रिपोर्टो के मुताबिक, राहुल गांधी के इस्तीफे की मांग करनेवाला पोस्टर लगाने के कारण कानपुर के एक कांग्रेस कार्यकर्ता को पार्टी से छह वर्षो के लिए निकाल दिया गया है और पार्टी के स्थानीय नेताओं का कहना है कि ‘हम यह सुनिश्चित करेंगे कि वह व्यक्ति दोबारा पार्टी में शामिल न हो सके.’ यह खबर फिर स्पष्ट करता है कि गांधी-नेहरू परिवार की आलोचना करनेवाला कोई नेता-कार्यकर्ता पार्टी में नहीं रह सकता और उसे अपनी आलोचना का स्पष्टीकरण देने या भूल-सुधार का कोई अवसर भी नहीं दिया जायेगा. निश्चित रूप से देश की इस सबसे पुरानी पार्टी का चरित्र लंबे समय से ऐसा ही रहा है, लेकिन तब उसकी राजनीतिक ताकत के बरकरार रहने के अन्य कई कारण भी मौजूद थे. लेकिन, आम चुनाव से शुरू हुआ कांग्रेस की चुनावी हार का सिलसिला बदस्तूर जारी है, जिसका ताजा संस्करण दिल्ली विधानसभा के चुनाव में उसका शून्य के आंकड़े पर पहुंच जाना है.
यह न सिर्फ दिलचस्प परिघटना है, बल्कि एक बड़ी विडंबना भी है कि कांग्रेस न तो किसी तरह के आत्मचिंतन की ओर अग्रसर है और न ही फिर से खड़ा होने की गंभीर कोशिश करती दिख रही है.
उनके आत्मघाती प्रबंधन का एक उदाहरण यह है कि पिछले दिनों विधानसभाओं के चुनावों के दौरान ही पार्टी में आंतरिक चुनाव की कवायद भी चल रही थी. पार्टी नेता और कार्यकर्ता मीडिया में चुनाव-प्रचार करते दिख जरूर रहे थे, लेकिन उनका दिलो-दिमाग सांगठनिक चुनाव में अपने या अपने समर्थकों की जीत की ओर केंद्रित था. कुछ वर्ष पूर्व जब राहुल गांधी ने पार्टी के छात्र व युवा संगठनों के सदस्यों द्वारा पदाधिकारियों के निर्वाचन की प्रक्रिया शुरू की थी, तब इसे पार्टी में आंतरिक लोकतंत्र लाने के एक गंभीर प्रयास के रूप में देखा गया था, क्योंकि इससे मनोनयन और खेमेबाजी की पार्टी परंपरा के टूटने की उम्मीद बंधी थी. लेकिन, इस प्रक्रिया का नतीजा भी वही रहा और अधिकतर पदों पर धन-बल रखनेवाले या वरिष्ठ नेताओं के बेटे-बेटियां ही निर्वाचित हुए थे. और जल्दी ही इस कोशिश को भी तिलांजलि दे दी गयी. पार्टी में वंशवाद और समर्थक मंडली का वर्चस्व सिर्फ शीर्ष नेतृत्व तक ही सीमित नहीं है. राज्यों में और द्वितीय श्रेणी के नेता भी इन्हीं योग्यताओं के आधार पर पदासीन होते रहे हैं. इसका ताजा उदाहरण गुजरात में पूर्व मुख्यमंत्री और वरिष्ठ कांग्रेसी नेता माधवसिंह सोलंकी के बेटे भरतसिंह सोलंकी को फिर से प्रदेश अध्यक्ष बनाया गया है. वे पहले भी केंद्रीय मंत्री और राज्य इकाई के अध्यक्ष रह चुके हैं. इसी तरह दिल्ली में पूर्व मुख्यमंत्री शीला दीक्षित के समर्थकों को किनारे करने के क्रम में अजय माकन को कमान दी गयी है. माकन के ही नेतृत्व में दिल्ली विधानसभा का चुनाव लड़ा गया था, जिसमें पार्टी का खाता भी नहीं खुला और अधिकतर प्रत्याशी अपनी जमानत तक न बचा सके.
खबरों की मानें, तो राहुल गांधी के कुछ सप्ताह की छुट्टी पर जाने की वजह आराम और चिंतन नहीं, बल्कि कांग्रेस में नेतृत्व परिवर्तन के लिए चल रहे घमासान का नतीजा है. पार्टी के वरिष्ठ नेता तक सार्वजनिक रूप से यह स्वीकार कर चुके हैं कि राहुल समर्थकों और सोनिया समर्थकों के बीच टकराव समझौते की हद से बाहर जा चुका है. पार्टी की एक परिवार पर निर्भरता का अनुमान इस बात से भी लगाया जा सकता है कि खेमे भले ही अलग-अलग हों, उनके लिए नेता के रूप में पसंद परिवार की त्रयी का ही कोई सदस्य है. कुछ चाहते हैं कि सोनिया अध्यक्ष बनी रहें, कोई राहुल की अविलंब ताजपोशी का हामी है, तो कोई ‘प्रियंका लाओ, कांग्रेस बचाओ’ के नारे लगा रहा है.
कांग्रेस की आंतरिक उठापटक को पार्टी का आंतरिक मामला कह कर बहस से बाहर नहीं रखा जा सकता है. एक राजनीतिक पार्टी के रूप में उसकी लोकतांत्रिक उपादेयता भी है और राजनीतिक जिम्मेवारी भी. वह संसद में सबसे बड़ी विपक्ष है और करोड़ों मतदाताओं की उम्मीद भी. सरकार की नीतियों की आलोचनात्मक समीक्षा का भार उस पर अधिक है. ऐसे में राहुल गांधी का महत्वपूर्ण सत्र से अनुपस्थित रहना सही नहीं माना जा सकता. यह तो उसी तरह की बात है कि परीक्षा से ठीक पहले छात्र छुट्टी मनाने लगे. पार्टी नेतृत्व में फेरबदल की तस्वीर तो आगामी महीनों में सामने आ जायेगी, लेकिन कांग्रेस को बतौर राजनीतिक दल एक परिवार पर निर्भरता, वैचारिक संकट और संगठनात्मक निष्क्रियता पर अविलंब गहराई से चिंतन करना चाहिए, ताकि उसकी प्रासंगिकता बनी रहे.