हम और हमारे जैसे ढेर सारे लोग सुबह-सवेरे से ही पानी पी-पी कर ‘सड़ी व्यवस्था’ को कोसना शुरू कर देते हैं. आंखें खुलते ही जिंदगी की जंग शुरू हो जाती है. कहीं नल है तो पानी नहीं पानी है और कहीं खंभे हैं तो बिजली नहीं. सड़कों पर मोरचे, रास्ते मे ट्रैफिक की अफरा-तफरी. भीड़ से लड़ते मासूम स्कूली बच्चों की वापसी की फिक्र हर मां-बाप की नींद उड़ा देती है. घर के सामने कचरा, नुक्कड़ पर कचरा, बस कचरा ही कचरा हर जगह. सरकारी ऑफिस से लेकर निजी शिक्षण संस्थान तक, हर जगह दलालों का बोलबाला है. यह सब हमारे सिस्टम का ही हिस्सा है, जिनका सामना हमें हर रोज करना पड़ता है.
रेल यात्रा में लुटेरों का भय है तो पैदल चलने वालों को उचक्कों का डर सताता है. कहीं दबंगों का डर तो कहीं पुलिस-कोतवाली का खौफ. यह हमारा सिस्टम ही तो है जो हमें डराता है. किससे शिकायत करें? किसने हमारी पगडंडियों को डरावना बना दिया है? सस्ते गल्ले की दुकान से किरासन गायब हो जाती है तो खुले बाजारों से कुछ और. कौन है जो झोपड़ों से रोशनी चुरा रहा है? किसने हमारे सिस्टम में जहर घोल रखा है?
एक बार रुक कर सोचें तो सही! इस सड़ी-गली व्यवस्था में हमारी कोई भागीदारी तो नहीं! कहीं हम ने ही तो इसमें जहर नहीं घोला है!
सच मानें, यह हमारी परछाई है जिससे हम खुद डरने लगे हैं. अपने ही बनाये सिस्टम से हम खौफजदा हैं. तो फिर यह सिस्टम बदलता क्यों नहीं? क्योंकि हम इसे बदलना नहीं चाहते. क्योंकि खुद ‘हम’ नहीं बदलना चाहते. बदलाव के लिए अपनी ही नीयत, नीति और नजरिये को बदलना होगा. आखिर यह सिस्टम हमसे है, हम सिस्टम से नहीं.
एमके मिश्र, रांची