।। एमजे अकबर ।।
(वरिष्ष्ठ पत्रकार)
– झामुमो अब परिवार की संपत्ति है, जिसे कुछ तथ्यों के आधार पर भ्रष्ट कहा जा सकता है. वे न केवल पैसा लेते है, बल्कि पकड़े भी जाते है, जो मौजूदा खुली छूटवाले भ्रष्ट माहौल में मूर्खतापूर्ण है. लेकिन राज्य की दस लोकसभा सीटों के लिए सारे पापों को भुला दिया गया. कांग्रेस का साथ पापियों को सारे पापों से मुक्ति दे देता है. झामुमो भ्रष्ट और सांप्रदायिक थी, जब तक वह भाजपा के साथ थी. –
यह लंदन के बस का पुराना नियम है कि लंबी अवधि तक कुछ घटित नहीं होता और फिर अचानक तीन लोग एक साथ आ जाते हैं. चार साल तक सरकार ने कोई फैसला नहीं किया और फिर एक दर्जन फैसले एक साथ हुए. सबने एक-दूसरे को पीछे छोड़ देनेवाली सार्वजनिक बहसों को जन्म दिया. आपको हैरानी होनी चाहिए कि आखिर इसकी वजह क्या है?
कांग्रेस ने 2009 से ही एक अजीब आदत विकसित कर ली है. यह फैसले से पहले दिमाग में चल रहे विचारों को जाहिर कर देती है. तेलंगाना मुद्दा ठंडा पड़ा था, लेकिन हर किसी को हैरत में डालते हुए गृह मंत्री पी चिदंबरम की इसके जल्द समाधान की घोषणा ने इसे फिर से जीवित कर दिया. जब लोग सड़कों पर उतर आये, तो सरकार पीछे हट गयी.
पिछले साल गृह मंत्री सुशील कुमार शिंदे ने भी इसे हरी झंडी दिखायी, लेकिन इस साल जनवरी में रंग बदल लिया. अब पार्टी के राजदार दिग्विजय सिंह कह रहे हैं कि इसका समाधान जल्द होगा. हमें उन पर भरोसा करना चाहिए. आम चुनाव भी नजदीक है. अगर एके एंटनी को मरम्मत और पुनर्विचार का जनरल मैनेजर नियुक्त कर दिया जाये, तो क्या चुनाव बहुत दूर हो सकते हैं? ऐसे में पहली प्राथमिकता है कि नैतिकता को अवकाश दे दिया जाये और इसके लिए कैबिनेट के सबसे ईमानदार आदमी से बेहतर और कौन कर सकता है.
झारखंड मुक्ति मोरचा अब परिवार की संपत्ति है, जिसे कुछ तथ्यों के आधार पर भ्रष्ट कहा जा सकता है. वे न केवल पैसा लेते है, बल्कि पकड़े भी जाते है, जो मौजूदा खुली छूटवाले भ्रष्ट माहौल में मूर्खतापूर्ण है. लेकिन राज्य की दस लोकसभा सीटों के लिए सारे पापों को भुला दिया गया. कांग्रेस का साथ पापियों को सारे पापों से मुक्ति दे देती है. झारखंड मुक्ति मोरचा भ्रष्ट और सांप्रदायिक थी, जब तक वह भाजपा के साथ सत्ता में थी. यह शायद अच्छी राजनीति है. पर, हम यह मतदाताओं के जनादेश के बाद ही जान पायेंगे.
एंटनी ने तमिनाडु में काफी तेजी से डीएमके की ओर हाथ बढ़ाया है. यह भी एक ऐसा राज्य है जहां कांग्रेस सहयोगी के बिना जीवित नहीं रह सकती है. डीएमके को जल्दबाजी नहीं है और वह चुनाव तिथि की घोषणा से पहले ऐसा नहीं कर सकती है. सिर्फ कांग्रेस को यह मालूम है कि चुनाव कब होगा.
अगर वह बैचेन हो रही है, तो इसका कुछ कारण होगा. राजनीति में जल्दबाजी खतरनाक होती है. अगर आपने तय किये गये रास्ते में बिछाये गये जाल से निकलने की योजना नहीं बनायी है, तो आप लड़खड़ा सकते हैं. आप नक्शे का एक सिरा पकड़ कर कैमरे के सामने मुस्कुरायेंगे, लेकिन तब तक दूसरा सिरा बिखर जायेगा. क्या इशरत जहां मामले में सीबीआइ की चाजर्शीट के साथ ऐसा ही हुआ है, जो संभवत: नरेंद्र मोदी की गाड़ी को पटरी से उतारने का आखिरी प्रयास है? सीबीआइ ने दावा किया है कि इशरत निर्दोष थी, लेकिन यह स्वीकार किया कि उसके साथ मारे गये तीन अन्य लोग आतंकवादी थे.
संभवत: सीबीआइ और सरकार ने सोचा कि इस मामले में दिलचस्पी रखनेवाले इसे आखिरी शब्द मानेंगे. तभी एकाएक हालात गलत दिशा में जाने लगे. आइबी की अगुवाई कर रहे ईमानदार अधिकारी आसिफ इब्राहिम ने इसे मानने से इंकार कर दिया. इशरत मामले में आइबी और सीबीआइ के बीच विवाद शुरू हो गया. तथ्य सामने आने लगे, जिसे अब तक सार्वजनिक नहीं किया गया था. खासकर, 2008 मुंबई हमले के आरोपी डेविड कोलमैन हेडली द्वारा पूछताछ के दौरान इशरत जहां का नाम लेने के संबंध में. अब हमलावर होने की जगह सरकार को अपनी गलतियों को सुधारने में मशक्कत करनी पड़ सकती है.
इसी जल्दबाजी में खाद्य सुरक्षा विधेयक पर फैसला लिया गया है. निश्चित तौर पर कांग्रेस के चुनाव प्रचार का यह मुख्य मुद्दा होगा. यह ध्यान में रखनेवाली बात है कि इस फैसले का सबसे कड़ा विरोध वाम दलों ने किया है, जो हमेशा गरीबों के हक की लड़ाई लड़ते रहे हैं. वामदलों की ओर से प्रकाश करात, अपनी तरफ से बोलते हुए मुलायम सिंह यादव और ममता बनर्जी की ओर से दिनेश त्रिवेदी ने इस फैसले को चुनावी हथियार बताते हुए खारिज कर दिया.
स्पष्ट तौर पर मौजूदा यूपीए सरकार के पास इतने संसाधन नहीं हैं कि वह इतनी महंगी योजना को लागू कर सके. लेकिन कांग्रेस इसे लागू करने की बजाय अगले चुनावी घोषणापत्र का केंद्रीय मुद्दा बनाने को आतुर है. अगर वह इसे लागू करना चाहती, तो यूपीए 2 के कार्यकाल के पहले 6 हफ्ते में ही अध्यादेश लाती, न कि आखिरी 6 हफ्ते में. क्या अगला आम चुनाव नवंबर में हो सकता है? कांग्रेस ने अंतिम फैसला नहीं लिया है, लेकिन वह साफ तौर पर इस रास्ते को तैयार कर रही है.
वह ऐसी घटनाओं द्वारा अपनी वैधानिकता गंवाना नहीं चाहती, जो उसके नियंत्रण में न हों. इसमें यूपीए परिवार के लोगों का व्यवहार भी शामिल है, जो कुछ हासिल किये बगैर उसे सत्ता में बनाये हुए हैं. यह जल्दबाजी उसकी जरूरत है न कि इच्छा. तेलंगाना जैसी जटिल समस्या पर फैसले का लाभ मिलना आसान नहीं है. न ही कोई तात्कालिक उपचार भ्रष्टाचार, महंगाई, गिरते रुपये और खराब अर्थव्यवस्था की यादों को खत्म कर देगा.
ठीक तरीके से केवल एक भविष्यवाणी की जा सकती है. वह यह कि अगला चुनाव 2004 के बाद के चुनावों में सबसे रोचक होगा. किसी भी बस पर चढ़ें, यात्रा ऊबड़-खाबड़ रास्ते से गुजरेगी, और आनंदित करनेवाली होगी.