ज्यों ही झारखंड में चुनावी बिगुल बजा, वैसे ही राजनीतिक पार्टियों और नेताओं में छीना-झपटी तथा उछल-कूद शुरू हो गयी. नेताओं की दल बदलू गतिविधियों ने पिछले सारे रिकॉर्ड तोड़ दिये.
हालांकि यह पहला मौका नहीं है, जब नेता वर्षो तक किसी खास पार्टी के बैनर ओढ़े दांत निपोरते रहे और टिकट नहीं मिला, तो हवा का रुख भांपते ही हवा हो गये. पहले ऐसे नेताओं की कमी थी और अगर कुछ नेता इधर से उधर होते भी थे, तो पहली और दूसरी पंक्ति के नेता नहीं के बराबर दल बदलते थे.
इस बार के चुनाव में तो नेताओं ने इतिहास रचने की ठान ली है. रोज एक-दो नहीं, बल्कि कई नेता इधर से उधर पलटी मार रहे हैं. हर अखबार के पóो प्राय: ऐसे नेताओं की तसवीरों और खबरों से भरे हैं, जिसमें मालाएं पहनायी जा रही हैं, लड्ड बंट रहे हैं. नेताओं ने तय कर लिया है कि जहां नहीं टिकट, वहां स्थिति विकट.
जो बनायेगा उम्मीदवार, वही मेरा खिदमतगार. इस स्थिति से कोई भी दल नहीं बचा है. कोई नेता भागने पर आमादा है, तो कोई झपटने के लिए तैयार है. कई नेता तो हर पार्टी के लजीज व्यंजनों का स्वाद चख रहे हैं. उन्हें खुद ही समझ नहीं आता कि किसकी बुराई करें और किसकी तारीफ करें. इस चुनाव की एक और खास बात यह है कि जब से देश के मुखिया ने रोना शुरू किया है, तभी से हर नेता मर्सिया गाने लगा है. इस गाने में उन्होंने मानों आज मैं रोया, कल तेरी बारी है जैसे वाक्यों का चयन कर लिया है. लेकिन जनता अब मूर्ख नहीं रह गयी है. वह मर्सिया भी समझती है और मेलोडी भी. हां, इतना जरूर है कि नेताओं की मर्सिया में थोड़ा मेलोडी भी मिक्स है, तो थोड़ा रोमांटिक भी, इसलिए झारखंड की जनता नेताओं के चयन को लेकर दुविधा में है.
मनोहर पांडेय रुद्र, धुर्वा