ऐसा सिर्फ ‘मेलोड्रामेटिक’ फिल्मों में हो सकता है. हकीकत में हो, तो इसे चमत्कार कहा जा सकता है. दुर्घटना के बाद ‘ब्रेन डेड’ एक युवक के हृदय को सोमवार शाम चेन्नई के सरकारी अस्पताल से तकरीबन 13 किमी दूर एक निजी अस्पताल तक सिर्फ 13 मिनट में पहुंचाया गया, जहां उसे एक युवती के शरीर में प्रत्यारोपित किया गया. इस कहानी में कई नायक-नायिकाएं हैं, कई उपकथाएं हैं, कई दृश्य हैं. इस पूरे प्रकरण से कई संदेश भी निकलते हैं, जिन्हें सभी को गंभीरता से ग्रहण करना चाहिए.
27 वर्षीय लोगानाथन की सड़क हादसे में लगी चोट के कारण 16 जून को मृत्यु हो गयी. मृतक के परिवारवालों ने हृदय सहित उसके अन्य अंगों को दान करने का निर्णय किया. उधर, एक अन्य अस्पताल में मुंबई से आयी 21 वर्षीया हवोवी हृदय-प्रत्यारोपण के इंतजार में पड़ी थी. दानकर्ता के शरीर से निकाले जाने के चार घंटे के भीतर हृदय का प्रत्यारोपण जरूरी होता है. दोनों अस्पतालों के डॉक्टरों में समन्वय, चेन्नई पुलिस, एंबुलेंस के ड्राइवर और लोगों के सक्रिय सहयोग से रात दस बजते-बजते वह हृदय फिर से धड़कने लगा. दानकर्ता के अन्य अंग भी जल्द ही नये शरीरों में हरकत करेंगे. एक ऐसे देश में, जहां रक्त और अंग दान करने के मामले में कोई उल्लेखनीय सक्रियता नहीं है, चेन्नई ने एक अनुकरणीय नजीर स्थापित की है.
इस महानगर में 2008 से ही एक ‘ग्रीन कॉरिडोर’ की व्यवस्था की गयी है, जिससे एक तय समय के भीतर, जो 9 से 14 मिनट होता है, हृदय को बीमार तक पहुंचा दिया जाता है. चेन्नई पुलिस और नागरिकों की सजगता व चौकसी का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि वहां अब तक हृदय के 75 सफल प्रत्यारोपण हो चुके हैं.
सोमवार की सफलता के बाद डॉक्टरों, प्रशासन, ड्राइवरों और संबंधित लोगों की मुस्कराहटें यह संदेश देती हैं कि बहुमूल्य जीवन को बचाने-संजोने के लिए एक-दूसरे का हाथ थामना जरूरी है. जो चेन्नई में हो सकता है, वह देश में कहीं और क्यों नहीं हो सकता? ट्रैफिक की अव्यवस्था और सुविधाओं की बदहाली से देश में रोज बहुत सी जिंदगियां काल-कवलित हो जाती हैं. चेन्नई की यह घटना निरंतर स्वार्थी व निष्ठुर होते समय में मनुष्य की क्षमता की असीम संभावनाओं का प्रकटीकरण है. यह शुभ और सुंदर है.