इधर सरकार ने नये तेलंगाना राज्य की घोषणा की नहीं कि उधर गोरखालैंड के लिए लोग अनशन पर बैठ गये और इस मुद्दे को लेकर क्षेत्र में बंद और प्रदर्शनों का भी दौर जारी है.
देश के विभिन्न हिस्सों के पिछले एक दशक से सोये नेता जाग गये हैं और देखते–ही–देखते पूर्वाचल, हरित प्रदेश, विदर्भ, बुंदेलखंड सहित न जाने कितने राज्यों की मांगे सामने आ गयी? इस बात में कोई संदेह नहीं कि लोकसभा चुनावों से पहले राजनीतिक लाभ की आकांक्षा में कांग्रेस ने आंध्र प्रदेश के विभाजन की चाल चली है, लेकिन दूसरा पहलू यह भी है कि विपक्षी भाजपा भी वोट की लालसा में ही पृथक तेलंगाना राज्य के गठन की बात कह रही थी.
बड़े खेद का विषय है कि राष्ट्र की अखंडता के मुद्दे पर भी राजनीतिक दल राजनीति करने से बाज नहीं आ रहे हैं. यह कितने दुख की बात है कि देश की स्वतंत्रता के बाद लौह पुरुष सरदार वल्लभ भाई पटेल ने जिस भारत को जोड़ने की कोशिश की, आज उसी देश के नेता अपने–अपने राजनीतिक स्वार्थो के वशीभूत होकर इसको टुकड़ों में बांटने के लिए जी जान से लगे हुए हैं. क्या अलग राज्य ही विकास की गारंटी है?
।। शैलेश कुमार ।।
(ई–मेल से)