28.8 C
Ranchi

BREAKING NEWS

Advertisement

सकारात्मकता की खोज मुश्किल है

।।एमजे अकबर।।(वरिष्ष्ठ पत्रकार हैं)हाल ही में प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने हम सबसे अपनी ‘नकारात्मकता’ त्यागने की अपील की. मैं उनकी इस अपील के बाद काफी देर तक एक के बाद उजागर हुए और हो रहे घोटालों, अर्थव्यवस्था के गहराते संकट और क्रिकेटरों तथा सट्टेबाजों के बीच के अंतरंग संबंधों के बीच से इस बारे में […]

।।एमजे अकबर।।
(वरिष्ष्ठ पत्रकार हैं)
हाल ही में प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने हम सबसे अपनी ‘नकारात्मकता’ त्यागने की अपील की. मैं उनकी इस अपील के बाद काफी देर तक एक के बाद उजागर हुए और हो रहे घोटालों, अर्थव्यवस्था के गहराते संकट और क्रिकेटरों तथा सट्टेबाजों के बीच के अंतरंग संबंधों के बीच से इस बारे में सोचता रहा. लेकिन हाय! सकारात्मकता को खोज पाना नामुमकिन-सा था. अचानक यह कोलकाता के ठीक बीच में पाया गया.

हम सबको ममता बनर्जी का अभिवादन करना चाहिए. सिर्फ इसलिए नहीं, कि उनकी पार्टी ने कोलकाता से सटे आंशिक शहरी क्षेत्र हॉवड़ा के उपचुनाव में जीत दर्ज की है. उनके लिए यह जीत काफी महत्वपूर्ण है. इसने उनकी सरकार को पंचायत चुनाव के रूप में मौजूद अगली परीक्षा और उसके आगे तक के लिए प्राणवायु देने का काम किया है. शहरी बंगाल में केंद्रित उनके आलोचक, उनकी हार सुनिश्चित करने में जुटे थे. वाम दलों में ऊर्जा का संचार होता दिख रहा था. ममता ने अपने विरोधियों के साथ वह किया जो तीन दशक के ज्यादा समय तक वाम मोर्चा अपने विरोधियों के साथ करता था. ममता ने शहरी मध्यवर्ग को ङिड़की दी और वंचितों के वोटों पर कब्जा जमा लिया.

लेकिन यह सिर्फ उनकी पार्टी के लिए खुश होने का कारण है. हम उन्हें इसलिए बधाई देनी चाहिए क्योंकि वह एक ऐसी प्रमुख राजनेता हैं, जिन्होंने राजनीतिक दलों को होनेवाली फंडिंग को सूचना के अधिकार (आरटीआइ) के भीतर लाये जाने के सुझावों को स्वीकार किया है. खासकर इसलिए क्योंकि वाम दलों को भी खजाने में पारदर्शिता लाने की बात रास नहीं आयी. अगर सरकार आरटीआइ के दायरे में आ सकती है, तो राजनीतिक दल क्यों नहीं? जबकि राजनीतिक दल ही सरकार चलाते हैं. उनके तर्क आंखों में धूल झोंकने के समान है. राजनीतिक दल निजी शेयरधारकों की संपत्ति नहीं हैं. उनका गठन सार्वजनिक मकसद के लिए किया जाता है और जनता के पैसे पर नियंत्रण और नीतियों के निर्माण में अपनी भूमिका के कारण वे हमारे जीवन पर काफी गहरा असर डालते हैं. हमें उनके बारे में कम से यह तो पता होना ही चाहिए कि उन्हें पैसा कहां से आता है और वह कहां जाता है?

यहां इस बात को समझना जरूरी है कि ऐसी किसी पहल से हद से हद राजनीतिक दलों को आधिकारिक रूप से मिलनेवाले पैसे के बारे में ही जाना जा सकेगा. क्योंकि उन्हें मिलनेवाले पैसे में नकद चंदे का हिस्सा कहीं ज्यादा बड़ा होता है. लेकिन ‘कुछ नहीं’ से हमेशा ‘कुछ’ बेहतर होता है. कुछ सनकी यह कह सकते हैं कि ममता को इसकी परवाह इसलिए नहीं है क्योंकि उन्हें इन दोनों रास्तों से न के बराबर चंदा मिलता है. उनके फंड का असल स्नेत छोटे चिट फंड व्यापारी हैं. अगर यह सही भी है, तो भी कम से वह आरटीआइ के सवालों का सामना करने को तैयार तो हैं. बाकी लोग ऐसा करने को क्यों राजी नहीं हैं!

मुङो लगता है कि ज्यादातर पार्टियां पैसे का स्नेत बताने से ज्यादा पैसे के खर्च का ब्योरा देने को लेकर चिंतित हैं. खर्चे का ब्योरा उनकी जीवनशैली पर पड़े परदे को उठा देगा. वे यात्रएं कैसे करते हैं, किस तरह का जीवन जीते हैं, सब उजागर हो जायेगा. एक बार आरटीआइ की प्रक्रिया शुरू हो जाये, तो यह छिपाना लगभग नामुमकिन होगा कि किस यात्र के लिए किसके विमान का इस्तेमाल किया गया. या जब एक ही प्लेन पर्याप्त होता, तो वास्तव में कितने प्लेन हायर किये गये थे. कॉरपोरेट और राजनेताओं के बीच के गंठजोड़ में कुछ भी मुफ्त में न दिया जाता है, न लिया जाता है. हालांकि, थोड़े के लिए बहुत अदा करने के मामले सामने आते हैं. कोई सत्ताधारी दल से सौदा नहीं कर पाता, तो विपक्ष से बीमा खरीदता है. इसकी कीमत पहले से कम पड़ती है. लेकिन पैसा तो चुकाना ही पड़ता है.

हम मूलभूत समस्या से आंखें नहीं चुरा सकते. राजनीतिक दलों की फंडिंग लोकतंत्र की मौलिक दुविधा रही है. और किसी के पास इसका संतोषजनक जवाब नहीं है. अमेरिका में इसकी कोशिश की गयी, लेकिन लेकिन पसंदीदी उम्मीदवार के लिए विज्ञापन जुटाने के प्रावधान के तौर पर उसमें एक बड़ा छेद छोड़ दिया गया. लंबे समय से ब्रिटिश अखबारों का पसंदीदा काम यह उजागर करना रहा है कि सांसद किस तरह से खर्च की रसीदों में जालसाजी करते हैं या वे कैसे खुशी-खुशी अपने पद का इस्तेमाल कॉरपोरेटों को लाभ पहुंचाने के वास्ते करने के लिए तैयार रहते हैं. वहां एक के पकड़े जाने पर दस बेचैन होते हैं और भगवान को इस बात के लिए धन्यवाद देते हैं कि मीडिया की नजर उन पर नहीं पड़ी.

भारत की समस्या सिर्फ निष्क्रियता नहीं है. बल्कि गंभीरता से विचार न कर पाना है. यह संतोषप्रद जवाबों की कमी के कारण हो सकता है. पार्टियों को सरकारी फंडिंग एक हादसा होगा. होगा यह कि पार्टियां जनता से भी पैसे लेंगी और कॉरपोरेट से भी. और अगर चुनाव आयोग उन लोगों को जो चुनाव में सीमा से ज्यादा खर्च करते हैं, सर्टिफिकेट देने से इनकार कर देता है, तो आधी लोकसभा खाली रह जायेगी. क्या हम ऐसी स्थिति के लिए तैयार हैं? मैंने सकारात्मक होने की पूरी कोशिश की, लेकिन देखिए, मैं कहां पहुंच गया हूं!

Prabhat Khabar App :

देश, एजुकेशन, मनोरंजन, बिजनेस अपडेट, धर्म, क्रिकेट, राशिफल की ताजा खबरें पढ़ें यहां. रोजाना की ब्रेकिंग हिंदी न्यूज और लाइव न्यूज कवरेज के लिए डाउनलोड करिए

Advertisement

अन्य खबरें

ऐप पर पढें