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आस्था के नाम पर ठगे तो नहीं जा रहे!

मैं इस शीर्षक के संदर्भ पर बाद में आऊंगा. पहले एक घटना साझा करना चाहूंगा. जिस गांव में मैं रहता हूं वह मुसलिम बहुल है. गांव में एक बाबा हैं. नाम तो नहीं बताऊंगा. लेकिन यह जान लीजिए कि बाबा वह बाद में हुए, पहले ट्रक-बस के टायरों में पंक्चर लगाने का काम करते थे. […]

मैं इस शीर्षक के संदर्भ पर बाद में आऊंगा. पहले एक घटना साझा करना चाहूंगा. जिस गांव में मैं रहता हूं वह मुसलिम बहुल है. गांव में एक बाबा हैं. नाम तो नहीं बताऊंगा. लेकिन यह जान लीजिए कि बाबा वह बाद में हुए, पहले ट्रक-बस के टायरों में पंक्चर लगाने का काम करते थे. मेरे घर के पास ही किराये के मकान में रहते थे, लेकिन बाबागीरी इतनी चली कि अब उन्होंने अपना मकान भी बनवा लिया है और पूरा ठाठ है. गांव में पेशे से ट्रक ड्राइवर अधिक हैं. इलाके में अगर कोई नयी गाड़ी खरीदता है तो वह बाबा के आस्ताने पर आशीर्वाद लेना जरूरी समझता है.

बाबा के बाबा बनने की कहानी मेरी जानकारी में तब आयी जब घर के पास के मकान में एकाएक काफी भीड़ लगने लगी थी. महिलाओं के झुंड घर के दरवाजे पर बैठ कर अपनी बारी का इंतजार करने लगे थे. कौतूहलवश मैंने भी उस घर के आसपास चक्कर लगाने शुरू किये और जानने की कोशिश की कि आखिर माजरा क्या है. पता चला कि भूत झाड़ा जाता है. बाबा पानी और तेल की शीशियां देते और उसे पीने और सिर पर लगाने की सलाह देते.

गांव की औरतें, जो अक्सर ही बीमारियों से घिरी रहतीं, इलाज का खर्च नहीं उठा पाने की स्थिति में बाबा के तेल और पानी को ही दवा मान कर इलाज करवातीं. जब पूरा माजरा गांव के लड़कों को समझ में आया तो उन्होंने बाबा की फजीहत करने का बीड़ा उठाया. एक ने तो जाकर भरी महफिल में चैलेंज ही कर दिया कि उसकी बकरी भुला गयी है, बाबा हो तो बताओ कहां है बकरी. बाबा प्यार से लड़के को दरवाजे से बाहर ले गये और आग्रह किया कि यह काम उनकी रोजी-रोटी से जुड़ा है और इसे वो खराब ना करे. खैर, बाबा जी अपनी बाबागीरी से अच्छी तरह रोजी-रोटी चला रहे हैं.

इस किस्से का संदर्भ यह है कि मेरे कुछ ‘बुद्धजीवी’ फेसबुकिया साथियों ने पीके फिल्म देखने के बाद इसे हिंदू धर्म के खिलाफ षड्यंत्र मान लिया है. किसी ने कहा कि आमिर की यह फिल्म भारत के इसलामीकरण की दिशा में साजिश है, तो किसी ने निर्देशक राजू हिरानी पर सवाल खड़ा किया कि वे इसलाम में व्याप्त जहालत और इसाइयों के अंधविश्वासों पर फिल्म क्यों नहीं बनाते. इन आरोपों के पीछे उनका लक्ष्य तो समझ में आता है, पर कोई ठोस तर्क नहीं दिखता. बात सिर्फ इतनी है कि उन्हें लगता है कि दूसरे मजहब वाले कहीं उनका मजाक तो नहीं उड़ा रहे हैं. लेकिन साहब! मजहब चाहे कोई भी हो, इसलाम हो या हिंदू, ईसाई हो या सिक्ख, अंधविश्वास की कोई जगह नहीं है. हां, मैं मानता हूं कि अंधविश्वास पर विविध तरीके से फिल्मों का निर्माण होना चाहिए. पीके फिल्म मेंचोट आस्था पर नहीं, बल्कि आस्था के नाम पर होने वाली ठगी की है. आस्था के नाम पर मठाधीश बनने की परंपरा से है. पीके फिल्म को आस्था पर चोट समझने वाले लोगों के लिए यह समझना जरूरी है कि कहीं वे भी आस्था के नाम पर ठगे तो नहीं जा रहे हैं.

शिकोह अलबदर

प्रभात खबर, रांची

shukohalbadar82@gmail.com

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