28.8 C
Ranchi

BREAKING NEWS

Advertisement

हां, मैं सईद से मिला हूं, और मैं पत्रकार हूं

।। पुण्य प्रसून वाजपेयी ।। वरिष्ठ पत्रकार अमेरिकी रिपोर्ट की मानें, तो 9/11 के वक्त लश्कर को हर बरस सौ मिलियन डॉलर चंदे के तौर पर मिलते थे. जो मौजूदा वक्त में पांच हजार मिलियन डॉलर को पार चुका है. यानी पाकिस्तान जितना बजट 10 बरस में सामाजिक क्षेत्र में खर्च करता है, उतना पैसा […]

।। पुण्य प्रसून वाजपेयी ।।

वरिष्ठ पत्रकार

अमेरिकी रिपोर्ट की मानें, तो 9/11 के वक्त लश्कर को हर बरस सौ मिलियन डॉलर चंदे के तौर पर मिलते थे. जो मौजूदा वक्त में पांच हजार मिलियन डॉलर को पार चुका है. यानी पाकिस्तान जितना बजट 10 बरस में सामाजिक क्षेत्र में खर्च करता है, उतना पैसा सामाजिक कार्य के नाम पर चंदे के तौर पर दुनिया से जमात-उद्-दावा उगाही कर लेता है.

आज की तारीख में हाफिज सईद का इंटरव्यू कोई न्यूज चैनल नहीं दिखा सकता. यह प्रतिबंध सरकार का नहीं, बल्कि मुंबई हमले के बाद न्यूज चैनलों की स्वयंभू संस्था बीइए (ब्राडकास्ट एडिटर्स एसोसिएशन) ने लगाया था.

इसलिए पहला सवाल कि हाफिज सईद का इंटरव्यू करना मुश्किल काम है या उस तक पहुंचना, तो मैं खुद हाफिज सईद से मिल चुका हूं और बतौर पत्रकार इंटरव्यू भी ले चुका हूं.

लेकिन, जब से बीइए ने यह मान कर हाफिज सईद का इंटरव्यू दिखाने को बेमानी करार दिया कि यह आतंकवादी को प्लेटफार्म देना हो जायेगा, तब से वह पत्रकारिता काफी पीछे छूट गयी, जो किसी आतंकवादी को इंटरव्यू के जरिये कटघरे में खड़ा करती और आतंकवाद को आश्रय देनेवाली सरकारों पर दबाव भी बनाती है. 14 बरस पहले भारत में आतंकी हमलों को लेकर पूछे गये सवालों का जो जवाब हाफिज सईद ने दिया था, वह आज भी उसे आतंक के कटघरे में खड़ा करने के लिए काफी है.

पाकिस्तान के प्रधानमंत्री नवाज शरीफ ने सत्ता में आने के बाद जब यह कहा कि मुंबई हमले में हाफिज सईद के खिलाफ कोई सबूत कानूनी दायरे में फिट नहीं बैठता, तो समझना होगा कि कैसे बीते 14 बरस में हाफिज सईद ताकतवर होता चला गया. लेकिन पहले 14 बरस पुराने पन्नों को पलट लें, तब समझ में आयेगा कि सईद से मिलना या इंटरव्यू लेना कितना मुश्किल या आसान है.

जनवरी, 2000. जगह- रावलपिंडी का फ्लैशमैन होटल. इस होटल में दोपहर करीब तीन बजे एक कद्दावर शख्स कमरे में घुसा. गर्दन से नीचे तक लटकती दाढ़ी. हट्टा-कट्टा शरीर. सफेद पजामा और कुरता पहने. उसने कमरे में घुसते ही कहा- कॉफी नहीं पिलाइयेगा.

कुछ पूछने से पहले ही वह खुद ही कुर्सी पर बैठ गया और हमारे कुछ भी पूछने से पहले खुद ही बोल पड़ा. इंडिया से आये हैं? जी. कई दिनों से हैं? जी. तो रुके हुए क्यों हैं? जी, हम लश्कर के मुखिया मोहम्मद हाफिज सईद का इंटरव्यू लेने के लिए रुके हैं. क्यों आपकी बात हो गयी है. जी नहीं.

तो फिर क्या फायदा? दिल्ली में लालकिले पर हमला हुआ, तो हम पाकिस्तान यही सोच कर आये हैं कि इंटरव्यू करेंगे, तो भारत में भी लोग जानेंगे कि लश्कर के इरादे क्या हैं. आपने लश्कर के चीफ की कभी कोई तसवीर देखी है? नहीं. तो फिर इंटरव्यू की कैसे सोच ली? पत्रकार के तौर पर पहली बार हमारे भीतर आस जगी कि हो न हो यह शख्स लश्कर से जुड़ा है.

तो मैंने तुरंत कॉफी का ऑर्डर दे दिया. दरअसल, हाफिज सईद से मुलाकात का मतलब क्या हो सकता है और 14 बरस पहले कैसे यह संभव हुआ, यह इस हद तक रोमांचित करनेवाला था कि जैसे ही वेद प्रताप वैदिक की मुलाकात पर देश के भीतर बहस छिड़ी, मुअनायास ही अपनी मुलाकात का वक्त याद आ गया.

दरअसल, जनवरी, 2000 तक किसी ने लश्कर के मुखिया हाफिज सईद का चेहरा नहीं देखा था. उसकी कहीं कोई तसवीर नहीं छपी थी और सिर्फ उसके नाम की ही दहशत कश्मीर से लेकर दिल्ली तक थी. उसी दौर में हमने सोचा कि हाफिज सईद का इंटरव्यू लेने पाकिस्तान जाना चाहिए. कोई सूत्र नहीं. किसी को जानते नहीं थे. सिर्फ पाकिस्तान के कब्जेवाले कश्मीर के अलगाववादियों से संपर्क साध कर हम (मैं और मेरे सहयोगी अशरफ वाणी) इसलामाबाद रवाना हो गये.

पाकिस्तान में हिजबुल से लेकर जैश-ए-मोहम्मद तक के दफ्तरों की हमने खाक छानी, लेकिन किसी ने लश्कर के बारे में कोई जानकारी नहीं दी. पाकिस्तानी पत्रकारों से हम लगातार मिलते रहे, लेकिन किसी ने भी यह भरोसा नहीं दिया कि हाफिज सईद से हमारी कोई मुलाकात हो भी सकती है.

ओसामा बिन लादेन से संपर्क करनेवाले पत्रकार हामिद मीर ने भी हमें यह कह कर निराशा दी कि सईद से मिलना नामुमकिन है. हां, यह कह कर उन्होंने जरूर आस जगा दी कि अगर लश्कर को पता चल जाये कि आप दिल्ली से उसका इंटरव्यू लेने आये हैं, तो वह संपर्क साध सकता है. हमें भी लगा हम हर दरवाजे पर तो जा चुके हैं. अब वीजा का वक्त भी खत्म होने जा रहा है, तो आखिरी दिन तक रुकते हैं.

फ्लैशमैन होटल के कमरा नंबर 105 में हमारा वक्त गुजर रहा था. वीजा के सिर्फ चार दिन बचे थे. तीसरे दिन दोपहर तीन बजे के वक्त जो कद्दावर शख्स होटल के हमारे कमरे में बिना इजाजत दाखिल हुआ था, उससे बातचीत करते हुए दो घंटे बीते होंगे, जिसके बाद उसने खुद का नाम यह्या मुजाहिद बताया.

हम खुश हुए कि हमारे दरवाजे पर लश्कर दस्तक दे चुका है. क्योंकि यह्या मुजाहिद का नाम लश्कर के प्रवक्ता के तौर पर लाल किले पर हमले के बाद भी आया था, जिसमें लश्कर ने लालकिले पर हमले की जिम्मेदारी ली थी.

शाम हो चुकी थी और अब मैं और अशरफ वानी हर हाल में इंटरव्यू चाहते थे. यह्या से देश-दुनिया के हर मुद्दे पर बातचीत हो रही थी. बातचीत के बीच उसने जानकारी दे दी कि इंडिया की तरफ से कई पत्रकारों ने इंटरव्यू की गुहार लगायी है.

उसमें एक नाम महिला पत्रकार का भी आया, लेकिन किसी महिला को हाफिज सईद इंटरव्यू नहीं दे सकते हैं. क्यों? क्योंकि ख्वातीन को इंटरव्यू नहीं दिया जा सकता है. बातचीत का सिलसिला रात 10 बजे तक चलता रहा. लेकिन यह्या इंटरव्यू की बात आते ही टाल जाता.

करीब रात ग्यारह बजे उसने किसी से मोबाइल पर बात की और उसके बाद हमारे सामने इंटरव्यू के लिए कई शर्त रख दी. मसलन, इंटरव्यू लेने के तुरंत बाद हमें पाकिस्तान छोड़ना होगा. जहां इंटरव्यू लेना होगा, वहां ले जाने के लिए सुबह पांच बजे लश्कर की गाड़ी होटल में आ जायेगी. इंटरव्यू सिर्फ ऑडियो होगा.

हम हर शर्त पर राजी हो गये. क्योंकि लश्कर का मुखिया हाफिज सईद पहली बार किसी को इंटरव्यू दे रहा था. यानी भारत ही नहीं दुनिया के कई पत्रकारों ने इंटरव्यू के लिए लश्कर का दरवाजा खटखटाया था. तो यह्या की हर शर्त मान कर रात में ही फ्लैशमैन होटल को सुबह कमरा खाली करने की जानकारी देकर हमने सब कुछ जल्दी-जल्दी निपटाया.

सुबह साढ़े पांच बजे लश्कर की गाड़ी आयी. एक घंटे के ड्राइव के बाद अंधेरे में कहां ले गयी, हम समझ नहीं पाये. इंटरव्यू लिया गया और इंटरव्यू खत्म होने के तुरंत बाद लश्कर की गाड़ी ने ही हमें हवाई अड्डे पहुंचा दिया. वह इंटरव्यू चैनल पर 14 बरस पहले दिखाया भी गया. लेकिन तब किसी ने हाफिज सईद का चेहरा नहीं देखा था, क्योंकि वह इंटरव्यू हाफिज सईद के पीठ पीछे कैमरा रख कर लिया गया था.

अमेरिका पर हुए हमले यानी 9/11 के बाद पहली बार हाफिज सईद का चेहरा अमेरिका सामने लेकर आया, क्योंकि लश्कर के ताल्लुकात ओसामा बिन लादेन से थे. और इस संबंध के सामने आने के बाद ही हाफिज सईद ने 2004 में लश्कर की जगह जमात-उद्-दावा बना लिया. खुद के काम को जमात के काम से जोड़ कर सामाजिक कार्यो में लगा हुआ बताना ही हाफिज सईद ने शुरू किया.

इसलिए 2004 से लेकर मुंबई हमला यानी 26/11 तक के दौर में भारत पर लश्कर के करीब दो दर्जन आतंकी हमले अलग-अलग शहर में हुए. भारत ने लगातार लश्कर को निशाने पर लिया. आतंकी हमलों को लेकर पाकिस्तान को सबूत भी दिये. लेकिन, पाकिस्तान में हाफिज सईद को छूने की हिम्मत किसी की नहीं थी और न ही आज है, क्योंकि लश्कर आइएसआइ और सेना की कूटनीतिक चालों का सबसे बेहतरीन प्यादा भी है और पाकिस्तानी सत्ता के लिए कश्मीर के नाम पर वजीर भी.

चौदह बरस पहले लश्कर एक आतंकवादी की ट्रेनिंग पर 1,500 डॉलर खर्च करता था. इस तरह उस वक्त हर साल करीब 50 लाख डॉलर ट्रेनिंग पर ही खर्च करता था. अमेरिकी रिपोर्ट की मानें, तो 9/11 के वक्त लश्कर को हर बरस सौ मिलियन डॉलर चंदे के तौर पर मिलते थे, जो मौजूदा वक्त में पांच हजार मिलियन डॉलर को पार चुका है. यानी पाकिस्तान जितना बजट 10 बरस में सामाजिक क्षेत्र में खर्च करता है, उतना पैसा सामाजिक कार्य के नाम पर चंदे के तौर पर दुनिया से जमात-उद्-दावा उगाही कर लेता है.

तो यहीं पर आखिरी सवाल, कि आतंक के सौदागर हाफिज सईद का सच पत्रकारों की खोजी रिपोर्ट के जरिये सामने आने देना चाहिए या फिर इस पर खामोशी बरतनी चाहिए? और आतंक के किसी भी सिरमौर का इंटरव्यू लेना क्या किसी पत्रकार का गुनाह है या फिर पत्रकारों के इंटरव्यू से जो तथ्य निकले, उसे सरकारों द्वारा नजरअंदाज किया जाना गुनाह है? या फिर वेद प्रताप वैदिक सरीखा कोई शख्स जब हाफिज सईद के साथ फोटो खिंचवा कर लौटे तो बीइए से जुड़े संपादकों का हो-हल्ला करना गुनाह है?

Prabhat Khabar App :

देश, एजुकेशन, मनोरंजन, बिजनेस अपडेट, धर्म, क्रिकेट, राशिफल की ताजा खबरें पढ़ें यहां. रोजाना की ब्रेकिंग हिंदी न्यूज और लाइव न्यूज कवरेज के लिए डाउनलोड करिए

Advertisement

अन्य खबरें

ऐप पर पढें