह गयी है. वह किसी रास्ते से हो. क्या इस रास्ते चल कर हम इस मुल्क को एक रख पायेंगे? या महान बना पायेंगे? हालांकि कहीं-कहीं टिमटिमाती रोशनी भी है. अगर कोई आइपीएस अफसर इस मामले में प्रधानमंत्री को एक्जामिन करने की बात करता है, तो उसके साहस का अभिनंदन होना चाहिए. जिस आइएएस ने राबर्ट वाड्रा मामले में मुल्क को सच बताया है, उसके प्रति भी समाज-देश को ऋणी होना चाहिए. ऐसे लोगों की मौजूदगी ही एहसास कराती है कि अभी कहीं-कहीं टिमटिमाते दीये हैं. साहस-विहीन दौर में ऐसे साहसी लोग का हौसला बढ़ाना फर्ज-धर्म है.
अगली खबर जनसत्ता (03.09.13) की है. रोचक है. एक आहट भी कि राजनीति जा कहां रही है? यह राजनीति देश और समाज का कितना नाश करेगी? या खंड-खंड करेगी? कोलकाता हाईकोर्ट ने अपने एक फैसले में कहा है कि इमामों और मोअज्जिनों को भत्ता देना असंवैधानिक है. एक जनहित याचिका पर यह सुनवाई हुई थी. ममता बनर्जी पर आरोप लगा था कि उन्होंने वोट के लिए इमामों को हर माह 2500 रुपये और मोअज्जिनों को 1500 रुपये भत्ता देने की घोषणा की थी. हाईकोर्ट ने कहा कि राज्य सरकार का यह निर्णय संविधान की धारा 14 और 15 (1) का उल्लंघन है. इसके तहत किसी नागरिक के साथ जाति, धर्म सहित दूसरी बातों के आधार पर भेदभाव नहीं किया जा सकता. यह तो हुआ, कानूनी पक्ष. पर धर्मनिरपेक्षता का जो मखौल, देश में हुआ है, वह अविश्वसनीय है. एक सामान्य आदमी की समझ से इसका अर्थ है कि राज्य संस्थान धर्म के मामले में निरपेक्ष रहे. उसके आधार पर भेदभाव न करे. अगर आप एक धर्म के लोगों को कोई लाभ देते हैं, तो स्वभाविक है कि अन्य धर्मो के लोगों को आप आमंत्रित कर रहे हैं, ऐसी मांग करने के लिए. उन धर्मो में ऐसी भूमिका का निर्वाह कर रहे लोग भी हक मांगेंगे. फिर भेदभाव की बात उठेगी. वह भी ऐसे काम तब, जब सरकारें कंगाली की हालत में हैं. बंगाल समेत अनेक राज्य की सरकारें भारी ऋण बोझ से दबी हैं. पर ऐसे कार्यक्रमों पर भारी खर्च बढ़ाने की योजना बनाने में मशगूल हैं. सिर्फ इसलिए कि वोट मिले. फिर उसके बाद चिल्लायें कि सरकार कंगाल हो गयी है. पैसा नहीं है, तो काम कैसे होगा? एक स्वस्थ राजनीति में इन सवालों पर खुले मन से बहस होनी चाहिए. जाति, धर्म, क्षेत्र, वर्ण से ऊपर उठ कर देशहित में. क्योंकि देश है, तो हम सब हैं.
यह खबर भी इंडियन एक्सप्रेस (04.09.13) की ही है. मुंबई में एक पत्रकार युवती के साथ हुए बलात्कार के बाद यह घटना सामने आयी है. एक और महिला ने साहस कर शक्ति मिल (जहां पत्रकार युवती के साथ बलात्कार हुआ था) में 22.08.13 को हुए गैंगरेप का एक मामला दर्ज कराया. 31.07.13 को यह घटना हुई थी. भय के कारण तब वह इस घटना की शिकायत नहीं कर पायी थी. बलात्कार करनेवालों की संख्या पांच थी. इस पहली घटना के तीन आरोपी पत्रकार युवती के साथ हुए बलात्कार में भी शामिल थे.
इस खबर में उल्लेख है कि इनमें से एक बलात्कारी तो कई मामलों में दोषी रहा है. एक मामले में तो उसने जिस महिला के साथ बलात्कार किया, दूसरे दिन ही उसकी मौत हो गयी. पुलिस को इसके बारे में सूचना भी मिलती रही, पर पुलिस ने कोई कदम नहीं उठाया. अगर शुरू में ही पुलिस ने कदम उठाया होता, तो 31.07.13 और उसके बाद पत्रकार युवती के साथ हुई बलात्कार की घटना न होती. दरअसल, पुलिस और प्रशासन चौकस रहें, हरेक मामले को गंभीरता से डील करें, तो अपराध पर नियंत्रण संभव है. लेकिन पुलिस और प्रशासन अराजक हो गये हैं, अपनी कार्यशैली में, कार्यसंस्कृति में. इन विभागों का पूर्ण रूप से राजनीतीकरण हो गया है. अफसर अब परफारमेंस, ईमानदारी या क्षमता के आधार पर नहीं तैनात होते. बल्कि जाति, धर्म या सरकार की बात मानने के आधार पर उनकी परख और पोस्टिंग होती है. इसे ठीक किये बिना कानून का राज नहीं स्थापित होनेवाला.
दक्षिण राज्य से आनेवाले एक मित्र हैं. उन्होंने एक सूचना भेजी है. सूचना सही है या गलत, नहीं मालूम! पर रोचक है. वह विचारों से भाजपा विरोधी हैं. मोदी के खिलाफ लंबे समय तक सक्रिय रहे. अब देश के हालात से निराश हैं. उनके संदेश का सार है, विचित्र, पर उनके अनुसार सच. आम चुनावों के पहले रुपये का भाव क्यों गिरता रहा है? इसलिए, ताकि बाहर जमा की गयी ब्लैक मनी जब भारत लायी जाये, तो उस पर भारी मुनाफा मिले. और उस मुनाफे से चुनाव खर्च की भरपाई हो. उनकी यह सूचना गलत भी हो सकती है. पर चुनावों के पहले ही रुपये की कीमत में लगभग 20 फीसदी की गिरावट क्यों होती रही है? सूचना के अनुसार 1984 में रुपये की कीमत में 21 फीसदी की गिरावट आयी. 1989 में 24 फीसदी, 1991 में 22 फीसदी, 1996 में 19 फीसदी, 1998 में 13 फीसदी और 1999 में 14 फीसदी गिरावट हुई. 2004 में रुपये का भाव 11 फीसदी बढ़ा. 2009 में 25 फीसदी की गिरावट. 2014 में (अब तक) 20 फीसदी की गिरावट हुई है. संदेश भेजनेवाले के अनुसार सिर्फ एक समय, जब भाजपा सत्ता में थी, तब 2004 में रुपये का भाव बढ़ा था. याद रखिए इन उल्लिखित वर्षो में आम चुनाव हुए थे. इन तथ्यों की गहराई से जांच जरूरी है. अगर ये निष्कर्ष सही हैं, तो इसकी और गहराई में उतरने की जरूरत है. सरकार को, समाज को और राजनीति को.