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धर्म, धर्मनिरपेक्षता और ईमानदारी

* मोदी का बयान गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी का कहना है कि जब भी कांग्रेस चुनौतियों का सामना करती है, वह धर्म-निरपेक्षता की आड़ में खुद को छिपाने की कोशिश करती है. इस बयान के पीछे के सियासी मंसूबे को समझना कठिन नहीं है. खासकर तब, जब मोदी के ‘हिंदू राष्ट्रवादी’ वाले बयान पर […]

* मोदी का बयान

गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी का कहना है कि जब भी कांग्रेस चुनौतियों का सामना करती है, वह धर्म-निरपेक्षता की आड़ में खुद को छिपाने की कोशिश करती है. इस बयान के पीछे के सियासी मंसूबे को समझना कठिन नहीं है. खासकर तब, जब मोदी के ‘हिंदू राष्ट्रवादी’ वाले बयान पर ही बहस अभी थमी नहीं है. लेकिन यहां बात इस राजनीति की नहीं, धर्मनिरपेक्षता की.

भाजपा की नजर में कांग्रेस ‘छद्म धर्मनिरपेक्षता’ की राजनीति करती है और यह मुख्य रूप से भाजपा को सत्ता से दूर रखने के लिए ईजाद किया गया एक हौवा है. कांग्रेस की नजर में भाजपा देश की धर्मनिरपेक्षता के लिए ‘खतरा’ है. आम चुनाव नजदीक है. जरूरी है कि हम धर्मनिरपेक्षता पर एक सच्ची बहस में शरीक हों.

बहस की शुरुआत इस बिंदु से की जा सकती है कि आखिर धर्म और धर्मनिरपेक्षता क्या है? हिंदुत्व के संदर्भ में सुप्रीम कोर्ट की टिप्पणी को आधार मानें, तो धर्म वास्तव में जीवन को जीने का एक तरीका है. एक विचार है. धर्मनिरपेक्षता एक साथ सभी धर्मो के प्रति समभाव, सद्भाव और सह-स्थिति की भावना का समुच्चय है. भारत के संविधान में भी धर्म और धर्मनिरपेक्षता की ऐसी ही परिभाषा दी गयी है.

हमारे यहां धार्मिकता का निषेध नहीं है. हमारा संविधान राज्य द्वारा किसी धर्म के साथ पक्षपात न करने और सबको विश्वास और अंत: करण की स्वतंत्रता देने की बात करता है. संविधान का साफ-साफ मंतव्य है कि धर्म व्यक्तिगत आस्था का विषय हो. न इसका प्रशासन किया जाये, न इसके आधार पर शासन किया जाये. यह धार्मिकता की भारतीय अवधारणा है, जो सेकुलर है (ध्यान दें, धर्मनिरपेक्षता सेकुलर का अनुवाद भर है, समानार्थी नहीं है).

अगर धर्म एक विचार है, तो भारत में धर्मनिरपेक्षता की जड़ें ऋग्वेद जितनी पुरानी हैं, क्योंकि उसमें अच्छे विचार के लिए सभी खिड़कियों को खोले रखने की बात की गयी है. सदियों के दौरान भारत की सामासिक संस्कृति का विकास जिस तरह से हुआ, उसे देखते हुए यह कहना गलत नहीं होगा कि भारत हमेशा से एक धर्मनिरपेक्ष देश रहा है.

धर्मनिरपेक्षता भारत का स्वभाव है. यह सिर्फ विभिन्न कौमों के बीच सौहाद्र्र बनाये रखने का मंत्र नहीं है. यह राजनीति के इस्तेमाल की चीज तो कतई नहीं है. आनेवाले समय में जब धर्म, धर्मनिरपेक्षता जैसे शब्दों का इस्तेमाल बार-बार किया जायेगा, हमें सतर्कता के साथ इसके पीछे की ईमानदारी को देखना होगा. साथ ही यह भी देखना होगा कि क्या ऐसे प्रयोगों का मकसद समाज में ध्रुवीकरण पैदा करना या राजनीतिक अवसरवादिता को जायज ठहराना तो नहीं है!

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