डॉलर के मुकाबले भारतीय रुपये में गिरावट का दौर जारी है. रुपये की गिरावट की एक बड़ी वजह अमेरिकी अर्थव्यवस्था का मजबूत होना और वैश्विक निवेशकों का अमेरिका की ओर रुख करना बताया जा रहा है.
डॉलर में मजबूती एक तरह से वैश्विक अर्थव्यवस्था के लिए राहत की खबर है. यह इस बात का संकेत बताया जा रहा है कि वैश्विक अर्थव्यवस्था पर से खतरे के बादल धीरे-धीरे छंट रहे हैं. लेकिन इसे एक विचित्र विरोधाभास ही कहा जायेगा कि अमेरिकी अर्थव्यवथा चाहे मजबूत हो या कमजोर, दोनों ही हालात में हमारी अर्थव्यवस्था लड़खड़ाती नजर आती है. इससे पहले 2007-08 में अमेरिकी में सब प्राइम संकट के बाद आयी मंदी ने बाकी मुल्कों की ही तरह भारत पर भी अपना असर डाला.
लंबे अरसे से विकास की डगर पर छलांग लगाती भारतीय अर्थव्यवस्था में तब पहली बार रुग्णता के लक्षण प्रकट हुए थे. अब जबकि अमेरिकी अर्थव्यवस्था के वापस पटरी पर लौटने की खबर मिल रही है, भारतीय अर्थव्यवस्था संभलने की जगह अपनी चमक गंवाती हुई ही नजर आ रही है. इसका सबसे बड़ा प्रमाण यह है कि भारतीय रुपये के मूल्य में पिछले दो महीने से भी कम समय में करीब 15 फीसदी की गिरावट आ चुकी है.
आर्थिक विशेषज्ञों का मानना है कि रुपये में गिरावट का दौर अभी जारी रह सकता है और यह प्रति डॉलर 65 के स्तर तक पहुंच सकता है. चिंता की बात यह है कि भारत का केंद्रीय बैंक रुपये में आ रही इस गिरावट को रोकने में अक्षम नजर आ रहा है. वास्तव में इसकी वजह भारतीय मुद्रा भंडार में आयी गिरावट और मुद्रा भंडार की तुलना में लघु अवधि के बाहरी ऋणों में बढ़ोतरी है. पिछले महीने आरबीआइ द्वारा जारी एक रिपोर्ट के मुताबिक भारत का कुल लघु आवधिक ऋण कुल विदेशी मुद्रा भंडार का 59 फीसदी है.
जाहिर है, आरबीआइ के पास बाजार में डॉलर बेचने का विकल्प सीमित हो गया है. यह संकट इस कारण भी गंभीर है, क्योंकि भारत का चालू खाते का घाटा खतरनाक स्तर तक बढ़ चुका है और इस घाटे को पाटने के लिए लघु अवधि के ऋण लेने के अलावा ज्यादा विकल्प फिलहाल नजर नहीं आता. यानी जिस संकट को बाहरी कारक से जोड़ा जा रहा है, वह वास्तव में अर्थव्यवस्था के निराशाजनक प्रबंधन और पिछले दस वर्षो के दौरान अपनायी गयी गलत आर्थिक नीतियों का नतीजा है. आश्चर्यजनक यह है कि इस तथ्य को स्वीकारने और जरूरी कदम उठाने की जगह हमारे नीति-निर्माता इसे बाहरी संकट बता कर अपना पल्ला झाड़ने की कोशिश करते ज्यादा दिख रहे हैं.