कांग्रेस की अपनी समस्या है कि वह उस परिवार में ही नेतृत्व देखने की अभ्यस्त है. उससे बाहर निकलने का सोच जिन्होंने दिखाया, वे बाहर हो गये. इसलिए अगर उस परिवार से ही उनको नेतृत्व खोजना है, तो दो ही नाम हो सकते हैं.
यह पहली बार नहीं है जब प्रियंका गांधी को कांग्रेस में महत्वपूर्ण दायित्व देने की बात उठी है. लेकिन इस समय कांग्रेस जिस हताशा और मानसिक वेदना का शिकार है, उसमें इस आवाज की प्रासंगिकता कई कारणों से है. लोकसभा में पराजय के बाद वह लगातार विधानसभा चुनाव में भी हार रही है. कई राज्यों से नेता राहुल गांधी की नेतृत्व क्षमता पर प्रश्न उठा चुके हैं, तो कुछ उन्हें पार्टी अध्यक्ष बनाने की मांग कर रहे हैं. प्रियंका का नाम भी गंभीर चर्चा में है. पहले राज्यों के स्तर से सामान्य नेता इसकी आवाज उठाते थे, इस बार यह शीर्ष स्तर से उठा है.
माना जा रहा है कि कांग्रेस में दो समूह हो गये हैं. एक राहुल के पक्ष में है और दूसरा प्रियंका के पक्ष में. लेकिन, एक पक्ष ऐसा है, जो दोनों को लाकर संतुलन बनाने की कोशिश कर रहा है. कहा तो यह भी जा रहा है कि राहुल स्वयं प्रियंका को लाना चाहते हैं. हालांकि, इसकी पुष्टि कठिन है. वैसे कांग्रेस पार्टी के अंदर आज का सच यही है कि अगर राहुल और प्रियंका में से एक का चयन करना हो, तो नेताओं का बड़ा वर्ग प्रियंका पर दांव लगा देगा. पर यह उनके वश में नहीं है. अप्रैल में कांग्रेस का महाधिवेशन होना है. उस समय सब स्पष्ट हो सकता है.
यदि प्रियंका सक्रिय हो भी जायेंगी, तो क्या वर्तमान पतनोन्मुख और भविष्य की दृष्टि से किंकर्तव्यविमूढ़ कांग्रेस में जान फूंक सकती हैं? इस बारे में उनके अब तक के सार्वजनिक जीवन के प्रदर्शन, व्यवहार आदि के आधार पर संभावनाओं का आकलन किया जा सकता है. अभी तक वे सोनिया व राहुल गांधी के क्षेत्र का दायित्व संभालती रही हैं और उत्तर प्रदेश में मोदी के लहर के बावजूद ये दोनों संसद में पहुंचने में सफल रहे. छोटी सभाओं में वे लोगों को सरल भाषा में समझाकर बोलती हैं. इससे आभास होता है कि उनमें लोगों को अपनी बात समझा पाने की क्षमता है. वे जनता से संवाद कर सकती हैं. व्यापक पैमाने पर कितना कर पायेंगी, उसका परीक्षण होना अभी शेष है.
वर्ष 1999 में बड़े मंच पर पहली बार उन्होंने अरुण नेहरू के खिलाफ बोला था और वे चुनाव हार गये. पर दूसरी ओर लोकसभा चुनाव के दौरान ही उन्होंने वरुण गांधी के विरुद्ध तीखा बयान दिया, उन्हें भटका हुआ बताया, परिवार से उनको अलग करार दिया, जिसका कोई प्रभाव जनता पर नहीं हुआ. पिछले लोकसभा चुनाव में वे राहुल के केंद्रीय कार्यालय में भी सक्रिय थीं, कई बार पार्टी पदाधिकारियों के साथ बैठीं, घोषणा पत्र जारी होने के पूर्व भी उन्होंने बैठक ली. तो परोक्ष तौर पर वे प्रबंध में सक्रिय थीं. बावजूद कांग्रेस की बुरी पराजय हुई. ये दो स्थितियां उनके संदर्भ में हैं. यह भी नहीं भूलना चाहिए कि इस समय कांग्रेस को ऐसे नेतृत्व की जरूरत है, जो विचारधारा व संगठन दोनों को आमूल रूप से नवजीवन प्रदान करने की क्षमता रखता हो. कांग्रेस विचार, संगठन, नीति, रणनीति एवं नेतृत्व सभी स्तरों पर निराशा का शिकार है. राहुल गांधी ने अब तक की अपनी सक्रियता से ऐसी क्षमता प्रदर्शित नहीं की है. हालांकि, उन्हें अवसर पूरा मिला, जबकि प्रियंका के बारे में अभी ज्यादातर पहलू अनजाने हैं.
कांग्रेस की अपनी समस्या है कि वह उस परिवार में ही नेतृत्व देखने की अभ्यस्त है. उससे बाहर निकलने की सोच जिन्होंने दिखायी, वे बाहर हो गये. इसलिए अगर उस परिवार से ही उनको नेतृत्व तलाशना है, तो फिर दो ही नाम हो सकते हैं. एक का परीक्षण हो चुका है, दूसरे का होना शेष है. प्रियंका को लेकर उत्साहित नेता एक खास पहलू की अनदेखी कर रहे हैं. उनके पति रॉबर्ट वाड्रा पर हरियाणा से राजस्थान तक अवैध तरीके से जमीन लेने, कंपनियां बना कर कुछ रिटेल कंपनियों को मोटी राशि लेकर बेचने या उनके साथ साङोदारी करने और उन सबमें नियमों के उल्लंघन के आरोप हैं. वाड्रा के खिलाफ मुकदमे तक दायर हो गये हैं. जांच चल रही है. उन जांचों की आंच प्रियंका तक नहीं पहुंचेगी और उनकी तपिश में कांग्रेस नहीं झुलसेगी, यह कल्पना नासमझी होगी. भाजपा के कई नेताओं ने कहा भी कि आज की स्थिति में प्रियंका गांधी का आना उनके लिए ज्यादा अनुकूल होगा, क्योंकि हमारे पास तो उनके पतिदेव का ऐसा अमोघ अस्त्र है, जिनसे हम उनका आसानी से सामना कर लेंगे. यह वक्तव्य केवल ख्याली पुलाव नहीं है. यह संभव है. रॉबर्ट वाड्रा प्रियंका के राजनीतिक रास्ते में ऐसी शूल बने हैं, जो मुकदमों का फैसला होने तक उनको पल-पल पर लहू-लुहान कर सकते हैं.
क्या कांग्रेस के वर्तमान दुर्दशा के दौर में इस शूल के रहते हुए वो उतनी तेजी से दौड़ लगा पायेंगी जितने की जरूरत है? यह एक बड़ा प्रश्न चिह्न् उनकी भूमिका पर खड़ा है. सोनिया गांधी के सामने प्रियंका को आगे लाने के पीछे वाड्रा नामक शूल बहुत बड़ी हिचक होगी. आखिर प्रियंका यह तय कर सकती हैं कि उनको राजनीति में पूरी तरह कूद जाना है या नहीं, लेकिन इसका अंतिम फैसला तो सोनिया गांधी के हाथों ही है.
अवधेश कुमार
वरिष्ठ पत्रकार
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