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कैसी हो हमारी स्थानीय नीति

झारखंड गठन के साथ ही यहां स्थानीय नीति बनाने की मांग उठने लगी थी, पर दुर्भाग्य है कि राज्य गठन के 14 साल बाद भी झारखंड की अपनी स्थानीय नीति नहीं बन सकी. इसका खमियाजा यहां के युवा भुगत रहे हैं. स्पष्ट स्थानीय नीति के अभाव में दूसरे राज्य के लोग यहां नौकरी लेने में […]

झारखंड गठन के साथ ही यहां स्थानीय नीति बनाने की मांग उठने लगी थी, पर दुर्भाग्य है कि राज्य गठन के 14 साल बाद भी झारखंड की अपनी स्थानीय नीति नहीं बन सकी. इसका खमियाजा यहां के युवा भुगत रहे हैं. स्पष्ट स्थानीय नीति के अभाव में दूसरे राज्य के लोग यहां नौकरी लेने में सफल होते रहे हैं.
अब राज्य की नयी सरकार इस मुद्दे को लेकर गंभीर दिख रही है. सरकार ने विधानसभा में घोषणा की है कि दो माह के अंदर राज्य की स्थानीय नीति घोषित कर दी जायेगी. इसे देखते हुए प्रभात खबर कैसी हो हमारी स्थानीय नीति श्रृंखला चला रहा है. कैसी हो स्थानीय नीति, इस मुद्दे पर आप भी अपने विचार हमें मेल कर सकते हैं या फिर लिख कर भेज सकते हैं. हमारा पता है : सिटी डेस्क, प्रभात खबर, 15-पी, कोकर इंडस्ट्रीयल एरिया, रांची या फिर हमें मेल करें.
हमारी संस्कृति से जुड़ा है यह मुद्दा
दयामनी बरला
कुछ लोग स्थानीय नीति का मतलब सिर्फ थर्ड व फोर्थ ग्रेड की नौकरियों से जोड़ते हैं. मैं मानती हूं कि यह भी एक महत्वपूर्ण मुद्दा है. झारखंड में थर्ड व फोर्थ ग्रेड की नौकरी बेशक यहां के आदिवासियों, मूलवासियों, किसानों व विस्थापितों को मिलना चाहिए. पर स्थानीयता का अर्थ इससे कहीं ज्यादा है.
स्थानीय नीति यहां के जल, जंगल, जमीन, इतिहास व संस्कृति से जुड़ा मुद्दा है. आजादी के पहले से ही आदिवासी, मूलवासी, किसान, मजदूर विकास के नाम पर उजाड़े गये. झारखंड में अबतक 80 लाख लोग विस्थापित हुए हैं. इनमें अबतक कितने लोगों का पुनर्वास हुआ? दिल्ली में झारखंड, छत्तीसगढ़, ओडिशा सहित अन्य प्रदेशों के आठ से नौ लाख आदिवासी नौकरी कर रहे हैं. पर उन्हें वहां आदिवासी की मान्यता नहीं मिलती. प्रमाणपत्र लेने के लिए उन्हें वापस अपने प्रदेशों में लौटना पड़ता है.
जो लोग बिहार, यूपी या अन्य प्रदेशों से यहां आये हैं उनकी जड़ें अपने मूल प्रदेशों में है. जरूरत के समय वे वापस लौट सकते हैं पर झारखंड के लोग कहां जायेंगे? उद्योग धंधे, व्यवसाय आदि में गैर आदिवासियों का वर्चस्व है. उन्हें ज्यादा परेशानी नहीं है पर झारखंड में तृतीय व चतुर्थ वर्ग की नौकरियों में यहां के लोगों को जगह नहीं मिलेगी तो फिर वे अपनी स्थिति कैसे सुधारेंगे. दूसरे लोगों को अब अपना दिल बड़ा करना होगा. स्थानीय नीति इन्हीं बातों को ध्यान में रखकर बनायी जानी चाहिए.
(लेखिका, आंदोलनकारी व सामाजिक कार्यकर्ता हैं.)
छतीसगढ़ व उत्तराखंड की तर्ज पर बने
उदय शंकर ओझा
झारखंड की स्थानीय नीति छत्तीसगढ़ व उत्तराखंड की तर्ज पर बने. यानी राज्य निर्माण के समय को ही स्थानीयता का आधार माना जाये. राज्य गठन के समय या उससे पहले यहां बहुत से लोग व्यापार, नौकरी व अन्य पेशा के लिए आये थे. वे लगातार यहां रह रहे हैं. यहीं उनके बाल-बच्चों का पठन-पाठन से लेकर सारा कुछ हुआ. ऐसे लोग शुद्ध रूप से यहां के स्थानीय हुए.
यहां का स्थानीय उन्हें मानना ही चाहिए. एक देश में दो तरह का कानून नहीं होना चाहिए. एक तो उत्तराखंड-छत्तीसगढ़ में राज्य निर्माण का आधार हो और झारखंड का आधार दूसरा हो, ऐसा करना गलत होगा. देश में कहीं भी किसी भी राज्य में ऐसा नहीं है कि वर्ष 1932, 1945 आदि को आधार मान कर स्थानीयता परिभाषित की गयी हो. कई राज्यों का विभाजन हुआ है.
विभाजन के बाद ही अलग-अलग राज्यों का निर्माण हुआ. वहां भी वर्ष 1932, 1945 को आधार नहीं माना गया. 1947 के बाद बहुत से लोग यहां आये. वहीं 1971 के बाद भी बांग्लादेश से बहुत को यहां आना पड़ा. सबको सरकार ने बसाया, लेकिन उनके पास खतियान नहीं है. इसी तरह ऐसे लोगों की तादाद बहुत अधिक है, जिनके पास जमीन नहीं थी. ऐसे में वे अपनी खतियान नहीं दिखा सकते हैं, तो क्या ऐसे लोगों को यहां की स्थानीयता का हक नहीं है?
अगर उन्हें यहां की स्थानीयता नहीं मिलेगी, तो कहां की मिलेगी? (लेखक मजदूर नेता व झारखंड ट्रक ऑनर एसोसिएशन के अध्यक्ष हैं.)

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