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अस्थिर अनुमानों के बीच राजनीति

।। एमजे अकबर ।।(वरिष्ष्ठ पत्रकार हैं)– 1990 के बाद हम सबसे खुले चुनावी खेल की ओर बढ़ रहे हैं. इस बार सभी पार्टियां मान रही हैं कि कांग्रेस को भारी नुकसान होगा, पर कोई आश्वस्त नहीं है कि इसका फायदा किसे और कितना मिलेगा. ऐसे में पार्टियां अपने सांसदों की संख्या बढ़ाने की कोशिश करेंगी […]

।। एमजे अकबर ।।
(वरिष्ष्ठ पत्रकार हैं)
– 1990 के बाद हम सबसे खुले चुनावी खेल की ओर बढ़ रहे हैं. इस बार सभी पार्टियां मान रही हैं कि कांग्रेस को भारी नुकसान होगा, पर कोई आश्वस्त नहीं है कि इसका फायदा किसे और कितना मिलेगा. ऐसे में पार्टियां अपने सांसदों की संख्या बढ़ाने की कोशिश करेंगी और तब सरकार बनने के समय समझौता करेंगी. वे यह भी जानती हैं कि कोई भी सरकार एक केंद्रबिंदु के बिना स्थिर नहीं हो सकती है. –

राजनीति हमेशा ठोस तथ्यों पर आधारित नहीं होती, क्योंकि अस्थिर हालात में कैसी परिस्थितियां सामने आएंगी, इसे समझना मुश्किल होता है. यह आकलन और उम्मीदों पर निर्भर करता है. भारतीय संसद में राजनीति की वास्तविक जगह वह नहीं है, जहां सांसद कतार में बैठते हैं, जहां कभी-कभी बहसें होती हैं और ज्यादातर हंगामा होता है. इसमें राजनीति का मुख्य केंद्र सेंट्रल हॉल की वह जगह है, जहां का तापमान और मिजाज दोनों ठंढा होता है. यहां कोई गरमागरमी नहीं होती. इसी जगह पर मिलनसारिता की महान भावना सही मायने में काम करती है.

वही सांसद, जो स्पीकर और टीवी कैमरों के सामने एक-दूसरे के खिलाफ चीखते-चिल्लाते हैं, यहां खुशी से मिल कर चाय पीते हैं और पार्टी लाइन से हट कर ईमानदारीपूर्वक कानाफूसी करते हैं. मसलन, यही वह जगह है जहां मुलायम सिंह की पार्टी का कोई सांसद अपने मित्र भाजपा सांसद को यूपी की चुनावी भूमि के झूठ से अवगत करा सकता है. यहां तक कि जब संसद सत्र नहीं चल रहा होता है, तब भी यहां गतिविधियां जारी रहती हैं, संसदीय समितियां अपना काम जारी रखती हैं. इतना ही नहीं, राष्ट्रीय राजधानी में इस कीमत पर इससे अच्छा खाना आपको किसी भी सूरत में कहीं और नहीं मिल सकता है.

फिलहाल चर्चा यह है कि सरकार खाद्य सुरक्षा और भूमि अधिग्रहण बिल को पारित कराने के लिए जुलाई में संसद का विशेष सत्र बुला सकती है. सरकार को उम्मीद है कि इससे कांग्रेस का भाग्य फिर से चमक सकता है. निजी तौर पर कई सांसदों और पार्टियों को खाद्य सुरक्षा बिल पर आपत्ति है, क्योंकि इसे लागू करने के लिए भारत में जरूरी ढांचागत सुविधा नहीं है और आशंका है कि इससे बड़े पैमाने पर बर्बादी और भ्रष्टाचार होगा, जिससे अर्थव्यवस्था पर प्रतिकूल असर पड़ेगा. पर सार्वजनिक तौर पर कोई राजनीतिक दल इस विचार का विरोध नहीं करेगा, इसमें सुधार की मांग की जा सकती है.

असल मुद्दा बिल नहीं बल्कि विशेष सत्र है. आखिर इसकी जरूरत क्यों हैं, जब अगस्त में मॉनसून सत्र होना सुनिश्चित है? इसके पीछे तर्क यह है कि कांग्रेस खाद्य सुरक्षा बिल पारित कराना चाहती है, लेकिन इसके क्रियान्वयन में होनेवाली खामियों के उजागर होने का खतरा नहीं उठा सकती है.

अगर आम चुनाव अगले साल मार्च-अप्रैल महीने में हुए, तो खाद्य सुरक्षा को लेकर मिलनेवाली शिकायतें किसी भी वाहवाही को पीछे छोड़ देगी. ऐसे में बुद्धिमानी भरा सबसे अच्छा विकल्प यही है कि इसे पारित करा लिया जाये और नवंबर-दिसंबर में चुनाव की घोषणा कर दी जाये. यह सत्ताधारी दल की राजनीतिक समझ हो सकती है, लेकिन इससे जाड़े में चुनाव कराना तय नहीं कहा जा सकता.

कांग्रेस में अब भी एक मजबूत धड़ा है, जो पांच साल का कार्यकाल पूरा करने का हिमायती है. उसे लगता है कि पद पर बने रहने तक हर दिन ताकत का प्रयोग किया जा सकता है. हालांकि यह साफ है कि अब सभी दल चुनावी मूड में आ गये हैं और अपनी तैयारी शुरू कर चुके हैं. व्यावहारिक तौर पर छोटी पार्टियां अभी अपने सभी विकल्प खुले रखना चाहती हैं. इसका मतलब यह भी है कि अभी कोई भी विकल्प बंद नहीं हुआ है.

वर्ष 2004 के उलट कांग्रेस के सहयोगियों की संख्या कम हुई है. ममता बनर्जी के सरकार से बाहर जाने के बाद डीएमके भी अलग हो चुका है. मुलायम और मायावती कभी सरकार का हिस्सा रहे ही नहीं. मुलायम अपने भाषणों में कांग्रेस पर जबावी हमले शुरू कर चुके हैं. यह इस आम धारणा को पुख्ता करता है कि यह सरकार जिन सहयोगियों के बूते टिकी है, उनकी भावना समझने में विफल रही है.

अगर दिल्ली में अगले आम चुनाव की संभावना की तरह की कोई दूसरा मुद्दा रोमांच पैदा कर रहा है, तो वह है शरद पवार का रुख. पवार ताश का खेल चेस के नियमों के तहत खेल रहे हैं और चेस का खेल सट्टेबाजी की तरह. ताश के खेल के लक्षणों की तरह ही पवार अपने पत्ते तब तक नहीं खोलेंगे, जब तक सभी चीजें स्पष्ट न हो जाये. तब वे अपने हितों के मुताबिक समझौता करेंगे. उनकी पार्टी एनसीपी की युवा इकाई ने वित्त मंत्री चिदंबरम पर जनकल्याण योजनाओं के खर्च में 25 फीसदी कटौती कर गरीबों का शोषण करने का आरोप लगाया है.

ये बातें सही भी हैं. पर पवार कभी भी घोषणा कर सकते हैं कि कांग्रेस द्वारा लाया जा रहा खाद्य सुरक्षा कानून इन सभी मजरे की दवा है और वे पूंजीवाद से अपने समाजवादी मूल की ओर लौट गये हैं. दरअसल, पवार तभी पाला बदलेंगे जब पूर्ण आश्वस्त हो जायेंगे कि कांग्रेस के साथ गंठबंधन जारी रखने से चुनावों में नुकसान उठाना होगा. वे जल्दबाजी में न तो एनडीए खेमे में शामिल होगे, न ही तीसरे खेमे की ओर जायेंगे.

1990 के बाद हम सबसे खुले चुनावी खेल की ओर बढ़ रहे हैं. इस बार सभी पार्टियां तय मान रही हैं कि कांग्रेस को भारी नुकसान होगा, पर कोई इस बात को लेकर आश्वस्त नहीं है कि इसका फायदा किसे और कितना मिलेगा. ऐसे में पार्टियां अपने सांसदों की संख्या बढ़ाने की कोशिश करेंगी और तब सरकार बनने के समय समझौता करेंगी. वे यह भी जानती हैं कि कोई भी सरकार एक केंद्रबिंदु के बिना स्थिर नहीं हो सकती है. ऐसे में सेंट्रल हॉल ठंडा ही नहीं, मनोरंजक भी बना रहेगा.

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