डॉ प्रदीप उपाध्याय
साहित्यकार
किसी समय गायक भी दुखी हो जाते थे, जब उनके सुर नहीं सजते थे और वे कह उठते थे- ‘सुर ना सजे क्या गाऊं मैं, सुर के बिना जीवन सूना’ किंतु आजकल सुर सजे न सजे, सुर सधे न सधे, धमाल चौकड़ी तो मचायी ही जा सकती है और गायक इसे दिल पर भी नहीं लेता, क्योंकि वह भी जानता है कि सुननेवाले भी शोर पर झूमने लगेंगे.
वैसे मैं यहां सुर, ताल और लय की बात नहीं कर रहा हूं, क्योंकि सुर सजाने या सुर साधने पर न तो कोई चिंतित होता है और न ही उसे कभी यह लगता है कि सुर के बिना जीवन सूना है. लोग समझदार हो गये हैं. कहां की रियाज और कहां की चिंता. कोई भी क्षेत्र हो सुर साधने से तो ज्यादा अच्छा निशाना साधना है! यह बेसुरा होकर भी किया जा सकता है और इसीलिए हर कोई निशाना साधने में लगा हुआ है.
हर कोई बातों के तीर चलाकर अपने आप को अर्जुन या एकलव्य समझने लगा है, लेकिन भाई गुरु-दक्षिणा की बात नहीं करें तो अच्छा, क्योंकि गुरुवर तो सत्ता से चिपके ही रहते हैं. बात शायद नमक की आ जाती है और वे कहेंगे भी कि जनाब़, मैंने उनका नमक खाया है, इसीलिए एकलव्य आज भी सड़क नापने को मजबूर हैं.
चलिये, इस बात को भी छोड़ें, क्योंकि बात निशाना साधने की करना है. हर कोई निशाने पर है और हर कोई निशाना साध रहा है. यहां तक कि लक्ष्य दुश्वारी भरा है, सामने कठिन चुनौती है, तो मिलकर यानी गठजोड़ के साथ निशाना साध रहे हैं. किसी शायर ने कहा भी है- ‘उलट गया है हर एक सिलसिला निशाने पर, चराग घात में है और हवा निशाने पर.’
हां, तो बात निशाने की हो रही है, तो यह भी हो रहा है कि बातों के तीर चला कर भी निशाना साधा जा रहा है. कुछ स्पष्ट वक्ता होते हैं, तो उनकी बातों के बारे में भी एक शेर है-
‘सबको गोली की तरह लगती है बातें मेरी
इसका मतलब है अच्छा है निशाना मेरा.’
वैसे तो ऐसे भी निशानेबाज हैं, जो अंखियों से गोली मारने का काम करते हैं. लेकिन, अब जो चलन है, उसमें जुब़ान से गोली चलायी जाती है. इस मामले में दो बड़े लोकतंत्र के कर्णधारों से बड़ा निशानेबाज कोई हो सकता है भला. राजनीति के गलियारों में सभी एक-दूसरे पर निशाना साधे बैठे हैं.
स्वयं को साधु घोषित करने और सामने वाले को शैतान सिद्ध करने पर आमादा हैं. लक्ष्य तो 2019 है, लेकिन ये पब्लिक है, सब जानती है. आप किसी को भी निशाने पर ले लो, पब्लिक को जो सोचना है, वही सोचेगी और वही करेगी. फिर भी इन निशानेबाजों के चक्कर में जो गत बन रही है, उसकी बानगी एक शायर के शब्दों में कुछ ऐसी हो सकती है-
‘फलक के तीर का क्या निशाना था,
इधर मेरा घर, उधर उसका आशियाना था,
पहुंच रही थी किनारे पर कश्ती-ए-उम्मीद
उसी वक्त इस तूफान को भी यहां आना था.’