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शाहबाग पर हमारी खामोशी

।। किशोर झा ।।– शाहबाग आंदोलन धर्मनिरपेक्षता और लोकतंत्र के मूल्यों में यकीन करनेवाला एक ऐसा आंदोलन है, जो 1971 के युद्ध अपराधों के गुनहगारों को कड़ी से कड़ी सजा की मांग कर रहा है. हैरानी की बात यह है कि भारत के प्रगतिशील और जनवादी खेमे में भी इस आंदोलन को लेकर कोई सुगबुगाहट […]

।। किशोर झा ।।
– शाहबाग आंदोलन धर्मनिरपेक्षता और लोकतंत्र के मूल्यों में यकीन करनेवाला एक ऐसा आंदोलन है, जो 1971 के युद्ध अपराधों के गुनहगारों को कड़ी से कड़ी सजा की मांग कर रहा है. हैरानी की बात यह है कि भारत के प्रगतिशील और जनवादी खेमे में भी इस आंदोलन को लेकर कोई सुगबुगाहट नहीं दिखती. वामपंथी पार्टियों की चुप्पी चुभनेवाली है. भारत के प्रगतिशीत तबके को जवाब देना होगा कि वह बांग्लादेशी तहरीक के साथ एकजुटता क्यों नहीं जता सका. –

सन् 2011 में भ्रष्टाचार के खिलाफ अन्ना आंदोलन में उमड़े हजारों लोगों की तसवीरें आज भी जेहन में ताजा हैं. उन तसवीरों को टीवी और अखबारों में इतनी बार देखा था कि चाहे तो भी नहीं भुला सकते.

लोग अपने-अपने घरों से निकल कर अन्ना के समर्थन में इकट्ठे हो रहे थे और गली-मोहल्लों में भ्रष्टाचार के खिलाफ नारे लगा रहे थे. इंडिया गेट से अखबारों और न्यूज चैनलों तक पहुंचते-पहुंचते सैकड़ों समर्थकों की ये तादाद हजारों और हजारों की संख्या लाखों में पहुंच जाती थी.

तमाम समाचार पत्र इसे दूसरे स्वतंत्रता आंदोलन की संज्ञा दे रहे थे और टीवी देखनेवालों को लग रहा था कि हिंदुस्तान किसी बड़े बदलाव की दहलीज पर खड़ा है और जल्द ही सूरत बदलने वाली है. घरों में सोयी अवाम अचानक जाग गयी थी और राजनीति को अछूत समझनेवाला मध्यम वर्ग राजनैतिक रणनीति का ताना-बाना बुन रहा था.

यहां मैं आंदोलन के राजनीतिक चरित्र की बात नहीं कर रहा, बल्कि यह याद करने की कोशिश कर रहा हूं कि उस आंदोलन को उसके चरम तक पहुंचानेवाला मीडिया अपने पड़ोस बांग्लादेश में उठ रहे जन सैलाब के जानिब इतना उदासीन क्यों है और कुछ ही महीने पहले बढ़ी आवाम की राजनैतिक चेतना आज कहां है?

हमारे पड़ोसी मुल्क बांग्लादेश की अवाम युद्ध अपराधियों और फिरकापरस्त ताकतों के खिलाफ आंदोलन कर रही है. यह आंदोलन महज युद्ध अपराधियों के खिलाफ कार्रवाई के लिए ही नहीं है, बल्कि एक धर्मनिरपेक्ष एवं लोकतांत्रिक समाज के लिए संघर्ष कर रहा है जो मजहबी कठमुल्लावादियों को मंजूर नहीं. वहां से मिल रही खबरों (जो अखबारों और चैनलों से एकदम नदारद हैं) के अनुसार लाखों लोग दिन-रात शाहबाग चौक पर धरना दिये बैठे हैं और देश के अन्य भागों में भी लोग इस तरह के प्रदर्शनों में भाग ले रहे हैं.

कई राजनैतिक विशेषज्ञ शाहबाग की तुलना ‘तहरीर स्क्वायर’ से कर रहे हैं और वहां से आ रही तसवीरों को देख कर लगता है कि ये तुलना बेवजह नहीं है. हैरानी की बात यह है कि इस आंदोलन से जुडी खबरों के लिए हिंदुस्तानी मीडिया के पास कोई जगह नहीं है. अमेरिका के चुनावों से काफी पहले हर हिंदुस्तानी को यह पता होता है कि अमेरिकी राजनीति में क्या खिचड़ी पक रही है. कौन से राज्य में रिपब्लिकन आगे हैं और किस में डेमोक्रेट.

सट्टेबाज किस पर दाव लगा रहे हैं, इसका सीधा प्रसारण चौबीस घंटे होता है, पर पड़ोस में हो रहे इतने बड़े आंदोलन की हमारे देश की अवाम को इत्तला तक नहीं है. पिछले दो महीनों में हिंदुस्तान का मीडिया अपनी बहस और कवरेज नरेंद्र मोदी और राहुल के इर्द-गिर्द घुमा रहा है या इस गम में मातम मना रहा है कि आखिर शेयर बाजार इतना नीचे क्यों आ गया है या सोने के भाव गर्दिश में क्यों हैं.

बांग्लादेश की घटनाएं किसी ‘न्यूज एट नाइन’ या ‘बिग फाइट’ का हिस्सा नहीं बन पायीं. सुना है आंदोलन के पहले महीने में ‘हिंदू’ को छोड़ कर किसी हिंदुस्तानी अखबार का संवाददाता ढाका में मौजूद नहीं था और उसके बाद भी इस आंदोलन की खबर ढूंढ़े नहीं मिलती.

अन्ना आंदोलन के समय का राजनैतिक तौर पर सजग समाज आज कहां चला गया? अमेरिका में अगला प्रेसिडेंट कौन होगा पर एडिटोरियल लिखनेवाले अखबारों को क्या हुआ? क्यों पड़ोस में हो रही घटनाएं उनका ध्यान खींचने में नाकामयाब हैं?

शुक्र है बांग्लादेशी ब्लॉगरों का और उन ब्लॉगों के आधार पर कुछ जनवादी लेखकों द्वारा सोशल साइट पर किये गये अपडेट का कि हमें हिंदुस्तान में शाहबाग आंदोलन की कुछ खबरें मिल सकीं. लेकिन दुनिया को शाहबाग आंदोलन की खबर देने की कीमत ब्लॉगर अहमद रजिब हैदर को अपनी जान देकर चुकानी पड़ी. कट्टरपंथी मुस्लिम संगठनों के खिलाफ लिखने और युद्ध अपराधियों को कड़ी सजा की हिमायत करने के कारण उनकी हत्या कर दी गयी और अन्य चार ब्लॉगर जेल की सलाखों के पीछे हैं.

1971 में बांग्लादेश के मुक्ति संघर्ष में भारत की अहम भूमिका रही थी और हम अक्सर इस बात पर अपनी पीठ भी ठोंकते रहते हैं. लेकिन आज भारत इस कदर कूटनीतिक चुप्पी साधे बैठा है कि मानो उसके पूर्व में कोई देश हो ही ना. भारत की तरफ से बांग्लादेश की उथल-पुथल पर कोई टिप्पणी नहीं की गयी है. विदेश मंत्री पर थोड़ा दवाब डाल कर पूछोगे तो वह कहेंगे, ‘‘यह उनका अंदरूनी मामला है और भारत किसी के अंदरूनी मामलों में दखल देना उचित नहीं समझता.’’ 1971 में बांग्लादेश को पाकिस्तान से अलग करते वक्त ये अंदरूनी मामला नहीं था, लेकिन आज है.

हैरानी की बात यह है कि प्रगतिशील और जनवादी खेमे में भी इस आंदोलन को लेकर कोई सुगबुगाहट नहीं दिखती. वामपंथी पार्टियों की चुप्पी चुभनेवाली है. भारत का प्रगतिशीत तबका इस सवाल से मुंह नहीं मोड़ सकता और उसे तारीख को जवाब देना होगा कि वह बांग्लादेशी तहरीक के साथ एकजुटता क्यों नहीं जता सका.

किसी पार्टी या संगठन ने बांग्लादेश के जन आंदोलन के समर्थन में कोई रैली, धरना या प्रदर्शन नहीं किया (कुछ अपवादों को छोड़ कर). हां, कोलकाता में दर्जन भर मुसलिम संगठनों के हजारों समर्थकों ने शहीद मीनार पर प्रदर्शन जरूर किया था. लेकिन शाहबाग आंदोलन के समर्थन में नहीं, बल्कि उन युद्ध अपराधियों के समर्थन में, जिन्हें युद्ध अपराधों के लिए सजा सुनायी गयी है.

सुनने में आया है कि पाकिस्तान में भी इसी तरह के प्रदर्शन हुए जिसमे युद्ध अपराधियों को रिहा करने की मांग की गयी है. यह भी खबर है कि कुछ इस्लामी देशों की सरकारों ने भी युद्ध अपराधियों को रिहा करने की इल्तजा की है. दुनिया की जनवादी ताकतें एक हों, ना हों, पर दुनिया भर की फिरकापरस्त ताकतें एक साथ खड़ी हैं.

शाहबाग आंदोलन धर्मनिरपेक्षता और लोकतंत्र के मूल्यों में यकीन करनेवाला एक ऐसा आंदोलन है जो 1971 के युद्ध अपराधों के लिए जिम्मेदार गुनहगारों को कड़ी से कड़ी सजा की मांग कर रहा है. साथ ही, उसके लिए जिम्मेदार जमात-ए- इसलामी पर पाबंदी लगाने कि मांग कर रहा है. 1971 में बांग्लादेश की आजादी के आंदोलन के समय जमात-ए-इसलामी जैसे संगठनों ने पाकिस्तानी सेना का साथ दिया था और बांग्लादेश में हुए नरसंहार में बराबर के भागीदार बने थे.

इस नरसंहार में लगभग तीन से पांच लाख मुक्ति-संघर्ष के समर्थकों की हत्या की गयी थी. हालांकि इस संख्या पर विवाद है, पर इस बात पर कोई दो राय नहीं कि हजारों की संख्या में लोगों को मारा गया था. आज भी बांग्लादेश में सामूहिक कब्रगाहें मिल रही हैं, जहां नरसंहार के बाद लोगों को दफनाया गया था. इसके अलावा पाकिस्तानी सेना पर हजारों महिलाओं के साथ बलात्कार का आरोप है और एक घटना में तो पाकिस्तानी सेना ने ढाका विश्वविद्यालय और घरों से 500 से अधिक महिलाओं को अगवा करके अपनी छावनी में बंधक बना कर रखा था और कई दिनों तक उनके साथ बलात्कार किया था.

बांग्लादेश की फिरकापरस्त ताकतें नहीं चाहती थीं कि उनका देश इसलामी राज्य पाकिस्तान से आजाद हो कर धर्मनिरपेक्ष और लोकतांत्रिक राज्य बने. वे अखंड पाकिस्तान के हिमायती थे और आजाद बांग्लादेश के विरोधी. इसी कारण उन्होंने पाकिस्तानी सेना और फिरकापरस्त ताकतों का साथ दिया और इस नरसंहार का हिस्सेदार बने.

सन् 2008 के चुनावों के दौरान अवामी लीग ने वादा किया था कि वह युद्ध अपराधियों के खिलाफ अंतरराष्ट्रीय अपराध न्यायाधिकरण (आइसीटी) का गठन करेगी और युद्ध अपराधियों के खिलाफ केस चलायेगी, जिसकी मांग सालों से चली आ रही थी. चुनाव जीतने के बाद सन् 2009 में आइसीटी की स्थापना हुई और उन अपराधियों के खिलाफ केस शुरू हुआ जो युद्ध अपराधों में शामिल थे.

फरवरी 2013 में युद्ध अपराधियों के खिलाफ सजा सुनायी गयी जिसमें जमाते इसलामी के नेता हुसैन सैयदी भी शामिल थे. दो हफ्ते बाद एक और जमाते इसलामी नेता, अब्दुल कादिर मुल्ला, को सजा सुनायी गयी. इसके जवाब में जमाते इसलामी के छात्र संगठन ‘शिबिर’ ने इस निर्णय की मुखालफत में जो कहर बरपाया, उसकी मिसाल कम ही देखने को मिलेगी. हिंसा के इस तांडव में एक ही दिन में 35 लोग मारे गये.

दक्षिणी बांग्लादेश में अल्पसंख्यकों के घरों और मंदिरों पर भी हमला बोला गया. इसके साथ ही ढाका के शाहबाग इलाके में जमाते इसलामी नेताओं के खिलाफ और युद्ध अपराधियों को कड़ी से कड़ी सजा की मांग करते हुए शाहबाग आंदोलन शुरू हुआ जो कि पूर्णत: अहिंसक था. तब से लेकर आज तक ये आंदोलन जारी है और फिरकापरस्तों के खिलाफ लड़ रहा है.

आज भी जमात-ए-इसलामी के समर्थक शाहबाग आंदोलन के खिलाफ यह दुष्प्रचार कर रहे हैं कि ये आंदोलन नास्तिक युवाओं द्वारा चलाया जा रहा है जो इस्लाम विरोधी है. सच्चाई यह है कि इस आंदोलन में हर तबके और उम्र के लाखों लोग शामिल हैं. ढाका के शाहबाग इलाके से शुरू हुए इस आंदोलन के समर्थक देश के कोने-कोने में हैं.

इसलाम में तहे दिल से यकीन करनेवाले मुसलिम भी इसका भाग हैं, लेकिन वे जमात जैसे संगठनों और धर्म पर आधारित राज्य का विरोध करते हैं. ये आंदोलन न केवल युद्ध अपराधियों को कड़ी से कड़ी सजा की मांग कर रहा है, बल्कि जमात-ए-इसलामी जैसे दक्षिणपंथी संगठनों पर पाबंदी की मांग भी कर रहा है. इस आंदोलन के अपराधियों को फांसी पर चढ़ाने की मांग पर मतभेद हो सकते हैं, पर आंदोलन के धर्मनिरपेक्ष चरित्र पर शक की गुंजाइश नहीं है.

हिंदुस्तानी मीडिया की आंदोलन के प्रति उदासीनता और हिंदुस्तानी जनवादी ताकतों का आंदोलन के समर्थन में न आना हैरानी के साथ साथ चिंता का विषय भी है. खास कर जब दुनिया भर में कठमुल्लावादी राजनीति हावी हो रही है. मीडिया की बात समझ में आती है कि इस आंदोलन को कवर करने से उसके आर्थिक हितों की पूर्ति नहीं होती, पर प्रगतिशील ताकतों की क्या मजबूरी है? शाहबाग आंदोलन के समर्थन में कुछ इक्का-दुक्का प्रदर्शन तो हुए हैं, पर उनका अस्तित्व समुद्र में बारिश की बूंद-सा है.

आओ मिल कर बांग्लादेश के लोगों को शुभकामनाएं दें कि उन्हें उनके मकसद में कामयाबी मिले और धर्मनिरपेक्ष और तरक्कीपसंद लोगों की जीत हो. साथ ही हम हिंदुस्तानी ये संकल्प लें कि बांग्लादेश के जनवादी आंदोलन के प्रति जितना हो सके उतना समर्थन जुटायेंगे. शाहबाग आन्दोलन में जुटे लोगों को सलाम.
(लेखक डेवलेपमेंट प्रोफेशनल हैं और पिछले 20 साल से बाल अधिकारों के क्षेत्र में काम कर रहे हैं.)
साभार : nsi-delhi.blogsport.com

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