।। कृष्ण प्रताप सिंह ।।
(वरिष्ठ पत्रकार)
युवाओं की रोजगारपरकता संबंधी समस्याओं के समाधान का दावा करनेवाली कंपनी ‘एस्पायरिंग माइंड्स’ ने अपनी ताजा सर्वे रिपोर्ट में कहा है कि देश के विश्वविद्यालयों से हर साल लाखों की संख्या में निकल रहे स्नातकों में 47 प्रतिशत से ज्यादा किसी नौकरी के लायक नहीं हैं, क्योंकि उनमें इसके लिए जरूरी कौशल है ही नहीं. उनका एक बड़ा हिस्सा क्लर्की तक के अयोग्य है. 90 प्रतिशत को कामचलाऊ अंग्रेजी तक नहीं आती और तीन प्रतिशत को ही कुशलतापूर्वक हिसाब-किताब रखना आता है.
बात-बात पर ‘युवा ऊर्जा के विस्फोट’ पर बलि-बलि जानेवाली देश की बड़ी शख्सीयतों में किसी ने इस रिपोर्ट पर एतराज नहीं जताया है. न ऐसे तथ्य प्रस्तुत किये हैं, जिनसे उसे गलत ठहराया जा सके. किसी विश्वविद्यालय ने भी इसका प्रतिवाद नहीं किया है. सोचिए जरा, अपने स्नातकों की क्षमताओं में हमारा अविश्वास कितना ‘अगाध’ है! दूसरे पहलू पर जायें, तो कंपनी ने 47 प्रतिशत स्नातकों को ही नाकाबिल बता कर सदाशयता बरती है.
एसोचेम की 85 प्रतिशत स्नातकों के बारे में राय अच्छी नहीं है जबकि सिंगापुर के प्रख्यात राजनेता ली क्वान यू ने अरसा पहले एक पुस्तक में हमारे स्नातकों के साथ इंजीनियरों के भी अधिकांश को कौशलहीन करार दिया था. तब भी विश्वविद्यालयों या शिक्षा-प्रणाली के अंदर-बाहर ऐसी ही चुप्पी छायी रही थी. इसका अर्थ है कि इस बदहाली का उन्हें पहले से इल्म है. फिर भी बदलाव की कोई कोशिश उनके एजेंडे में नहीं है! हालांकि शिक्षा के क्षेत्र में प्राथमिक से लेकर विश्वविद्यालय स्तर तक कोढ़ में खाज पैदा करनेवाले प्रयोगों की आजादी के बाद से ही भरमार रही है.
एक समय स्नातक होना योग्यता का ऐसा परिचय था कि साहित्यकार तक अपने नाम के आगे ‘बीए’ लगाने का लोभ संवरण नहीं कर पाते थे. फिर भी राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त ऐसी शिक्षा के नाश की कामना करते थे, जो सिर्फ नौकरी के लिए होकर रह जाये! लेकिन अब यह शिक्षा नौकरी लायक भी नहीं बना पा रही तो इसका त्रस कैसे महसूस किया जाये? क्या यह स्थिति अचानक या खुद उत्पन्न हुई है?
जवाब है- नहीं. भूमंडलीकरण व्यापा, तो देश की अन्य चीजों के साथ ज्ञान व प्रतिभा की लूट के बीच सारा जोर बड़ी व बहुराष्ट्रीय कंपनियों के लिए कारकुन तैयार करने वाले आइआइएम व आइआइटी खोलने व चमकाने पर हो गया, जबकि आम छात्रों, उनके विश्वविद्यालयों व उनसे संबद्ध महाविद्यालयों को उनके हाल पर छोड़ दिया गया. इससे अनेक विश्वविद्यालय मौके की ताक में बैठे गैर-अकादमिक व गैर-पेशेवर लेकिन शातिर पंजों में जकड़ गये.
अब उनमें सब कुछ होता है, बस अध्ययन-अध्यापन छोड़ कर. इसीलिए दुनिया के सौ तो क्या दो सौ सर्वश्रेष्ठ विश्वविद्यालयों में हमारा एक भी नहीं है. निजीकरण के दौर में शिक्षा की खरीद-बिक्री का जो सिलसिला शुरू हुआ, उसने कई क्षेत्रों में महामनाओं या मालवीयों की सूची में हत्यारों व बाहुबलियों तक के नाम दर्ज करा दिये हैं.
मालवीय जी को बनारस में एक विश्वविद्यालय खोलने के लिए अनेक पापड़ बेलने पड़े थे, लेकिन इन महाबलियों के लिए उनसे संबद्ध महाविद्यालय खोलना काली कमाई व प्रभुत्व बढ़ाने और ख्याति पाने का सबसे अच्छा साधन हो गया है. नर्सरी स्कूल खोलने से कहीं ज्यादा आसान और ज्यादा लाभ का धंधा. क्योंकि महाविद्यालयों में न कक्षाएं चलानी पड़ती हैं, न शिक्षकों या शिक्षण कक्षों की जरूरत पड़ती है.
बस प्रवेश लेना व परीक्षाएं संपन्न कराना होता है. दोनों में मनमानी की ऐसी छूट है, जो फर्जी पाठ्यक्रमों में प्रवेश लेकर छात्रों का साल खराब कर देने और परीक्षा के एक घंटे पहले प्रश्नपत्र बांटकर एक घंटा बाद तक लिखने की छूट देने व उसकी एवज में भरपूर उगाही करने तक जाती है. तिस पर अब निजी विश्वविद्यालय भी होने लगे हैं!
क्या वे ऐसे सुयोग्य स्नातक बना कर देंगे जो देश व समाज को कृतार्थ कर सकें? पूर्वी उप्र में तो बाहुबलियों के महाविद्यालय छात्रों को इस अर्थ में बहुत रास आ रहे हैं कि उनकी जैसी नकल की सुविधा कहीं और नहीं मिलती! कुलपति तक वहां निरीक्षण करने जाते घबराते हैं! यह स्थिति तभी बदलेगी जब उच्चशिक्षा को अगंभीर प्रबंधकों, छात्रों व शिक्षकों से मुक्त किया जाये. इसका रास्ता ऐसे मार्गदर्शन से गुजरता है, जो छात्रों के दिलोदिमाग में साफ कर दे कि अगंभीरता से उच्च शिक्षा हासिल करने, दर-दर भटकने व अपमानित होने से बेहतर है कि समय का सदुपयोग करके गंभीरतापूर्वक रोजी-रोजगार के बारे में सोचा जाये.