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क्या भारतीय अंक संपदा नष्ट होने दें?

तरुण विजय राज्यसभा सांसद, भाजपा भारतीय अंकों के कारण केवल हिंदू गणितज्ञों ने लाख, करोड़, अरब, खरब, शंख, नील, पदम तक गणना संभव कर डाली. वरना लैटिन में एक ही अक्षर को बार-बार दोहरा कर या आगे-पीछे करके दो-दो पंक्तियों की लंबाई में संख्या लिखी जाती थी. आप या आपके बच्चों में से कितने ऐसे […]

तरुण विजय
राज्यसभा सांसद, भाजपा
भारतीय अंकों के कारण केवल हिंदू गणितज्ञों ने लाख, करोड़, अरब, खरब, शंख, नील, पदम तक गणना संभव कर डाली. वरना लैटिन में एक ही अक्षर को बार-बार दोहरा कर या आगे-पीछे करके दो-दो पंक्तियों की लंबाई में संख्या लिखी जाती थी.
आप या आपके बच्चों में से कितने ऐसे होंगे जो अपनी भाषा के अंक न केवल पहचान सकते हैं, बल्कि लिख भी सकते हैं? एक ऐसी पीढ़ी उभर उठी है, जो शायद इस बात में भी गर्व महसूस करती है कि वह हिंदी के अंक पहचानती भी नहीं.
भारत की अंकगणितीय विरासत और संपदा के खत्म होते जाने पर कोई चिंता नहीं हो रही है. भारत वह देश है जिसने दुनिया को अंक दिये, शून्य दिया, दशमलव प्रणाली दी. यहां के वैज्ञानिकों ने दो हजार वर्ष पूर्व पृथ्वी की परिधि मापी, लाखों प्रकाश वर्ष दूर ग्रहों की स्थिति का आकलन किया, उनकी ज्यामितीय एवं खगोलीय गणना की तथा उनको नाम दिये. किंतु दास मानसिकता से ग्रस्त भारतीय मैकाले पुत्रों को भारत की विरासत की महानता और ज्ञान संपदा सहन नहीं होती. वे हर विकास, वैज्ञानिक प्रगति तथा अन्वेषण का श्रेय केवल फिरंगी अंगरेजों को देकर संतुष्ट होते हैं.
पिछले दिनों भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संस्थान के पूर्व अध्यक्ष एवं महान वैज्ञानिक जी माधवन नायर ने जब कहा कि वेदों में चंद्रमा पर जल की उपस्थिति की चर्चा है तथा आर्यभट्ट जैसे वैज्ञानिकों को आइजैक न्यूटन से भी पहले गुरुत्वाकर्षण की शक्ति का पता था, तो खलबली मच गयी. भास्कराचार्य ने ग्रहों की स्थिति और उनकी गति का गहन एवं सूक्ष्म अध्ययन किया था. तक्षशिला और नालंदा जैसे विश्वविद्यालयों में विज्ञान की विभिन्न शाखाओं जैसे भौतिकी, रसायन, खगोलशास्त्र, अंकगणित आदि पर लाखों हस्तलिखित पुस्तकें थीं. बख्तावर खिलजी और मोहम्मद-बिन-कासिम जैसे क्रूर विदेशी आक्रमणकारियों ने ऐसे सभी गं्रथालय जला दिये और आचार्यो को मार डाला. इस कारण ज्ञान परंपरा का सातत्य टूट गया.
ये तमाम गणनाएं और अन्वेषण जिन भारतीय अंकों के आधार पर हुए, वे आज अमेजन की भाषाओं तथा अंदमान की जनजातियों की भांति लुप्त होने के कगार पर हैं. सामान्यत: बाजार, मीडिया, सरकारी दफ्तरों, राजनेताओं के काम-काज तथा विद्यालयों में केवल अंगरेजी के अंकों का इस्तेमाल होता है. अंतरराष्ट्रीय अंकों के नाम पर हमने अपने अंक खोना स्वीकार कर लिया है.
विडंबना यह है कि जिस भारत ने अंक प्रणाली विश्व को दिया, वह अपने अंक छोड़ कर पश्चिम से वापस औपनिवेशिक दासता के कारण हम तक पहुंचे अंकों को अपना बैठा है. साधारणतया हम या हमारे बच्चे किसी मोबाइल नंबर को हिंदी के अंकों में अथवा बंगला, तमिल और तेलुगू बच्चे अपनी मातृभाषा के अंकों में बोलने में या तो असमर्थ होते हैं अथवा बहुत कठिनाई महसूस करते हैं. दुर्भाग्य से हिंदी के समाचार पत्रों ने भी अंगरेजी के अंकों का ही उपयोग शुरू कर दिया है.
हमारी नयी पीढ़ी को तो यह भी नहीं बताया जाता है कि शून्य और अंक अरब समाज ने भारत से प्राप्त किये हैं और आज भी वहां अंकों को ‘हिंदसे’ अर्थात् भारत से आये हुए कहा जाता है. भारत का शून्य अरब में सीफर हो गया और वहां से लैटिन में जेफिरम और अंगरेजी में जीरो हुआ. लैटिन और पश्चिमी विश्व अंकों को हिंदू अरेबिक या इंडो अरेबिक न्यूमरल ही कहता है.
फ्रांस के विश्वविख्यात गणितज्ञ पीयरे सीमोन लाप्लास ने लिखा था- ‘वह देश भारत ही है, जिसने हमें दस प्रतीकों के माध्यम से सभी संख्याएं प्रकट करने की मौलिक पद्धति दी. इनमें से प्रतीक न केवल अपनी स्थिति के अनुसार मूल्य प्राप्त करता है, बल्कि उसका निरपेक्ष मूल्य भी होता है और इसने हर प्रकार की गणनाओं को अद्भुत सरलता प्रदान कर दी. इस उपलब्धि की विराटता और महानता का हम तब बेहतर अंदाजा लगा सकेंगे कि हमारे प्राचीन युग के महानतम शिखर बौद्धिक पुरुषों आर्कीमीडीज और अपोलोनियस इन अन्वेषणों से पूरी तरह अनभिज्ञ रहते हुए गुजर गये.’
भारत के अंगरेजी स्कूलों में पढ़े बच्चे न केवल आधुनिक व्यापार, वाणिज्य और ज्ञान के पश्चिमी द्वारों पर दस्तक देने में समर्थ हो जाते हैं, बल्कि वे बेहतर वेतन तथा पदों के भी पात्र माने जाते हैं. पर इसके साथ ही वे भारत और भारतीयता से भी दूर कर दिये जाते हैं.
उन्हें यह कभी बताया ही नहीं जाता कि उनके पूर्वजों ने अंगरेजी विश्वविद्यालयों या पश्चिम में पढ़ाई किये बिना विश्व को अचंभित करनेवाले आविष्कार किये तथा पृथ्वी पर कहीं ऐसा सौंदर्य न मिले, वैसे मंदिर, मूर्तिशिल्प, कलाकृतियां, नगरशिल्प के वैज्ञानिक आधार और 226 फीट ऊंचे मंदिर के शिखर पर 80 टन की एक चट्टान गोपुरम के सौंदर्य के लिए आज से दो हजार साल पहले इस प्रकार पहुंचा कर स्थापित किया कि वह तंजौर का मंदिर आज भी जस-का-तस दुनिया के बड़े-बड़े इंजीनियरों को हैरत में डाल रहा है. ताजमहल जिन कारीगरों और भारतीय शिल्पकारों ने बनाया, वे इटली या फ्रांस में नहीं पढ़े थे. वे किन अंकों का इस्तेमाल करते थे? वे किन पैमानों से मिलीमीटर से भी सूक्ष्म आकलन कर ऐसे भवन बनाते थे, जो दो-दो हजार साल अपने सौंदर्य से सबको मुग्ध करते रहे?
उनके पास अंगरेजी के अंक नहीं थे. वे मीटर, फीट, इंच, सेंटीमीटर, मिलीमीटर में माप नहीं करते थे. वे मिनट या सेकेंड में समय गणना नहीं करते थे. वे किलो या लीटर में वस्तुओं या द्रव पदार्थो को नहीं तौलते थे. वे किलोमीटर या फरलांग में दूरियों की पैमाइश नहीं करते थे. तो फिर वे किन अंकों का इस्तेमाल करते थे? वे अंक हमारे लिए मंदिर में रखे देवता की तरह पवित्र और परंपरा के वाहक हैं. जैसे मंदिर में आरती की लौ हो या देवता के माथे पर चंदन का शुभ तिलक, जैसे बाल रवि की रश्मियों से दीप्तिमान हिमालय सुनहरी आभा से दमक रहा हो, जैसे भीड़ में खोये बालक को अचानक मां का आंचल दिख जाये, ऐसे इन अंकों को देख कर मन में भाव जगता है. अगर नहीं जगता तो आप अभागे हैं, क्योंकि अपनी मां की ममता और वात्सल्य से दूर रहने के इतने आदी हो गये हैं कि उसकी कमी महसूस ही नहीं कर पाते.
इन्हीं भारतीय अंकों के कारण केवल हिंदू गणितज्ञों ने लाख, करोड़, अरब, खरब, शंख, नील, पदम तक गणना संभव कर डाली. वरना लैटिन में एक ही अक्षर को बार-बार दोहरा कर या आगे-पीछे करके दो-दो पंक्तियों की लंबाई में संख्या लिखी जाती थी. यह केवल वैदिक गणित एवं भारतीय अंकों के कारण संभव हुआ.
क्या यह संभव है कि हम कम-से-कम अपने विद्यालयों की प्राथमिक कक्षाओं, समाचार पत्रों एवं अपने व्यक्तिगत व्यवहार में हिंदी के अंकों का प्रयोग पुन: प्रारंभ करें तथा इस प्रकार अपने अंकों की महान विरासत और संपदा को नष्ट होने से बचा लें? अंक केवल प्रणाली और मूल्य ही नहीं, बल्कि इतिहास के भी वाहक होते हैं.

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