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बदायूं के बहाने राग शौचालय

फिजा में अच्छे दिन की हवा घुलने का शोर था. नमो-नमो के बीच मन नाच रहा बन कर मोर था. लेकिन, अचानक यह खुमारी टूटी बदायूं के एक मंजर से. जिस पेड़ से उन्हें झूला झूलना चाहिए था, उसी से वे गर्दन से लटकती मिलीं. जवानी की दहलीज पर कदम रखती ये लड़कियां जिंदगी का […]

फिजा में अच्छे दिन की हवा घुलने का शोर था. नमो-नमो के बीच मन नाच रहा बन कर मोर था. लेकिन, अचानक यह खुमारी टूटी बदायूं के एक मंजर से. जिस पेड़ से उन्हें झूला झूलना चाहिए था, उसी से वे गर्दन से लटकती मिलीं. जवानी की दहलीज पर कदम रखती ये लड़कियां जिंदगी का हुस्न देख पातीं कि इससे पहले ही उनका सामना हमारे समाज के सबसे बदसूरत चेहरे से हो गया.

यह सब उस बदायूं में हुआ जो शकील बदायूंनी की धरती है. शकील साहब का गीत ‘ढूंढ़ो ढूंढ़ो रे साजना मोरे कान का बाला..’ रेडियो-टीवी पर सुन कर उनके मन में न जाने कितनी ख्वाहिशें जाग जाती होंगी. लेकिन सियासत के साये में पल रहे भेड़ियों ने उनके जिस्म, उनकी रूह को नोच डाला. उन कानों को भी जिनमें बाले पहने जाते हैं.

शकील साहब ने तो प्यार-मनुहार में लिखा था, ‘अकेली मत जइयो राधे जमुना के तीर’. लेकिन, यहां यमुना किनारे तो जाने दीजिए खौफ दिखा कर लड़कियों को खेतों तक जाने से भी मना किया जा रहा है. कल को कहा जायेगा, लड़कियां घर में ही रहें. न बाहर निकलेंगी, न उनके साथ कुछ बुरा होगा. बलात्कार की समस्या का रामबाण समाधान खोजा गया है- शौचालय. संतरी से लेकर मंत्री तक कह रहा है कि बलात्कार रोकना है तो घर में शौचालय बनवाओ. ठीक ही कह रहे हैं सब, लड़कियों को शौच के अलावा घर से निकलने की जरूरत ही क्या है! बाकी काम तो घर के भीतर भी किये जा सकते हैं! लड़कियां इस कमअक्ली (या कहें कि मर्दाना सोच) पर सिर धुन रही हैं. जहां भेड़िये सात परदों में छुपे हों, घर और परिवार में घुसे हों, वहां घर में शौचालय बन जाने से क्या हो जायेगा? साहिबान, शौचालय बनवाइए, देवालय से पहले बनवाइए, पर साफ -सफाई के लिए, सहूलियत के लिए, न कि बलात्कार रोकने के लिए.

सोचिए, कल किसी शौचालय में बलात्कार की वारदात हो जाये, तो क्या बलात्कार का जिम्मेदार शौचालय होगा, और आप लोग सारे शौचालय ढहवा देंगे? बलात्कार रोकना है, तो घर-घर में शौचालय से ज्यादा जरूरी है कि गांव-गांव में पुस्तकालय बनवायें (समाजवादी भैयाजी, जितना खर्च करके आपने लैपटॉप बंटवाया है उतने में यह काम हो जाता). मार्क्‍स, बुद्ध, गांधी, आंबेडकर को पढ़वायें. ताकि दिमाग में जमा मनुस्मृति के कचरे की सफाई हो सके. शौचालय से तो सिर्फ शारीरिक स्वच्छता आयेगी, लेकिन पुस्तकालय दिमाग के लिए शौचालय का काम करेगा. वहां दिमाग में भरा कचरा साफ होगा और रोशनखयाली आयेगी. तसवीर तभी बदलेगी जब आपका समाज और आपके स्कूल-कॉलेज मर्दो को थोड़ा-सा औरत होना सिखा पायेंगे. औरत होने का मतलब उन्हें समझा पायेंगे. तो साहिबान, लड़कियों को अपनी हिफाजत चाहिए, मगर घर में कैद होकर नहीं. बलात्कार के खौफ को उनके पांवों की जंजीर मत बनाइए.

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