पंद्रह अगस्त के भाषण में प्रधानमंत्री ने योजना आयोग को समाप्त कर एक नयी संस्था बनाने की घोषणा की तो उनका तर्क था कि ‘कभी-कभी घर की मरम्मत करना जरूरी हो जाता है. मरम्मती में बहुत खर्च के बाद लगता है कि घर को जैसा होना चाहिए वैसा नहीं बन पाया, तब हम सोचते हैं कि एक नया घर ही बना लेना अच्छा होगा.’ मतलब यह कि प्रधानमंत्री की नजर में योजना आयोग अपनी प्रासंगिकता इस कदर खो चुका है कि उसे मौजूदा जरूरतों के लायक बनाने की कोशिश व्यर्थ है. यह सही है कि लोकतांत्रिक राजनीति संस्थाओं के बूते चलती है और नव-निर्माण का संकल्प नयी संस्थाओं की मांग करता है.
लेकिन, हमें नहीं भूलना चाहिए कि एक संप्रभु, लोकतांत्रिक गणराज्य के रूप भारत जितने वर्ष बिताये हैं, करीब उतने ही वर्ष योजना आयोग ने भी बिताये हैं. इस आयोग के गठन के साथ एक विजन जुड़ा था- केंद्रीय नियोजन के जरिये देश के कायाकल्प का. पंचवर्षीय योजनाओं का निर्माण इसी सोच और संकल्प से संचालित था. बदली हुई परिस्थितियों में जोर नियोजन से हट कर विकास पर चला आया है और मान लिया गया है कि इसमें सरकार की भूमिका कम से कमतर होगी. ‘न्यूनतम सरकार, अधिकतम शासन’ का नारा इसी सोच की ओर इशारा करता है.
अगर इस सोच को आयोग के पुराने ढांचे में साकार करना संभव नहीं है, तो एक नया ढांचा खड़ा किया जाना चाहिए, परंतु ऐसा करते समय इसके हर भागीदार की राय को समुचित सम्मान दिया जाना जरूरी है. कई मुख्यमंत्रियों की राय भी यही है. उत्तराखंड के मुख्यमंत्री ने ठीक सवाल उठाया है कि इतना बड़ा फैसला राज्यों की राय के बिना कैसे ले लिया गया? बिहार के मुख्यमंत्री का तर्क भी व्यावहारिक है कि 12वीं पंचवर्षीय योजना के बीच में ही योजना आयोग की समाप्ति से चालू योजनाओं में रुकावट आयेगी. केंद्रीय नियोजन के पुराने विचार में गड़बड़ी थी, क्योंकि उसमें केंद्र के बरक्स राज्यों के अधिकार को पर्याप्त सम्मान नहीं था. परंतु, विकास के नये विचार में भी गड़बड़ी हो सकती है, क्योंकि इसमें लोकतांत्रिक सत्ता की भूमिका के नगण्य होते जाने की आशंका है. इसलिए किसी नयी संस्था का निर्माण पुराने व नये विचारों से जुड़े दोषों-आशंकाओं के निराकरण के बाद ही होना चाहिए.