कभी देश के पहले प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू ने कहा था, ‘उन्हें 36 करोड़ समस्याओं से जूझना है’. तब देश की आबादी 36 करोड़ थी और उनका आशय था कि देश के हर नागरिक की समस्या को देश की समस्या समझना होगा. आज देश की आबादी सवा सौ करोड़ से अधिक है. दुनिया में सबसे ज्यादा युवाओं वाले देश में हर किसी की समस्या अलग है, हसरतें अलग हैं.
कोई रोजगार का आकांक्षी है, कोई स्वास्थ्य सुविधाओं के लिए तरस रहा है, तो किसी को दोनों वक्त का भोजन भी नसीब नहीं है. जाहिर है, आबादी बढ़ने के साथ समस्याओं की तादाद और उन्हें दूर करने की चुनौती भी बड़ी हो गयी है. लोकतांत्रिक शासन प्रणाली में जनता की समस्याएं दूर करने की स्वाभाविक अपेक्षा राजनीतिक दलों से होती है. हमारे राजनीतिक दल सर्वागीण विकास के रास्ते इस चुनौती से पार पाने और हर किसी के जीवन में खुशहाली लाने के वादे भी करते हैं, लेकिन सत्ता पाने के बाद ‘बांटो और राज करो’ की अंगरेजी शासन की सीख पर अमल करते दिखते हैं.
तभी तो मुख्यधारा की कई पार्टियों में कुछ ऐसे नेताओं को बढ़ावा मिलता रहता है, जो अपने बेतुके बयानों के जरिये समाज में सांप्रदायिक और जातिवादी जहर घोलने में जुटे रहते हैं. बेमानी लफ्फाजियों के जरिये वे वक्त-बेवक्त ऐसे मुद्दे उछालते रहते हैं, जिनका जनता की समस्याओं से दूर-दूर तक वास्ता नहीं होता. सपा नेता एवं उत्तर प्रदेश सरकार में वरिष्ठ मंत्री आजम खान और विश्व हिंदू परिषद के ‘अंतरराष्ट्रीय’ अध्यक्ष रहे अशोक सिंघल के हालिया बयान इसके ताजातरीन उदाहरण हैं. आजम खान ने कहा है कि सुप्रसिद्ध ऐतिहासिक धरोहर ताजमहल को उत्तर प्रदेश वक्फ बोर्ड की संपत्ति घोषित कर दी जाये. उल्लेखनीय है कि वक्फ बोर्ड मुसलिम समुदाय की सार्वजनिक संपत्तियों की देख-रेख करता है और उनसे अजिर्त आय को समुदाय के सामूहिक कल्याण में खर्च करता है.
आजम खान से क्यों नहीं पूछा जाना चाहिए कि ताजमहल जैसी राष्ट्रीय धरोहर को किसी एक समुदाय विशेष की संपत्ति क्यों बना दी जाये और क्या ऐसी इच्छा व्यक्त करने के लिए मुसलिम समुदाय ने उन्हें अधिकृत किया है? ताजमहल को एक खास समुदाय से जोड़ कर देखना न सिर्फ इतिहास की गलत और शरारतपूर्ण व्याख्या है, बल्कि इस इमारत को लेकर विभिन्न किताबों में दर्ज कई अन्य विवादित तथ्यों को हवा देना भी है. और अगर आजम खान ताजमहल की आय को सही तरह से खर्च करने की मंशा रखते हैं, तो साल भर पहले दिये गये उनके उस बयान का क्या मतलब था, जिसमें उन्होंने कहा था कि जिस उन्मादी एवं हिंसक भीड़ ने बाबरी मसजिद को गिराया था, यदि वह ताजमहल गिराने जाती, तो वे खुद उसका नेतृत्व करते! अफसोस की बात है कि सपा प्रमुख मुलायम सिंह यादव ने आजम खान के बयान की आलोचना करने के बजाय उनका समर्थन किया है. साथ में यह भी जोड़ा है कि आजम खान की वजह से ही उनका जन्मदिन शानदार ढंग से मनाया गया. इस शाही पार्टी में खर्च हुए करोड़ों रुपये के स्नेत को लेकर एक स्वाभाविक सवाल पर आजम खान ने बेशर्मी के साथ तल्ख अंदाज में कहा कि माफिया डॉन दाऊद इब्राहिम और अबु सलेम के अलावा आतंकी संगठन तालिबान ने पैसे दिये हैं. बेतुके बयान देने की यह प्रवृत्ति सपा नेताओं तक ही सीमित नहीं है.
संघ परिवार की विचारधारा पर चलनेवाले संगठन विश्व हिंदू परिषद के वरिष्ठ नेता अशोक सिंघल ने पिछले दिनों प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को ‘स्वाभिमानी हिंदू’ की संज्ञा देते हुए कहा कि देश में आठ सदी के बाद फिर से ‘हिंदू शासन’ आया है. लोकसभा चुनाव से पहले भी ऐसा ही बयान देते हुए उन्होंने कहा था कि ‘सिर्फ मोदी ही भारत के इसलामीकरण की प्रक्रिया को रोक सकते हैं’. राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और भाजपा में प्रवीण तोगड़िया और योगी आदित्यनाथ जैसे कई अन्य नेता भी ऐसे भड़काऊ बयान आये-दिन देते रहते हैं. लेकिन, जिस तरह मुलायम सिंह आजम खान को नहीं रोकते-टोकते, उसी तरह भाजपा के दिग्गज भी अशोक सिंघल जैसों के बयानों पर मौन ओढ़े रहते हैं, जिससे उनका मनोबल बढ़ता जाता है.
इससे स्पष्ट होता है कि ऐसे विवादस्पद बयान व्यक्तिगत नहीं, बल्कि पार्टियों की सोची-समझी रणनीति का हिस्सा हैं. उन्मादी शब्दाडंबर का वीभत्स रूप गत आम चुनाव के दौरान भी दिखा था. तब सुप्रीम कोर्ट ने इस प्रवृत्ति पर रोक लगाने के लिए विधि आयोग को दिशा-निर्देश तैयार करने कहा था. पर, विभिन्न दलों या उनसे जुड़ाव रखनेवाले नेताओं के भड़काऊ बयानों का सिलसिला जारी है. ऐसे में बड़ा सवाल यही है कि क्या ऐसी राजनीति से सवा सौ करोड़ देशवासियों की आकांक्षाएं पूरी हो पाएंगी और यह राजनीति देश को किस दिशा में ले जायेगी?