।। परवेज आलम।।
(प्रभात खबर, भागलपुर)
मेरा शायर दोस्त फिर कन्फ्यूजन का शिकार है़ कल शाम चायखाने में मिला तो उखड़ा-उखड़ा था़ मुझे लगा कि शायद गजल पूरी नहीं हो पा रही होगी़ पर बात कुछ और निकली़ कहने लगा- मियां चुनाव ने नाक में दम कर रखा है. मैंने कहा- काहे टेंशन ले रहे हो. अमां, फिलहाल तो तुम शायरी करो. अभी तो सारे उम्मीदवारों के नाम की घोषणा भी नहीं हुई है़ जब वक्त आयेगा तो वोट डाल देना़ हां, वोट डालना जरूर.
यह सुनते ही दोस्त राशन-पानी लेकर मुझ पर चढ़ दौड़ा- इसी वोट डालने की ताकीद ने तो नाक में दम कर रखा है़ जिसे देखो मुंह उठाये कहने चला आ रहा है कि वोट जरूर डालियेगा़ पर इसमें गलत क्या है? अच्छा, क्या होगा वोट डाल कर? लोकतंत्र मजबूत होगा. एक जिम्मेदार नागरिक की भूमिका निभाते हुए मैंने रटा-रटाया सा जवाब दिया़ खाक मजबूत होगा, दोस्त चिढ़ कर बोला़. पिछले 25-30 सालों से वोट ही तो डाल रहा हूं.
लोकतंत्र कितना मजबूत हुआ, यह तो पता नहीं, पर इतना जरूर कह सकता हूं कि वोट डालनेवाली अवाम की ऐसी की तैसी जरूर होती जा रही है. खैर वोट तो मैं डालूंगा ही़ पेच इस बात में फंसा है कि वोट किसे दूं. सारा कन्फ्यूजन इसी बात को लेकर है. ऐसा क्यों? मैंने पूछा तो दोस्त ने पहले तो पच्च से पान की पीक फेंकी, फिर दार्शनिक मुद्रा में मुझे घूरते हुए सवाल दाग दिया- वोट पार्टी देख कर दूं या फिर उम्मीदवार की काबिलीयत पर. तुम कहोगे कि जो सबसे बेहतर उम्मीदवार हो उसे वोट करूं.
यही रेडीमेड जवाब हर कोई देता है़ यही जवाब मेरे उलझावे का सबब है. वह कैसे? मैंने पूछ ही लिया. बिल्कुल सामने की बात है़ अव्वल तो ये कि काबिल उम्मीदवार मिलना दशरथ मांझी के पहाड़ खोद कर सड़क बनाने से भी मुश्किल काम है और अगर मान भी लिया जाये कि वाकई कुछ ऐसे उम्मीदवार निकल भी आयें तो वे अलग-अलग दलों के होंग़े एक क्षेत्र में किसी दल का तो दूसरे में किसी और दल का़ अगर पूरा देश ऐसे ही लोगों को जिता देती है तो भाई साहब एक बात तो तय है कि सरकार किसी एक दल की बनने से रही़ ऐसी हालत में तुम जैसे अखबार वाले और खबरिया चैनलों के एंकर-वैंकर यही कहते फिरेंगे कि खंडित जनादेश है़ अस्थिर सरकार देशहित में नहीं है़ सारा ठीकरा मतदाताओं के सिर फोड़ा जायेगा. दूसरा पैमाना पार्टी और विचारधारा देख कर वोट करने का हो सकता है़ इसमें एक मुश्किल ये है कि पार्टियां तो हैं, पर विचारधाराएं कहीं सड़क पर पड़ी कराह रही हैं.
इस से पहले कि मैं कुछ सफाई देता, मेरा दोस्त यह कहता हुआ चल दिया कि भईया, मतदाताओं के पीछे हाथ धो कर पड़ने से बेहतर होगा कि इन सियासी पार्टियों को समझाओ कि वे बेहतर उम्मीदवारों को मैदान में उतारें. दागियों-बागियों से हमें निजात दिलवायें. अमां 125 करोड़ के मुल्क में 543 ऐसे उम्मीदवार नहीं मिल पायेंगे क्या?