।। राजेंद्र तिवारी ।।
(कारपोरेट संपादक, प्रभात खबर)
चालू खाते पर घाटा, वित्तीय घाटा, बजट घाटा सुनते–सुनते कान पके जा रहे हैं. इनके लिए उपाय भी खर्च कटौती ही माना जाता है. लेकिन यह कटौती किस मद में होती है, यही सबसे महत्वपूर्ण है. बढ़ते वित्तीय घाटे के बीच कानून निर्माता (सांसद और विधायक) अपनी सुविधाएं व भत्ते बढ़ा लेते हैं. ब्यूरोक्रेट्स का वेतन बढ़ जाता है. सुविधाएं बढ़ जाती हैं.
सरकारी खरीद में बाजार से कहीं ज्यादा दरों पर टेंडर पास होते हैं. इनमें कहीं कोई कटौती करने की बात भी नहीं होती. कटौती होती है सब्सिडी में, सामाजिक क्षेत्रों में होनेवाले खर्च में यानी शिक्षा, स्वास्थ्य, रोजगार व कल्याण योजनाओं के बजट में. शेयर बाजार के लोग, बड़े–बड़े उद्योगपति, कारपोरेट हेड्स, ब्यूरोक्रेट्स और प्रो जगदीश भगवती के अनुयायी पूरी थ्योरी गढ़े रहते हैं कि वित्तीय घाटा कम करने का उपाय यही है. इसी के जरिये वित्तीय घाटे पर अंकुश लगा कर विकास दर बनाये रखी जा सकती है. भारतीय अर्थव्यवस्था जिस तरह के दबावों से गुजर रही है, उससे लगता है कि आनेवाले दिनों में कास्ट कटिंग का दौर शुरू हो जायेगा.
मेरे जेहन में दो किस्से आ रहे हैं. एक किस्सा है राजकुमार श्रीवास्तव का. प्रकाश चंद श्रीवास्तव के पिताजी बड़े जमींदार थे. आलीशान कोठी थी उनके पास. सीलिंग में उनकी जमीन निकल गयी. पिता की असमय मृत्यु हो गयी. लिहाजा परिवार पर मुसीबतें आ गयीं. प्रकाशजी बड़े सामंती किस्म के इंसान थे. सुबह से दोपहर तक दरबार लगाना.
शाम को पीना–पिलाना. काम करना उनको अपनी तौहीन लगती थी. आवक थी कम, लिहाजा घाटा बढ़ने लगा. उन्होंने घाटा पूरा करने के लिए पहले अपना मकान बेचा. फिर धीरे–धीरे जमीन. रईसी पर कोई आंच न आने दी. जमीन उनके ही रिश्तेदारों ने खरीद ली. और उनको रहने के लिए थोड़ी जमीन भी दे दी. उनकी पत्नी को टीबी थी. उसकी दवा चलती थी. उन्होंने कास्ट कटिंग के तहत दवा बंद कर दी. उनके पांच बेटे और दो बेटियां थीं. थोड़े दिन में ही सबकी पढ़ाई के खर्च का बोझ आ गया. उनका बड़ा बेटा 9वीं में पहुंच गया.
अगले साल वह फेल हो गया. उन्होंने कहा कि तुम पर बेकार है खर्च करना. अगली कास्ट कटिंग, उसका स्कूल बंद. बेटियों ने किसी तरह 10वीं पास की. बेटे सभी बेरोजगार. घर में खाने के लाले. उनकी पत्नी को ग्राम प्रधान ने प्रौढ़ शिक्षा में लगवा दिया. बेचारी बीमार थीं, लेकिन काम न करें तो परिवार कैसे चले. लेकिन राजकुमार जी की रंगबाजी में कोई कमी नहीं. लक–दक कुरता पहनते और सुबह ही निकल पड़ते.
रात में जब लौटते तो उनको कोई सुध–बुध न होती. उनका बड़ा बेटा भट्ठे पर लग गया. छोटा बस में खलासी हो गया. एक की दवा के अभाव में मौत हो गयी. दो बच्चे रिश्तेदारों के यहां घरेलू नौकर बन गये. बेटियां भी बड़ी हो गयीं. किसी तरह मांग–जोड़ कर एक की शादी की.
दूसरी ने आत्महत्या कर ली. करीब 10 साल पहले खबर मिली कि राजकुमार जी की पत्नी अस्पताल में दवा के अभाव में दम तोड़ गयीं. उनको ले जाने वाला कोई नहीं था. राजकुमार जी तो पहले ही किडनी फेल होने की वजह से खुदा को प्यारे हो चुके थे.
वहीं, एक रामरतन वर्मा थे. कक्षा तीन पास. कच्चा घर. थोड़ी–सी जमीन थी, उसी से गुजर–बसर होती थी. साप्ताहिक हाट–बाजार में वह फेरी भी लगाते थे. उनके चार बच्चे– दो बेटे और दो बेटियां. सबका दाखिला उन्होंने गांव के स्कूल में कराया. जब बड़ा बेटा कक्षा पांच पास हो गया, तो उनको लगा कि अब वे खुद तो पढ़ाई में बच्चे की मदद नहीं कर पायेंगे, लिहाजा बच्चे को ट्यूशन लगा दें. लेकिन तंगी बहुत थी.
कुछ पैसे जोड़े थे कि मकान पक्का करवा लेंगे. उन पैसों पर वह नजर भी नहीं डालना चाहते थे. अपनी गाय वह बेचना नहीं चाहते थे, क्योंकि दूध बच्चों के लिए जरूरी था. वह सोचते कि यदि गाय बेच दी, तो दूध–घी कहां खरीद पायेंगे. लेकिन ट्यूशन से जो खर्च बढ़ेगा, वह कैसे पूरा हो. पर इसके बिना बच्चे की अच्छी पढ़ाई भी नहीं हो सकती, यह सवाल उनको मथता रहता. फिर वह एक दिन दूसरे गांव में रहनेवाले एक सेठ जी के यहां गये और अपनी आधी जमीन गिरवी रख कर कुछ पैसे ले आये.
बचत के पैसे मिला कर उन्होंने एक ठेला खरीदा और फेरी की जगह परमानेंट दुकान ठेले पर बना ली. बेटी भी पांचवीं में आ गयी थी. उनकी थोड़ी आमदनी बढ़ी, जिसके एक हिस्से से कर्ज चुकाते और बाकी से घर का खर्च चलाते. हां, बच्चे की ट्यूशन भी लगा दी. बच्चा पढ़ने में तेज था.
दसवीं करके आइटीआइ में चला गया. बड़ी बेटी दसवीं में आ गयी और छोटी नौवीं में. छोटा बेटा कक्षा छह में. बड़ा बेटा साल भर बाद सोर्स–सिफारिश से पास के कस्बे की फैक्ट्री में लग गया. अब राह बनने लगी. दो साल में उन्होंने अपनी जमीन छुड़वा ली. वे कस्बे में एक कमरा किराये पर लेकर रहने लगे, ताकि बच्चों की पढ़ाई हो सके. बड़ी बेटी इंटर करके एक प्राइवेट स्कूल में पढ़ाने लगी. छोटी बेटी इंटर में थी, सोचती थी वह बीएड करेगी. दूसरा बेटा इंजीनियर बनना चाहता था.
दो साल पहले जब मैं अपने गांव गया तो देखा वर्मा जी ने सड़क पर खाद की दुकान खोल रखी है. वह बोले– बड़ा बेटा चलाता है. मैं तो सिर्फ यहां बैठा रहता हूं. पूछा, छोटा बेटा कहां है, वह तपाक से बोले– वह तो अब एइ बन गया है. छोटी बेटी प्राइमरी स्कूल में प्रधानाध्यापिका है. बड़ी बेटी की शादी हो चुकी है, दामाद हाईस्कूल में मास्टर है.
तो अब समझ लीजिए कि अपने यहां जिस तरह से घाटे पर अंकुश लगाया जाता है, उसका नतीजा क्या होना है. बिल्कुल राजकुमार श्रीवास्तव की तरह, पहले बच्चों की पढ़ाई, खुराक व दवा आदि में कटौती करो, लेकिन अपना कुरता लक–दक ही रहे. फिर जो पैसा बचा पढ़ाई, अस्पताल, भोजन आदि के लिए, उसमें भी डंडी मारो और दारू पी लो. यानी कट ले लो. नतीजा साफ है. इतनी सी बात भी क्या हमारे नीति– नियंता नहीं समझ सकते?
* और अंत में..
प्रसिद्ध लेखक अमिताव कुमार का एक लेख (शीर्षक ‘ए टेस्टीमोनी टू सर्वाइवल’) पढ़ रहा था. इसमें गुजरात के एक उर्दू शायर अकील शातिर का जिक्र है. अमिताव ने लिखा है कि मुझे किसी ने एक न्यूज स्टोरी भेजी, जिसमें बताया गया था कि गुजरात उर्दू साहित्य अकादमी द्वारा पुरस्कार के तौर पर दिये गये 10,000 रुपये शातिर से वापस करने को कहा गया है.
कारण, शातिर के संग्रह ‘अभी जिंदा हूं मैं’ में छपी एक कमेंटरी, जिसमें नरेंद्र मोदी की आलोचना की गयी थी. अमिताव ने लिखा है कि उन्होंने शातिर को फोन किया. वह अहमदाबाद में अपने पीसीओ पर थे. उसने मुझे बताया कि शातिर का अर्थ होता है शतरंज का खिलाड़ी, लेकिन लोग शातिर का अर्थ चालाक लगाते हैं. मैं अपने इस तखल्लुस पर पूरा खरा उतरता हूं, क्योंकि मैं हुस्न और मोहब्बत पर नहीं, सत्ता के मशीनीकरण पर शायरी लिखता हूं. उसने फोन पर ही चार लाइनें सुनायीं. आप भी पढ़िए–
अभी जिंदा हूं मैं, देखो मेरी पहचान बाकी है/ बदन जख्मी है लेकिन अभी मुझमें जान बाकी है
तुम अपनी हसरतों को जालिमों मरने नहीं देना
शहादत का मेरे दिल में अभी अरमान बाकी है.