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मृत्यु का विकराल मुंह खुला देख कर भी कोई समाज उसमें समाने के लिए आगे बढ़ता रहे, तो इसे आत्महत्या की सामुदायिक मनोग्रंथि की ही संज्ञा दी जायेगी. देश की राजधानी दिल्ली के साथ कुछ ऐसा ही है! विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) ने दुनिया के 91 देशों के 1600 शहरों की हवा के परीक्षण के […]

मृत्यु का विकराल मुंह खुला देख कर भी कोई समाज उसमें समाने के लिए आगे बढ़ता रहे, तो इसे आत्महत्या की सामुदायिक मनोग्रंथि की ही संज्ञा दी जायेगी. देश की राजधानी दिल्ली के साथ कुछ ऐसा ही है! विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) ने दुनिया के 91 देशों के 1600 शहरों की हवा के परीक्षण के बाद दिल्ली को सर्वाधिक प्रदूषित शहर बताया है.

अगर इस तथ्य पर गौर करें कि 2012 में अकेले वायु-प्रदूषण के कारण दुनियाभर में 70 लाख लोगों ने जान गंवायी, तो दिल्ली की सवा करोड़ आबादी की आसन्न नियति का अंदाजा लगाया जा सकता है. बात सिर्फ दिल्ली तक सीमित नहीं है. रिपोर्ट के मुताबिक दुनिया के 20 सर्वाधिक वायु-प्रदूषित शहरों में से 13 भारत के हैं और दिल्ली के बाद सर्वाधिक वायु-प्रदूषणवाला दूसरा शहर पटना है. तीसरे और चौथे नंबर पर ग्वालियर व रायपुर हैं.

डब्ल्यूएचओ इस निष्कर्ष पर मूल्यांकन में मनमानी करके नहीं पहुंचा है, कि उस पर विकासशील दक्षिण एशियाई शहरों की छवि को धूमिल करने का आरोप मढ़ा जाये. सर्वेक्षण के लिए वांछित जानकारी शहरों ने ही प्रदान की थी. आम चुनाव के बीच जारी हुई यह रिपोर्ट देश में विकास के सरकारी दावों की पोल खोलती है. विकास के बूते देश की तकदीर बदलने का दावा करनेवाली पार्टियों के मेनिफेस्टो पर्यावरण और प्रदूषण के सवाल पर आश्चर्यजनक ढंग से मौन हैं. दुनिया के सर्वाधिक वायु प्रदूषित शहरों की सूची में पहले चार स्थानों पर भारतीय शहरों का होना प्रमाण है कि शहरीकरण के नाम पर विश्वस्तरीय सुविधाओं के सपने दिखानेवाली विकास नीतियां पर्यावरण की संरक्षा के भाव से कोसों दूर हैं.

इस मामले में पहले के प्रयासों पर भी पानी फिरा है. मिसाल के लिए, दिल्ली में सार्वजनिक परिवहन के लिए सीएनजी की शुरुआत 2001 में इस चिंता के मद्देनजर हुई थी कि डीजल-पेट्रोल के बढ़ते इस्तेमाल के कारण हवा जहरीली हो रही है. कई रिपोर्टो ने चेताया कि 2008 आते-आते दिल्ली की हवा फिर से सांस लेने योग्य नहीं रह गयी, पर कुछ करने की बजाय सरकार ‘स्वच्छ दिल्ली-हरित दिल्ली’ के बोर्ड टंगवाती रही. डब्ल्यूएचओ की रिपोर्ट के मद्देनजर एक बार फिर शहरी-नियोजन के तौर-तरीके और तीव्रतर विकास के मॉडल पर पुनर्विचार का वक्त आया है.

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