आतंक के विरुद्ध लड़ाई की निशानी के तौर पर सहेज कर रखे अपने खून से सने कपड़ों को देख कर बहादुर बच्ची मलाला युसुफजई शांति का नोबेल पुरस्कार लेने के बाद की घड़ियों में रो पड़ी थी. बच्चों की शिक्षा के लिए आवाज उठाने पर तालिबानी गोलियों का शिकार हुई मलाला कीआंख के आंसू अभी सूखे भी नहीं हैं, कि पेशावर के आर्मी स्कूल में आतंकवादियों की गोलियों ने 160 से अधिक लोगों की जान ले ली है, जिनमें अधिकतर मासूम बच्चे हैं.
अंदेशा है कि यह संख्या बढ़ सकती है. इस समय पाकिस्तान में आतंकवाद के कई चेहरे मौजूद हैं. इस नृशंस अमानवीय घटना की जिम्मेदारी लेनेवाला तहरीक-ए-तालिबान उन्हीं में से एक है. इन आतंकी संगठनों के चेहरे भले अलग हैं, पर उनके तर्क हमेशा एक जैसे होते हैं.
उनके मन में एक ऐसे ‘इसलामी समाज’ की कल्पना है, जो कभी इस धरती पर बसा ही नहीं. फैंटेसी में मौजूद इस समाज को धरती पर उतारने के लिए वे अफ्रीका से लेकर आस्ट्रेलिया तक सक्रिय हैं. कहना गलत नहीं होगा कि राष्ट्र-राज्य के रूप में पाकिस्तान ने भारत और अफगानिस्तान में जिस तरह से आतंकी गतिविधियों को सक्रिय समर्थन दिया है तथा आतंक को युद्ध के विकल्प के रूप में इस्तेमाल किया है, इसी रवैये की भयानक परिणति पेशावर की यह घटना है. आतंकवाद बर्बरता का सबसे खौफनाक चेहरा है. वह मानवता का सबसे बड़ा दुश्मन है. वह मासूम बच्चों के कत्लेआम से भी परहेज नहीं करता. पेशावर की घटना के बाद विश्व-समुदाय को इस खतरे को गंभीरता से लेते हुए, तमाम राजनीतिक मतभेदों को किनारे रख कर, आतंक से युद्ध के लिए कुछ सर्वमान्य एवं कठोर रास्तों की तलाश करनी होगी, ताकि दुनिया के किसी भी कोने में मासूम बच्चे और आम लोग इस तरह हमलावरों का शिकार न बनें. इस पहल में पाकिस्तान की सरकार, सेना और संस्थाओं को सकारात्मक भूमिका निभानी होनी होगी. हालांकि आतंकवाद से लड़ने की वैश्विक नैतिक जिम्मेदारी का वहन करने में एक राष्ट्र के रूप में पाकिस्तान विफल रहा है.
आतंकवाद को पाकिस्तान ने अपने राष्ट्रीय हित साधने की रणनीति का हिस्सा बना रखा है. भारत उसके इस रवैये का भुक्तभोगी रहा है. वहां नवाज शरीफ की लोकतांत्रिक सरकार भी हाफिज सईद जैसे आतंकियों की वैचारिक साझीदार है. आसिफ अली जरदारी के नेतृत्ववाली पूर्ववर्ती सरकार कहती रही थी कि पाकिस्तान की धरती पर सक्रिय आतंकवादी ऐसे गैर राजकीय समूह (नॉन स्टेट एक्टर्स) हैं, जिन पर वहां की सरकार का कोई नियंत्रण ही नहीं है. यह सही है कि अफगानिस्तान में तालिबान के विरुद्ध अमेरिकी सेना के नेतृत्व में नाटो की कार्रवाई में पाकिस्तान ने भी सहयोग किया है और पिछले कुछ महीनों से वजीरिस्तान में आतंकी ठिकानों पर पाक सेना ने बड़े हमले किये हैं. लेकिन, समस्या तब होती है, जब पाकिस्तान की सरकारें, पार्टियां और संस्थाएं चरमपंथी तत्वों की हिमायत करती रहती हैं.
हाफिज सईद को सरकारी संरक्षण और उसका खुलेआम हिंसा को बढ़ावा देने की छूट देना तो एक उदाहरण है. नवाज शरीफ के भाई और पंजाब सूबे के मुख्यमंत्री शहबाज शरीफ ने 2010 में तहरीक-ए-तालिबान के आतंकियों को अपना भाई बताया था. यह किसी से छिपा नहीं है कि पाकिस्तान के अलग-अलग आतंकी गिरोहों का इस्तेमाल वहां की पार्टियां अपने राजनीतिक वर्चस्व के विस्तार के लिए भी करती रही हैं. वहां शिया, अहमदिया, हिंदू और इसाई अल्पसंख्यकों पर हमले रोजमर्रा की बात हैं. सरकारें और अदालतें न सिर्फ उन्हें न्याय और सुरक्षा दे पाने में असफल ही नहीं रही हैं, बल्कि वे हमलावरों को प्रश्रय भी देती रही हैं. इसलामिक चरमपंथियों की बर्बरता के शिकार लोगों को कई बार वकील तक नहीं मिलते हैं और हत्यारों को अदालतों में फूल-माला पहनायी जाती है.
अब पेशावर की भयावह घटना ने फिर से पुष्ट किया है कि पाकिस्तानी राज्य अपने नागरिकों के जान-माल की रक्षा में सक्षम नहीं है. इसलिए वैश्विक आतंकवाद के मुख्य केंद्र के रूप में पनपते पाकिस्तान को वैश्विक सुरक्षा के लिए खतरा मानते हुए, दुनिया में शांतिपूर्ण सहअस्तित्व के पैरोकार राष्ट्रों को आगे आना होगा. उन्हें पाकिस्तानी सरकार और जनता को भरोसे में लेते हुए कोई ऐसी युक्ति निकालनी होगी, जिससे पाकिस्तान की धरती और उसके नागरिक आतंकवाद के खतरे से बाहर निकल सकें.