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गैरजरूरी जोखिम में डालता कृत्रिम उछाल

वर्ष 1991-92 के दौरान भी शेयर बाजार में असाधारण उछाल आये थे, पर बाद में यह पता चला कि ऐसा बैंकों से संबद्ध कुछ अनियमितताओं और धोखाधड़ीपूर्ण लेन-देन की वजह से हुआ था. पर संसद में इस बारे में उठाये गये कई सवालों के जवाब में तत्कालीन वित्त मंत्री मनमोहन सिंह ने जो कुछ कहा […]

वर्ष 1991-92 के दौरान भी शेयर बाजार में असाधारण उछाल आये थे, पर बाद में यह पता चला कि ऐसा बैंकों से संबद्ध कुछ अनियमितताओं और धोखाधड़ीपूर्ण लेन-देन की वजह से हुआ था. पर संसद में इस बारे में उठाये गये कई सवालों के जवाब में तत्कालीन वित्त मंत्री मनमोहन सिंह ने जो कुछ कहा था, वह शेयर बाजार एवं देश की आर्थिक स्थिति के संबंधों पर जरूरत से ज्यादा जोर देने की ओर संकेत करता है. तब उन्होंने कहा था, ‘शेयरों में उछाल की प्रवृत्ति उदारीकरण की हालिया नीति समेत बाजारू कारकों से आयी है, पर इसका अर्थ यह नहीं है कि शेयर बाजार में आज के उछाल और कल की गिरावट से मैं रातों की अपनी नींद खराब करूं.’ मगर यह टिप्पणी तब के ‘अर्थशास्त्री मनमोहन’ की थी, बाद के ‘सियासी मनमोहन’ की नहीं. बाद में उन्होंने शेयर बाजार पर ऐसी टिप्पणी फिर कभी नहीं की.

लेकिन वर्तमान में जब इस बाजार ने 32,000 के स्तर को पार कर वहां कुछ दिनों का पड़ाव भी डाल दिया, तो मनमोहन की वह टिप्पणी अहमियत हासिल कर लेती है. प्रश्न यह उठता है कि शेयर बाजार की इस ऊंची उड़ान का कोई आर्थिक आधार है भी या नहीं. मोटे तौर पर देखा जाये, तो सेंसेक्स सर्वोत्तम प्रदर्शन करनेवाली 30 कंपनियों पर ही गौर करता है, जबकि बॉम्बे स्टॉक एक्सचेंज (बीएसइ) में 6,000 से ज्यादा कंपनियां सूचीबद्ध हैं. इन 30 सर्वोत्तम कंपनियों की सूची भी उनके वित्तीय प्रदर्शन के आधार पर परिवर्तित हो सकती है तथा सेकेंडरी मार्केट में उनके शेयरों की कीमतें ही सेंसेक्स की चाल तय किया करती हैं. सेकेंडरी मार्केट में इन शेयरों के मूल्य प्रति पल गुजरते वक्त में उनकी कीमतें तलाशनेवाले अथवा यों कह लें कि चालू वक्त में कॉरपोरेट क्षेत्र का वास्तविक मूल्य बतानेवाले तंत्र को ही प्रतिबिंबित करते हैं.

हालांकि पिछले एक-दो महीनों के दौरान न तो इस क्षेत्र की लाभदायिकता में और न ही उसके उत्पादन प्रदर्शन में कोई जोरदार उछाल आ सका है. इसके विपरीत, सच्चाई यह है कि विभिन्न स्रोतों द्वारा किये जानेवाले जीडीपी के हालिया त्रैमासिक अनुमानों ने उसमें किंचित गिरावट ही दिखाई है. अन्य मानक आर्थिक सूचकों ने भी हाल में कोई भी बड़ा बदलाव प्रदर्शित नहीं किया है. पर शेयरों की चाल पर नजर रखनेवालों ने बताया कि उसके उछाह के पीछे खुदरा मुद्रास्फीति आंकड़ों में जून में आयी तेज गिरावट के साथ ही अमेरिका द्वारा वहां के कमजोर आर्थिक आंकड़ों के चलते अपनी ब्याज दरों में कोई बदलाव न किये जाने से उपजा खुशनुमा अहसास है.

मगर क्या यह अहसास सिर्फ एक खुशफहमी ही है? यदि कुछ अन्य विशेषज्ञों के बयानों पर यकीन किया जाये, तो यह वस्तुतः वही है. वे यह बताते हैं कि शेयर बाजार में एक बुलबुले जैसे हालात बन रहे हैं. ऐसी स्थिति बनने पर उसके आकलन के लिए शेयरों का मूल्य-अर्जन अनुपात (पी-इ रेशियो) एक मानक सूचक हुआ करता है. सादे शब्दों में कहा जाये, तो ‘पी-इ रेशियो’ किसी कंपनी के एक अकेले शेयर की कीमत को उस एक शेयर द्वारा पैदा मुनाफे से भाग देने पर हासिल होता है. सेंसेक्स का वर्तमान पी-इ रेशियो 23.92 है, जो 2008 के वित्तीय संकट के समय उसके 27.31 और साल 2000 के तत्कालीन बुलबुले की चोटी पर पहुंचे 29.84 के स्तर के निकट तक पहुंचा प्रतीत होता है. इसलिए शेयरों की कीमतों में आयी इस तेजी को ‘अतिरंजित’ बताने का कुछ ठोस आधार मौजूद है.

भारतीय शेयर बाजार का पूंजीकरण अभी दो लाख करोड़ डॉलर का है, जो कनाडा तथा जर्मनी के पूंजीकरण स्तर को छूता-सा तो जरूर लगता है पर, भारतीय कॉरपोरेट क्षेत्र अथवा यहां की सामाजिक समृद्धि का स्तर भी क्या इन दो देशों के निकट है? वर्ष 2016 की आइएमएफ रिपोर्ट के मुताबिक एक औसत कनाडा तथा जर्मनीवासी की आय प्रति वर्ष क्रमशः 42,210 डॉलर एवं 41,902 डॉलर है, जबकि एक औसत भारतीय सिर्फ 1,723 डॉलर ही अर्जित कर पाता है. अब तो शेयर बाजार की मामूली जानकारी रखनेवाले भी इतना जानते हैं कि भारत में इस बाजार की चाल समुद्रपारीय शेयर समूहों (पोर्टफोलियो) की पूंजी से निर्धारित होती है.

मामूली लब्जों में इन्हें विदेशी संस्थागत निवेशक (एफआइआइ) कहते हैं, जिन्होंने इस वर्ष अब तक तकरीबन दो अरब डॉलर मूल्य के शेयर बेच डाले हैं. चालू वित्तीय वर्ष के अब तक गुजरे लगभग साढ़े तीन महीनों में ही इन्होंने इतना बेच दिया, जितना बीते वित्तीय वर्ष की कुल अवधि के दौरान बेचा था. इस तरह वे अपने शेयरों को कुछ असामान्य ढंग से हटा रहे हैं, जो एक शुभ संकेत तो नहीं ही है.

विदेशी संस्थागत निवेशकों की इस बिकवाली को घरेलू संस्थागत निवेशकों (डीआइआइ) ने अपनी लिवाली में बदल डाला. इनमें भारतीय जीवन बीमा निगम (एलआइसी) का हिस्सा प्रमुख रहा, जो एक अर्द्ध सरकारी विशाल बीमा कंपनी है. यही वजह है कि कीमतों की इस तेजी को जो लोग शेयर बाजार में ‘सरकारी हस्तक्षेप’ की संज्ञा दे रहे है, वे संपूर्णतः सही हैं. एलआइसी एक दैत्याकार कंपनी है, जिसे वर्तमान में इस लिवाली की चोट भले ही महसूस न हो, फिर भी उसने असंख्य आमजनों के पैसे शेयर बाजार की गैरजरूरी जोखिम में तो डाल ही दिये. और यह सब करने का मकसद सिर्फ शेयर बाजार की तथाकथित ‘भावना’ का तुष्टीकरण है.

यदि अर्थशास्त्र का दर्शन यह बताता है कि सरकार को बाजार के तंत्र में दखल देने से दूर रहना चाहिए, तो फिर उसे शेयर बाजार में कोई दखलंदाजी करनी ही क्यों चाहिए? शेयर बाजार के उतार-चढ़ाव एवं उसमें बुलबुले बनने की संभावनाओं को तार्किकता का अंजाम देने और उसे न्यूनतम करने के उद्देश्य से यह सब करने की बजाय उसे करना तो यह था कि वह शेयरों तथा प्रतिभूतियों के लेनदेन पर लगनेवाले पूंजी लाभ कर की दर बढ़ा कर अटकल आधारित एक दिवसीय लेनदेन की गतिविधियों पर काबू पाने की कोशिश करती जो अंततः शेयर मूल्यों में अतिरंजित उछालों में बदल जाती हैं.

(अनुवाद: विजय नंदन)

अभिजीत मुखोपाध्याय

अर्थशास्त्री

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