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अज्ञान पकड़ने की कला

मनोज श्रीवास्तव टिप्पणीकार जनता को देखो तो लगता है, उसने इतिहास पढ़ा ही नहीं! बाबाओं को देखो तो लगता है, इन्होंने धर्मग्रंथ पढ़े ही नहीं! पर नेताओं को देखो तो लगता है कि उन्हें जनता और बाबाओं का यह सत्य पता है. अब क्या महत्व बचा पढ़ने का? पढ़ना-लिखना कुछ काम नहीं आना, बल्कि दूसरों […]

मनोज श्रीवास्तव
टिप्पणीकार
जनता को देखो तो लगता है, उसने इतिहास पढ़ा ही नहीं! बाबाओं को देखो तो लगता है, इन्होंने धर्मग्रंथ पढ़े ही नहीं! पर नेताओं को देखो तो लगता है कि उन्हें जनता और बाबाओं का यह सत्य पता है. अब क्या महत्व बचा पढ़ने का? पढ़ना-लिखना कुछ काम नहीं आना, बल्कि दूसरों की कमजोरी पढ़ने का हुनर ही काम आना है. यह नया ज्ञान फैलाते नये-नये पुरोधा पूज्यनीय हो गये हैं.
प्राचीन समय से ज्ञान अर्जन की महत्ता के बड़े बखान मिलते हैं, पर उस अर्जन में बहुत भेदभाव थे. उस वक्त ज्ञान की उपलब्धि सीमित हाथों में चिन्हित थी. एक बड़े तबके को ज्ञान के मामले में अयोग्यता का परमानेंट पट्टा पहना दिया गया था. आजादी ने अद्भुत उपहारों के साथ ज्ञान का नया मार्ग खोला, जिसने साक्षरता के तथाकथित वहम को ढहाकर सबके लिए राह खोल दी. इसमें ज्यादा कुछ नहीं करना, बस दूसरों की कमतरी का ज्ञान अर्जित करना है.
चारों दिशा काल में कारगर यह ज्ञान भारतीय सनातन परंपरा में ढका-छुपा पड़ा था, जिसे हमारे संभ्रांत वर्ग ने अपने पुरुषार्थ से पुनः खोज निकाला. बहुसंख्य वर्ग उनके इस योगदान के लिए आनेवाले समय तक अहसानमंद बना रहेगा.
पहले समय के संत हमेशा उच्चतर चेतना में लीन रहते थे. उनके पास फिजूल की बातों के लिए समय ही नहीं था. इसी चेतना के बल पर वे राजकीय दुविधाओं के लिए चुटकी में समाधान पेश कर देते थे. लेकिन, आज के संत व्यापार संभालें या विपश्यना? उन्हें बाल काले करने से फुर्सत मिले, तो दुनिया के लिए सोचें.
पखवाड़ा बीतता है और जड़ों से झलकती सफेदी संतों को पुनः चिंता में धकेल देती है. सफेदी है कि साधना सफल नहीं होने दे रही. यज्ञ में व्यवधान डालते राक्षस की तरह व्यापार योग के पीछे सफेदी उग आती है, तो साधना में खलल डालने मेनका की तरह आंखों के सामने सफेदी नाचने लगती है.
आधे संत प्रजा के दुख की जगह अपने बालों की बढ़ती सफेदी से दुबले हो रहे हैं और नादान जनता को लगता है उनकी फिक्र में बाबा कृशकाय हुए जाते हैं. जनता है कि बिना सौंपे हर समस्या को शिरोधार्य करने में माहिर है. उसकी इसी कमजोरी को बाबा-नेता बखूबी जानते है. यही हुनर है और फिलवक्त सफल होने के लिए इसी की दरकार है.
ऐसे माहौल में नाक वालों का जीना मुहाल है. नाक का होना मुसीबत बन गया है. नाक घुसायी कि लानत मिली. चंहु ओर इतनी खामियां हैं कि नाक वाला चाहकर भी अपनी नाक को घुसने से नहीं रोक पाता. नाक की अपनी आदत है, वह घुसेगी और घुसेगी तो बवाल काटेगी या कटेगी. नाक के साथ कटने का भय आदि काल से है. नाक की यही कमतरी पकड़ने की काबलियत जिसके पास होती है, वह बिना नाक के भी अपनी नाक ऊंची रख सकता है और नाकवालों को नाकों चने चबवा सकता है. इसलिए आपको निर्णय करना है- ज्ञानी बनना है या कमतरी पकड़ने में माहिर होना है?

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