भारत उत्सवों का देश है. यहां विभिन्न संस्कृतियों के लोग ऋतुओं के अनुसार अलग-अलग उत्सव मनाते हैं. इन्हीं उत्सवों की श्रृंखला में अपने देश में एक पंचवार्षिकी चुनाव का महोत्सव भी आता है. भारत को दुनिया का सबसे बड़ा लोकतांत्रिक देश माना जाता है. इस बार के चुनावों में 81 करोड़ 40 लाख मतदाता अपने भाग्य का विधाता चुनने में लगे हैं.
किसी के पक्ष में अपने मत के गुप्तदान के द्वारा मतदाता किसी औपचारिकता का निर्वाह मात्र नहीं करते, बल्कि अपनी सारी आशाओं, आकांक्षाओं और देश के विकास के प्रति अपने आत्मविश्वास को भी बिना किसी ढोल-नगाड़े की आवाज की सहायता से प्रकट करते हैं. इस महोत्सव की विशेषता यह है कि चुनाव से 48 घंटे पहले ही वे सारे शोर थम जाते हैं जो चुनाव से पहले प्रचार के दौरान विभिन्न दलों और दलीय/निर्दलीय प्रत्याशियों द्वारा आयोजित रैलियों, रोड शो, प्रदर्शनों, सभाओं, परचे-पोस्टरों एवं प्रचार माध्यमों के सहारे वातावरण को वर्षाकालीन आकाश की तरह गजर्नाओं के साथ ऊज्र्वसित बनाते हैं.
उन्हीं 48 घंटों में वैचारिक स्थिरता अथवा संकल्प की दृढ़ता का वह पवित्र मुहूर्त भी आता है जिससे हर नागरिक मतदाता अपने कर्तव्य का निर्धारण करता है. अपने देश-समाज के लिए प्रत्येक मतदाता अपने कर्तव्य का निर्वहन उसी प्रकार करता है, जैसे इस सृष्टि को संचालित करने का कार्य ईश्वर करता है. यही वह कारण है कि जनता को जनार्दन कहा जाता है.
जिस तरह ईश्वर बिना पांव के चलता है, बिना कान के सुनता है, बिना कुछ किये भी सब काम करता है, प्रत्येक प्राणी के अंत:करण में आत्मा के रूप में विराजित रह कर मनुष्य के सभी कार्यो का साक्षी बना रहता है, उसी प्रकार इस चुनाव में भी प्रत्येक मतदाता अपने कर्तव्य का गुप्त रूप से निर्वाह करता है. हमारा मताधिकार अपने देश के लिए किये जानेवाले नागरिक कर्तव्यों की एकमात्र कुंजी है. इस अधिकार को पाने के लिए लोग बेचैन रहते हैं, लेकिन जब उस अधिकार के प्रयोग करने की बात आती है तो वे पीछे क्यों हट जाते हैं?
बी. झा, रांची