।। बी जी वर्गीज ।।
(वरिष्ठ पत्रकार)
भाजपा में नरेंद्र मोदी को सर्व-स्वीकृति मिल जाने के बाद से पार्टी में आपसी खींचातानी का दौर समाप्त हो गया है, इस निष्कर्ष पर पहुंचना फिलहाल जल्दबाजी होगी. इस खेल में रणनीतिक तौर पर भले ही उन्होंने बाजी अपने नाम कर ली हो, लेकिन खेल अभी खत्म नहीं हुआ है. आडवाणी की नाराजगी के बीच पार्टी ने जिस तरह से मोदी को 2014 के लोकसभा चुनावों के लिए चुनाव प्रचार अभियान समिति का चेयरमैन नियुक्त किया है, इससे यह बात स्पष्ट हो चुकी है कि पार्टी ने परोक्ष रूप से ही सही, उन्हें प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित कर दिया है. इसे एक तरह से महत्वाकांक्षी छलांग कहा जा सकता है.
मोदी अभी आरएसएस की पीठ पर सवार हैं, जो आडवाणी की विचारधारा से इतर हिंदुत्व की ओर रुख कर चुका है. वर्ष 2005 में पाकिस्तान में जिन्ना को धर्मनिरपेक्ष करार देने के बाद से ही आडवाणी आरएसएस की नजरों में गिर चुके थे और यह माना जाने लगा कि वे अब हिंदुत्व के मुद्दे से भटक रहे हैं. आडवाणी ने जिस तरह से खुद को उदारवादी चेहरे के तौर पर पेश करना शुरू किया, उससे आरएसएस सकते में आ गया. हालांकि, आडवाणी ने बाबरी ढांचा गिराये जाने के प्रति संतोष जताया था और गुजरात दंगों के बाद मोदी का बचाव भी किया था. 2002 के दंगों से आगे बढ़ते हुए नरेंद्र मोदी आज भाजपा में राष्ट्रीय स्तर पर छाते जा रहे हैं. हालांकि, न्याय का पहिया घूम रहा है और धीरे-धीरे वह मोदी की ओर भी जा सकता है.
देश का हिंदुत्व की ओर लौटना किसी भी मायने में सही नहीं कहा जा सकता. देश के लिए यह एक तरह से घातक साबित हो सकता है. पाकिस्तानी जेहादियों की तरह ही हिंदुत्व जेहादी भी भारत में उधम मचा सकते हैं. भविष्य की ओर बढ़ रहा कोई भी देश पुरानी मानसिकता की जकड़नों में फंस कर फिर से पीछे की ओर नहीं मुड़ सकता.
जहां तक मोदी के विकास की तस्वीर की कहानी है, तो उसे डॉ मनमोहन सिंह ने स्पष्ट कर दिया है कि मध्य प्रदेश जैसे अति पिछड़े राज्य से इतर गुजरात उद्योग-धंधों के मामले में पहले से ही विकसित रहा है और वहां बाजारोन्मुखी अर्थव्यवस्था काबिज है. हालांकि, ऐसा बिल्कुल नहीं कहा जा सकता कि मोदी ने गुजरात में औद्योगिक विकास एवं ढांचागत सुधारों की गति को आगे बढ़ाने में सफलता हासिल नहीं की है. इसके बावजूद, राज्य के सामाजिक तथा मानवीय विकास सूचकांकों की स्थिति बहुत खराब है. यानी कि उनकी उपलब्धियां मिली-जुली हैं.
चुनाव प्रचार अभियान समिति का चेयरमैन नियुक्त किये जाने के बाद नरेंद्र मोदी ने जो वक्तव्य दिये वे कांग्रेस के खिलाफ की जानेवाली टिप्पणियों के अलावा और कुछ नहीं थे. उसमें उन्होंने सुरक्षा, आर्थिक विकास, विदेशी मामलों और सामाजिक नीतियों से जुड़े मसलों पर सार्थक वक्तव्य बहुत कम ही दिये थे. अपने वक्तव्य में वे महज इतना ही कह पाये कि देश को कांग्रेस की भ्रष्ट सरकार के चंगुल से मुक्त करा देंगे. साथ ही, एक नया पैंतरा अपनाते हुए उन्होंने सरदार पटेल की स्मृति में दुनिया में सबसे ऊंची ‘एकता की प्रतिमा’ स्थापित करने की कवायद शुरू की.
फिलहाल पार्टी में भले ही मनमुटाव दूर हो गये हैं, लेकिन विचारधारा और व्यक्तिगत स्तर पर टकराव अब छिपे नहीं रहे. मोदी ने भाजपा में मतभेद को और भी बढ़ा दिया है, जबकि एनडीए तो बिखरने की कगार पर पहुंच चुका है. इसलिए ऐसा कहना मुश्किल होगा कि नरेंद्र मोदी एनडीए या इस तरह के किसी नये विकल्प के उम्मीदवार के तौर पर उभर सकते हैं.
इस बारे में आडवाणी द्वारा हाल में पार्टी के पदों से इस्तीफे के समय लिखी गयी चिट्ठी काबिलेगौर है, जिसमें उन्होंने लिखा था कि उन्हें महसूस हो रहा है कि पार्टी गलत दिशा में जा रही है और अधिकतर नेता अपना व्यक्तिगत एजेंडा ही आगे बढ़ा रहे हैं.
फिलहाल देश के राष्ट्रीय क्षितिज पर मोदी से किसी खास चमत्कार की उम्मीद करना बेमानी कही जा सकती है. दूसरी ओर, राहुल गांधी से भी जनता कुछ उम्मीद नहीं कर सकती. राहुल अब तक धरातल पर कुछ ठोस दिखा पाने में अक्षम ही रहे हैं. किसी को यह नहीं पता है कि देश के गंभीर राष्ट्रीय मसलों पर उनके क्या विचार हैं? उन्होंने अब तक जितना किया है, उससे कुछ ज्यादा ही दर्शाया जा रहा है.
इधर, बिहार में भाजपा-जद (यू) गठबंधन टूटने के बाद से नवीन पटनायक, ममता बनर्जी और शायद नीतीश कुमार को लेकर तीसरे मोरचे के गठन की कवायद के कयास भी लगाये जा रहे हैं. हालांकि, इसका कोई वास्तविक आधार दिखता नहीं, क्योंकि तुरंत चुनाव के लिए कोई भी तैयार नहीं है.