पुष्पेश पंत
जिस तरह बारिश के मौसम में पकौड़ियां खाने का मन करने लगता है, वैसे ही जाड़ों में गरमा-गरम समोसे चाय के प्याले या गिलास के साथ मिल जाये, तो कहना ही क्या!
जो लोग समोसे को भारत की मिट्टी की संतान समझते हैं, वे इस जानकारी से बेखबर हैं कि भारत में इसका आगमन ऐतिहासिक रेशम राजमार्ग के जरिये सदियों पहले मध्य एशिया से बरास्ता तेहरान हुआ था. आज भी कजाकिस्तान, उज्बेकिस्तान और ईरान में सम्बोसा नामक पकवान दस्तरखान पर दिखलायी देता है. हां, यह बात दिगर है कि कहीं यह तलकर, तो कहीं सेककर या भपोरे से पकाया जाता है. जाहिर है कि मांसाहारी इलाके में इसके भीतर भरी जानेवाली सामग्री आलू-मटर नहीं, बल्कि मांस का कीमा ही होती है.
खानपान के इतिहासकारों का मानना है कि ईरान में जो नफीस समोसा बनाया जाता रहा है, वह चिलगोजे और मुर्ग के कीमे से भरा जाता था, जिसकी बाहरी परत बहुत पतली होती थी. इब्नबतूता अपने यात्रा वृत्तांत में जिस सम्बोसक का जिक्र करता है, उसे सुल्तान मुहम्मद तुगलक ने अपने शाही दस्तरखान में जगह दी थी और आईने अकबरी के बखान के अनुसार, मुगले आजम अकबर को भी यह बहुत पसंद था. हैदराबाद में जो नाजुक सी लुक्मी नजर आती है, वह संभवतः मध्य एशियाई-ईरानी समोसे के मूलरूप के सबसे निकट है.
भारत में अनेक तरह के समोसे देखने और खाने को मिलते हैं, बंगाल में इन्हें सिंघाड़ा नाम दिया गया और भले ही इनके भीतर आलू ही भरे गये हों, लेकिन उन्हें उबालकर मसलकर नहीं, बल्कि बारीक काटकर कड़ाही में छौंकने के बाद तला जाता है. पंजाबी शरणार्थियों ने दिल्ली में इस समोसे का कायाकल्प कर डाला. उन्हीं के प्रभाव में गैर-पंजाबी हलवाई भी पनीर और काजू-किशमिश से आलू वाली पीट्ठी को अधिक समृद्ध बनाने की कोशिश में जुटे रहते हैं. शाम को जो लोग रस-रंजन के आदि हैं, वे छोटे-छोटे ऐसे कॉकटेल समोसे बनवाने लगे हैं, जिनको एक ही लुकमे में निपटाया जा सके. कुछ जगह कीमे और अंडे के समोसे भी बनाये जाते हैं और इन्हें स्थानीय खास सौगात के रूप में मेहमानों को खिलाया जाता है.
इलाहाबाद में लोकनाथ वाले हरी के समोसे अंतरराष्ट्रीय ख्याति प्राप्त है, इनकी पीट्ठी इतनी अच्छी तरह भूंजी जाती है कि पानी या नमी लेशमात्र नहीं बचती और यह समोसे कई हफ्तों तक टिकाऊ रहते हैं. कई जगह मावा भरकर मीठे समोसे भी बनाये जाते हैं, जो कुछ-कुछ लवंगलतिका वाला मजा देते हैं.
कुछ समय पहले तक समोसे घर पर भी बनाये जाते थे, पर अब लगभग हर कोई इन्हें पास-पड़ोस की हलवाई की दुकान से खरीदकर लाता है. नयी पीढ़ी के हिंदुस्तानियों को तो इसकी भी परख नहीं रही कि समोसे की गुणवत्ता मापने की कसौटी क्या है? धीमी आंच पर सिके समोसों का बाहर वाला आवरण मोटा नहीं, महीन ही होना चाहिए और यदि इसमें आजवाईन छींटी गयी हो, तो कहना ही क्या. भीतर भरी जानेवाली पीट्ठी में मसाला बहुत तेज नहीं होना चाहिए, तभी समोसे के साथ परोसी जाने वाली हरी और खट्टी-मिट्ठी सौंठ वाली चटनियां इसके साथ जुगलबंदी साधती हैं.
आजकल जो लोग अपनी सेहत के बारे में कुछ ज्यादा ही फिक्रमंद रहते हैं, वे तले समोसों से परहेज करते हैं और इनकी जगह केक की तरह बेक किये हुए समोसों की मांग करते हैं. वे यह भरम भी पालते हैं कि देसी तले हुए समोसों की तुलना में बेकरी की पैटी बेहतर है, जिन्हें कुछ लोग जापानी समोसे का नाम देते हैं. वे यह भूल जाते हैं कि इन्हें पकाने के पहले मैदे की परतों में किस कदर चिकनाई भरी जाती है. इन्हें समोसे का नाम देना समोसे के साथ बड़ा अन्याय है!
रोचक तथ्य
ईरान में नफीस समोसे को चिलगोजे और मुर्ग के कीमे से भरा जाता था, जिसकी बाहरी परत बहुत पतली होती थी.
इब्नबतूता जिस सम्बोसक का जिक्र करता है, उसे सुल्तान मुहम्मद तुगलक ने अपने शाही दस्तरखान में जगह दी थी.
इलाहाबाद में लोकनाथ वाले हरी के समोसे अंतरराष्ट्रीय ख्याति प्राप्त हैं, और इनके समोसे कई हफ्तों तक टिकाऊ रहते हैं.
कुछ जगह कीमे और अंडे के समोसे भी बनाये जाते हैं और इन्हें खास सौगात के रूप में मेहमानों को परोसा जाता है.