भारतीय लोकतंत्र के घोषित आधार-वाक्यों में एक यह भी है कि पूरी शासन-व्यवस्था को समतामूलक बनाया जायेगा. यानी किसी व्यक्ति अथवा समूह के लिए भारतीय लोकतंत्र में प्रतिस्पर्धा के समान अवसर उपलब्ध होंगे. हालांकि ऐसा समान अवसर कायम करना भारत जैसे असमानता भरे समाज में एक टेढ़ी खीर है.
यहां धर्म, लिंग, जाति, क्षेत्र, भाषा आदि के भेद से प्रतिस्पर्धी समूहों के बीच ऐसी गैर-बराबरी कायम है, कि किसी चीज को पाने की विधि-सम्मत होड़ में कोई बहुत आगे है, कोई बहुत पीछे. इसलिए सामाजिक न्याय के तर्क से सरकारी नौकरियों में कोटा की व्यवस्था की गयी. यही बात राजनीति में भागीदारी पर लागू होती है. सफल चुनावी राजनीति की एक जरूरी शर्त है अपने संदेश को प्रभावी ढंग से मतदाताओं तक ले जाना. सत्ताधारी पार्टियां जनता तक अपना राजनीतिक संदेश पहुंचाने में शेष प्रतिस्पर्धी पार्टियों से कोसों आगे होती हैं.
अपनी योजनाओं के प्रचार पर वे करोड़ों खर्च करती हैं. बीते समय में ‘इंडिया शाइनिंग’ और अब ‘भारत-नवनिर्माण’ शीर्षक से प्रचारित संदेश इसकी मिसाल हैं. शेष पार्टियों के पास ऐसी सहूलियत नहीं होती. उन्हें जनता तक संदेश पहुंचाने के लिए बहसों या जनसंपर्क अभियान के भरोसे रहना होता है. ऐसा अभियान भी धन की मांग करता है, जिसे लिए वे चंदे पर निर्भर होते हैं. राजनीतिक पार्टियों की संवाद-क्षमता में गैर-बराबरी पैदा करनेवाली इस स्थिति को सुप्रीम कोर्ट ने संविधान के अनुच्छेद 14 का उल्लंघन करार देते हुए एक समिति बनाने का फैसला लिया है.
यह समिति दिशा-निर्देश बनायेगी, ताकि कोई सत्ताधारी पार्टी राजनीतिक लाभ के मकसद से योजनाओं के विज्ञापन में सरकारी खजाने का दुरुपयोग न कर सके. यह स्वागत योग्य कदम है, हालांकि 2014 के आम चुनाव के लिहाज से इसमें बहुत देरी हो चुकी है. इस मामले से जुड़ी जनहित याचिका दस साल पहले आयी थी. तब की तुलना में अब मीडिया और राजनीतिक संवाद का परिदृश्य काफी बदल गया है. प्रचार के नये-नये माध्यम सामने आये हैं. साथ ही पार्टियां अब योजनाओं से ज्यादा व्यक्तित्व के प्रचार पर खर्च कर रही हैं. ऐसे में देखनेवाली बात होगी कि सुप्रीम कोर्ट की समिति प्रचार के बदले तौर-तरीकों को भी अपने संज्ञान में लेती है या नहीं.