।। पुष्परंजन ।।
(नयी दिल्ली संपादक, ईयू-एशिया न्यूज)
– नेपाल में चुनाव की तारीख की घोषणा के साथ चीन वहां पर विकास की घोषणाएं क्यों कर रहा है? क्या चीन से सहयोग पर हस्ताक्षर के लिए नेपाली संसद की मंजूरी नहीं चाहिए? –
थाबांग अब भी उग्र माओवादियों का मक्का माना जाता है. पश्चिमी नेपाल के रोल्पा जिले की पहाड़ियों पर बसे गांव थाबांग के 300 कच्चे-पक्के मकानों में ज्यादातर ‘खाम मगर’ जाति के लोग रहते हैं. 1996 से पहले इसी थाबांग में लड़ाके तैयार किये गये थे, और जनयुद्ध की घोषणा हुई थी. थाबांग से यह तय होता था कि युद्ध की रणनीति क्या होगी. उसकी वजह माओवादी नेतृत्व का थाबांग की दुर्गम पहाड़ियों में छिपे होना होता था.
18 साल बाद थाबांग को याद करने की वजह बने हैं नेकपा-माओवादी नेता मोहन वैद्य ‘किरण’ और राम बहादुर थापा ‘बादल’. 13 फरवरी 2013 को ‘पीपुल्स वार’ का 18वां साल मनाने के लिए ये दोनों नेता अपने लड़ाकों के साथ थाबांग पहुंच गये थे. उसके बाद से थाबांग और माओवादियों के गढ़ कहे जाने वाले नेपाल के दूसरे इलाकों में नेकपा-माओवादी नेताओं की आवाजाही अचानक से तेज हो गयी है.
इसका अर्थ यह नहीं निकाल लेना चाहिए कि प्रचंड और बाबूराम भट्टराई की एकीकृत नेपाल कम्युनिस्ट पार्टी माओवादी (एनेकपा-माओवादी) से अलग हुआ यह ग्रुप नेपाल में चुनाव नहीं लड़ेगा और बंदूक उठा लेगा. एक रिपोर्ट यह आयी है कि एनेकपा-माओवादी के 30 प्रतिशत काडर, प्रचंड व बाबूराम भट्टराई के व्यवहार, और उनकी नीतियों से नाराज होकर मोहन वैद्य ‘किरण’ की पार्टी में चले गये हैं. नेकपा-माओवादी नेता मोहन वैद्य ‘किरण’ ने काठमांडो में बयान दिया कि अभी हमने चुनाव बहिष्कार का निर्णय नहीं किया है. यह बयान एक बड़े बदलाव का संकेत है.
चुनाव के चक्रव्यूह में फंसे नेपाल के राजनीतिक दलों का ध्यान आरंभ से ही नेकपा-माओवादी पर रहा है. जब से नेपाल में सर्वोच्च अदालत के प्रधान न्यायाधीश खिलराज रेग्मी के नेतृत्व में ‘चुनावी सरकार’ बनी है, मोहन वैद्य ‘किरण’ और उनके नक्शे कदम पर चलनेवाले नेता निर्वाचन का बहिष्कार करने की बात करते रहे हैं.
कामरेड किरण और उनकी पार्टी के उपाध्यक्ष सीपी गजुरेल प्रधान न्यायाधीश खिलराज रेग्मी पर लगातार आरोप लगाते रहे कि नेपाल में चुनाव का आयोजन एक ‘विदेशी सरकार’ (भारत) के मार्गदर्शन में किया जा रहा है. गजुरेल यहां तक कह गये कि इस बारे में सेना प्रमुख गौरव शमशेर राणा से हम बात करेंगे कि सेना चुनाव में सहयोग न करे. गजुरेल का कहना था कि नेपाल में सिर्फ चार दलों और ‘कठपुतली सरकार’ के चाहने पर चुनाव नहीं होना चाहिए.
पिछले दिनों चीनी स्टेट कौंसिलर यांग चीशी काठमांडो आये थे. चीशी ने दोनों माओवादी धड़ों से एक होने का आह्वान किया था. मीडिया में खुलासे के बाद कामरेड किरण ने चीनी नेता से किसी मुलाकात का खंडन किया. किरण कहते हैं कि हमारे एक होने का सवाल ही पैदा नहीं होता. लेकिन सियासी गलियारे में यह समझा जा रहा है कि शायद मोहन वैद्य ‘किरण’ चीन के कहने पर चुनाव के लिए तैयार हो जाएं. चीनी कूटनीतिक चुप होकर नेपाल की राजनीतिक स्थिति का आकलन कर रहे हैं.
यह सच है कि प्रचंड या किरण में किसी को सत्ता हासिल होती है, तो उसका फायदा चीन को ही मिलना है. चीन, ‘चित्त भी मेरी, पट भी मेरी’ की कूटनीति नेपाल में कर रहा है, इस बात से भारत भली-भांति वाकिफ है. मोहन वैद्य ‘किरण’ जैसे नेता भारत पर विस्तारवाद और चुनाव में दखल देने का आरोप लगाते हैं, तो लगता है कि उन्होंने आंख पर पट्टी बांध रखी है और दिमाग पूरी तरह से सुन्न हो चुका है. 25 जून को 21 सदस्यीय शिष्टमंडल के साथ पधारे चीनी स्टेट कौंसिलर यांग चीशी नेपाल में चुनाव संचालन के लिए एक करोड़ युआन रनमिनपी ( एक ‘युआन रनमिनपी’ भारतीय मुद्रा में नौ रुपये 68 पैसे के बराबर है) दान दे गये हैं.
अब कामरेड किरण से कोई पूछे कि नेपाल के चुनाव में चीन क्यों सहयोग कर रहा है? चीन, नेपाल के राजनीतिक दलों को चुनाव लड़ने के लिए कितने पैसे दे रहा है, इस बारे में चीनी दूतावास के लोग और अपने आका के इशारे पर कुछ भी कर गुजरने वाले ‘नेपाली राष्ट्रवादी’ ही बेहतर बता सकते हैं. वैसे नेपाल के इन तथाकथित राष्ट्रवादियों को चीन का भेजा हर पैकेज ‘अमृत कलश’ लगता है, और भारत से भेजा सहयोग ‘विष’.
नेपाल में अभी निर्वाचित सरकार भी नहीं है, लेकिन चीनी नेता यांग चीशी तीन समझौते कर गये हैं. उनमें से एक नेशनल आम्र्ड पुलिस फोर्स एकेडेमी बनाना है, जिस पर 20 करोड़ ‘युआन रनमिनपी’ चीन खर्च करेगा. कोटेश्वर-कलंकी रिंगरोड के लिए 34 करोड़ युआन लगाने की घोषणा कर दी गयी है.
नेपाल में चुनाव की तारीख की घोषणा के साथ चीन वहां पर विकास की घोषणाएं क्यों कर रहा है? क्या सिर्फ इसलिए कि जिस दल और उनके नेताओं की पीठ पर चीन हाथ रख दे, जनता उस पर जीत की मुहर लगा दे? चीन से आर्थिक और तकनीकी सहयोग पर हस्ताक्षर के लिए क्या नेपाली संसद की मंजूरी नहीं चाहिए? चीशी अपनी मंशा बता गये हैं कि चीन नेपाल में जल विद्युत परियोजनाओं और इंफ्रास्ट्रक्चर के क्षेत्र में जबरदस्त निवेश का इच्छुक है.
नेपाल में नये भारतीय राजदूत रणजीत राई को एक सोची-समझी रणनीति के तहत भेजा जा रहा है. रणजीत राई वियतनाम में राजदूत रहते हुए ‘साउथ चाइना सी’ की कूटनीति में भारतीय झंडा गाड़ने में काफी सफल रहे हैं. विदेश मंत्रालय में नेपाल और भूटान के लिए ज्वाइंट सेक्रेटरी रहते हुए नेपाली माओवादियों से समझौता कराने में रणजीत राई ने बड़ी भूमिका निभायी थी. राजदूत रणजीत राई कूटनीति में अपने पुराने कनेक्शन को कहां तक इस्तेमाल करेंगे, इस सवाल का उत्तर समय आने पर मिलेगा.
नेपाल में 19 नवंबर को चुनाव की घोषणा से जनता राहत में नहीं है. वहां पर चुनाव के नाम पर चैथ वसूली का काम शुरू हो गया है. माओवादियों ने एक सीडी बनायी है, पैसेवाले व्यापारी और अफसरों से कहा जा रहा है कि वे इसे खरीदें. इस सीडी की कीमत ‘मात्र’ पच्चीस हजार रुपये है.
पूछने पर माओवादी कहते हैं, ‘दान लेना हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है.’ चूरे भांवर, थरूआन, भोजपुरी, मैथिली, अवधी भाषी वोटरों और उनके नेताओं में बंटे तराई की हालत और खराब है. मधेश नेता महंत ठाकुर अपना वर्चस्व चाहते हैं. संधीय समाजवादी पार्टी नेपाल के अशोक राई, मधेशी जनाधिकार फोरम के उपेंद्र यादव ‘किरण कैंप’ से निकल कर चुनाव लड़ने के लिए बेचैन हैं.
मधेशी जनाधिकार फोरम ‘मधेश’ के नेता भाग्यनाथ प्रसाद गुप्ता मांग करते हैं कि यहां चुनाव संयुक्त राष्ट्र की देखरेख में होना चाहिए. यदि ऐसा हुआ, तो नेपाल की चुनावी तस्वीर कुछ और होगी!