एक ऐसे समय में, जब नीति-निर्माताओं को नाज है कि भारत की आधी से ज्यादा आबादी युवा है, जिसके दम पर जग को जीता जा सकता है, क्या जनमानस एक ऐसे महाबली (सुपरहीरो) की कल्पना कर सकता है जो बूढ़ा हो?बाजार की भाषा में ‘यंगिस्तान’ कहलानेवाले इस देश में यह सोचना अचरज से भर देता है कि एक चितेरे ने सुपरहीरो के रूप में एक ऐसे बुजुर्ग पात्र की रचना की, जो कद-काठी से कमजोर और बूढ़ा था, छड़ी की टेक लगा कर चलता था, पर उसका दिमाग कंप्यूटर से भी तेज चलता था.
बीस साल पहले तक सुपरमैन के देसी अवतार के रूप में ‘चाचा चौधरी’ नाम का यह कार्टून-किरदार देश की किशोर आबादी के मन पर अगर छा गया था, तो इसलिए कि वह वक्त के अनुकूल भारतीयता के मूल्य का वाहक था. इस किरदार के रचयिता थे कसूर (अब पाकिस्तान) में जन्मे कार्टूनिस्ट प्राण कुमार शर्मा.
शंकर और कुट्टी सरीखे विख्यात कार्टूनिस्ट के मौजूद रहते, उनके राजनीतिक कार्टूनों के समानांतर एक सामाजिक किरदार के रूप में चाचा चौधरी का किरदार गढ़ कर प्राण कुछ ऐसे प्रसिद्ध हुए कि एक खास शैली में लिखा हस्ताक्षर ‘प्राण’ ही उत्तर भारत के मध्यवर्गीय घरों में उनका पूरा परिचय बन गया. प्राण मानते थे कि चाचा चौधरी पात्र चाणक्य की तर्ज पर बनाया गया, लेकिन जिन्हें पंचतंत्र की कहानियां याद हैं, उन्हें चाचा चौधरी में बहेलिये के जाल में फंसनेवाले नौजवान कबूतरों को मुक्त होने की युक्ति बतानेवाले कुनबे के बुजुर्ग कबूतर की झलक दिखाई देगी. परंपरा अपने को नया करती, संकट के वक्त कवच का काम करती है- अपनी चतुराई से हमेशा विजयी होनेवाला चाचा चौधरी का किरदार पाठकों को हर कहानी में यह बात याद दिलाता था.
यह देसी किरदार ‘फैंटम’ और ‘मेंड्रेक’ जैसे देहबल और जादू के जोर से जीत दर्ज करनेवाले विदेशी किरदारों की काट में खड़ा जान पड़ता है. चाचा चौधरी देहबल का नहीं, आत्मबल का प्रतीक है, ऐसा आत्मबल, जो जानता है कि मशीनी ताकत (साबू) का इस्तेमाल करते हुए कैसे अपनी आत्मा को मशीन बनने से बचाये रखना है. इस लिहाज से देखें तो प्राण का दुनिया को अलविदा कहना दरअसल आधुनिक भारतीयता को पहचानने और संजोनेवाली पीढ़ी से एक पारखी का कम होना है.