।। शुजात बुखारी ।।
(एडिटर-इन-चीफ, राइजिंग कश्मीर)
– दुनिया की 2,500 भाषाओं पर विलुप्ति का खतरा है. दूसरी भाषा के प्रति वैर-भाव न रखते हुए भी यह समझना जरूरी है कि अपनी मातृभाषा की उपेक्षा करना किसी समाज के लिए अच्छा नहीं होता. –
जम्मू कश्मीर में इन दिनों कश्मीरी भाषा को क्लासिकल (शास्त्रीय) भाषा का दर्जा दिलाने की मांग को लेकर एक मुहिम चल रही है. हालांकि कश्मीरी भाषा भारतीय उप-महाद्वीप की सबसे पुरानी भाषाओं में से एक है, लेकिन भारत सरकार को इस मांग के लिए रजामंद करना काफी चुनौतीपूर्ण है. इतिहासकार इस मामले में एक राय हैं कि कश्मीरी भाषा का अस्तित्व दो हजार वर्षो से भी पुराना है और इसकी लिपि 900 साल से ज्यादा पुरानी है. इस मामले में यह दक्षिण एशिया की हिंदी और उर्दू जैसी लोकप्रिय भाषाओं से पुरानी है. भाषाविद् मोहम्मद यूसुफ तैंग के मुताबिक कश्मीरी भाषा के चिह्न् ईसापूर्व 400 ईस्वी से खोजे जा सकते हैं. पहली सदी में रचित चरक संहिता में भी इसके निशान मिलते हैं.
11वीं सदी में लिखी गयी कल्हन की राजतरंगिनी, जिसे कश्मीर का पहला समग्र इतिहास कहा जा सकता है, में कश्मीरी के शब्द मिलते हैं. इनसे आगे जाकर एक बड़ा तथ्य यह है कि कश्मीरी पूरे जम्मू-कश्मीर की प्रमुख भाषा है और इस राज्य के अलावा पूरे देश और दुनिया में फैले हुए कम-से-कम एक करोड़ लोग यह भाषा बोलते हैं. इसका समृद्ध इतिहास इसे अपनी अलग और विशिष्ट पहचान वाली भाषा के तौर पर स्थापित करता है. साथ ही एक तथ्य यह भी है कि यह संविधान द्वारा मान्यता मिलनेवाली शुरुआती भाषाओं में से एक थी.
कश्मीरी को क्लासिकल भाषा का दरजा दिये जाने का विचार अतार्किक नहीं है. कश्मीर के साहित्यिक और सांस्कृतिक समूहों द्वारा इस मामले में केंद्र सरकार पर दबाव बनाने की मांगों को देखते हुए राज्य सरकार ने तैंग के नेतृत्व में एक दस सदस्यीय कमेटी का गठन किया. यह कदम 2011 में राज्य विधानसभा में इस बाबत सर्वसम्मति से एक प्रस्ताव पारित किये जाने के बाद उठाया गया.
हालांकि एक विडंबना यह है कि यह कमेटी जम्मू कश्मीर एकेडमी ऑफ आर्ट, कल्चर एंड लैंगुएज से संबद्ध नहीं है, जिसे कि इस मामले में संयोजक एजेंसी की भूमिका निभानी थी. कमेटी के प्रयासों को इस कारण काफी धक्का लगा है. हालांकि तैंग को विश्वास है कि वे कश्मीरी को क्लासिकल दर्जा देने की जोरदार मांग करने के लिए कमेटी के सदस्यों को प्रोत्साहित कर पायेंगे.
हालांकि यह देखने की जिम्मेदारी राज्य सरकार की बनती है कि कमेटी अपनी रिपोर्ट समय पर दे. साथ ही उसे भारत सरकार के सामने इस मांग को समुचित तरीके से उठाना भी चाहिए. भारत में बोली जानेवाली सैकड़ों भाषाओं में से अब तक सिर्फ पांच भाषाओं को शास्त्रीय भाषा का दर्जा दिया गया है.
जिस तरह से केरल के राजनीतिक नेतृत्व ने मलयालम को यह दर्जा दिलाने की लड़ाई लड़ी, वह अपने आप में एक मिसाल है. वहां सत्ता पक्ष और विपक्ष ने एकजुट होकर केंद्र सरकार को अपनी यह मांग मानने पर विवश कर दिया और इस साल के शुरू में मलयालम को यह दर्जा दे दिया गया. इस दरजे के बाद भाषा के प्रसार के लिए 100 करोड़ रुपये बतौर ग्रांट दिया जायेगा. इसके साथ ही विभिन्न केंद्रीय विश्वविद्यालयों में मलयालम पीठ की भी स्थापना की जायेगी.
इस मांग को अंजाम तक पहुंचाने में राज्य सरकार कितनी कामयाब होगी, यह तो समय ही बतायेगा. फिलहाल इस मांग को लेकर राज्य के स्तर पर भी काफी चुनौतियां हैं. सबसे बड़ा खतरा समाज के भीतर से ही है. हालांकि सरकारी स्तर पर इस मामले में विभिन्न सरकारों का रवैया उतना निराशाजनक नहीं रहा है, जितना कि अमूमन ऐसे मामलों में सरकारों की तरफ से देखने को मिलता है.
पिछले दशक में हमने देखा है कि कश्मीरी को स्कूल पाठ्यक्रम में फिर से शामिल किया गया है. कुछ कमियों के बावजूद कश्मीरी को सरकारी और निजी स्कूलों में कक्षा आठ तक अनिवार्य विषय के तौर पर पढ़ाया जा रहा है. इसे 9वीं एवं 10वीं तक अनिवार्य करने की मांग भी की जा रही है. सरकार ने हाल ही में इस मसले पर विचार के लिए एक कमेटी का गठन किया है. कश्मीरी भाषा एक ऐच्छिक विषय के तौर पर 11वीं कक्षा से पढ़ाया जा रहा है. सैकड़ों छात्रों ने स्नातक और स्नातकोत्तर स्तर पर कश्मीरी का चयन किया है. इसके अलावा कई छात्र कश्मीरी में डॉक्टरेट की पढ़ाई भी कर रहे हैं.
यह एक महत्वपूर्ण बदलाव है. खासतौर से यह देखते हुए कि कश्मीरी को लेकर वातावरण काफी निराशाजनक था, जिसने इस पर नकारात्मक असर डाला था. यह उस दोषपूर्ण शिक्षा व्यवस्था का नतीजा था, जो अभिभावकों को अपने बच्चों को कश्मीरी के बजाय दूसरी भाषाओं के अध्ययन के लिए मजबूर करने के लिए प्रेरित करती थी. किसी दूसरी भाषा के प्रति वैर-भाव न रखते हुए भी यह समझना जरूरी है कि अपनी मातृभाषा की उपेक्षा करना किसी समाज के लिए अच्छा नहीं होता.
यह बात अन्य भाषाओं की तरह कश्मीरी पर भी लागू होती है. पिछले कई दशकों से कश्मीर राजनीतिक अस्थिरता का शिकार रहा है और दुर्भाग्यवश इसका असर कश्मीरी भाषा पर भी पड़ा है. कश्मीरी भाषा राज्य की राजनीतिक पहचान पर जारी हमले का शिकार हुई है. अगस्त, 1953 में शेख अब्दुल्लाह को राज्य के मुख्यमंत्री पद से हटाये जाने और उसके बाद उनकी गिरफ्तारी के पश्चात से ही यह भाषा साजिशों का शिकार रही है. इसके ठीक बाद कश्मीरी भाषा को स्कूल से हटा दिया गया. इसकी वापसी में 47 साल लग गये, जब फारुख अब्दुल्ला ने इस दिशा में ठोस पहल की.
कश्मीरी भाषा को असल खतरा समाज के भीतर से है. समाज का एक बड़ा हिस्सा, खासतौर पर शहरी मध्यवर्ग, अपनी मातृभाषा के प्रति अवमानना नहीं, तो उपेक्षा की भावना जरूर रखता है. इसकी एक वजह यह समझ है कि अंगरेजी एक अंतरराष्ट्रीय भाषा है, जो नयी पीढ़ी के लिए बेहतर भविष्य की गारंटी है. यह देखा गया है कि कोई भाषा अपनी विरासत के प्रति सम्मान की भावना और उसे बोलनेवालों की गिरती संख्या के कारण अकाल मृत्यु का शिकार होती है.
विलुप्तप्राय भाषाओं पर यूनेस्को की 2009 की रिपोर्ट के मुताबिक दुनिया की करीब 2,500 भाषाओं पर विलुप्ति का खतरा मंडरा रहा है, जिनमें 500 ऐसी हैं, जिन पर यह खतरा काफी ज्यादा है. उस समय दुनिया में 199 भाषाएं ऐसी थीं, जिनको बोलनेवाले दस से भी कम लोग रह गये थे. हालांकि इस बात पर आश्चर्य किया जा सकता है कि सिर्फ दस लोगों द्वारा बोली जानेवाली इक्वेडोर की एंडोआ भाषा और उसके शब्द भंडार को इसके बोलनेवालों द्वारा पुनर्जीवित किया गया है.
किस्मत की बात है कि कश्मीरी को बोलनेवालों की संख्या काफी ज्यादा है. लेकिन मूलभाषियों द्वारा अपनी भाषा को त्यागने के जो खतरे होते हैं, उसकी ओर जरूर ध्यान दिया जाना चाहिए. इसलिए अपनी भाषा को पतन से बचाने की जिम्मेवारी समाज, सरकार और भाषा कार्यकर्ताओं के कंधे पर आती है.