नयी दिल्ली: आगामी लोकसभा चुनावों के बाद एक स्थिर सरकार की वकालत करते हुए राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी ने आगाह किया कि मनमौजी अवसरवादियों पर निर्भर खंडित सरकार भारत के लिए विनाशकारी होगी.
65वें गणतंत्र दिवस की पूर्वसंध्या पर राष्ट्र के नाम संदेश में मुखर्जी ने कहा, ‘‘मैं निराशावादी नहीं हूं क्योंकि मैं जानता हूं कि लोकतंत्र में खुद में सुधार करने की विलक्षण योग्यता है. यह ऐसा चिकित्सक है जो खुद के घावों को भर सकता है और पिछले कुछ वषों की खंडित तथा विवादास्पद राजनीति के बाद 2014 को घावों के भरने का वर्ष होना चाहिए.
मुखर्जी ने कहा कि वर्ष 2014 भारत के इतिहास में एक चुनौतीपूर्ण क्षण है. हमें राष्ट्रीय उद्देश्य तथा देशभक्ति के उस जज्बे को फिर से जगाने की जरुरत है जो देश को अवनति से उपर उठाकर उसे वापस समृद्धि के मार्ग पर ले जाए.
मुखर्जी ने आगाह किया, ‘‘यदि भारत को स्थिर सरकार नहीं मिलती तो यह मौका नहीं आ पाएगा. इस वर्ष हम अपनी लोकसभा के 16वें आम चुनाव को देखेंगे. ऐसी खंडित सरकार जो मनमौजी अवसरवादियों पर निर्भर हो, सदैव एक अप्रिय घटना होती है. यदि 2014 में ऐसा हुआ तो यह विनाशकारी हो सकता है. हममें से हरेक मतदाता है, हममें से हरेक पर भारी जिम्मेदारी है. हम भारत को निराश नहीं कर सकते. अब समय आ गया है कि हम आत्ममंथन करें और काम पर लगें.’’ राष्ट्रपति ने कहा कि भारत केवल एक भौगोलिक क्षेत्र ही नहीं है बल्कि यह विचारों का, दर्शन का, प्रज्ञा का, औद्योगिक प्रतिभा का, शिल्प का, नवान्मेषण का तथा अनुभव का भी इतिहास है. भारत के भाग्योदय को कभी आपदा ने धोखा दिया है तो कभी हमारी अपनी आत्मतुष्टि तथा कमजोरी ने भी. नियति ने हमें एक बार फिर से वह प्राप्त करने का अवसर दिया है जो हम गंवा चुके हैं.
यदि हम इसमें चूकते हैं तो इसके लिए हम ही दोषी होंगे और कोई नहीं. किसी पार्टी या उसके कार्यक्रमों का उल्लेख किये बिना उन्होंने कहा कि लोक-लुभावन अराजकता शासन का विकल्प नहीं हो सकती.
उन्होंने कहा, ‘‘इसी तरह सार्वजनिक जीवन में पाखंड का बढ़ना भी खतरनाक है…जो लोग मतदाताओं का भरोसा चाहते हैं, उन्हें केवल वही वायदा करना चाहिए जो संभव है. सरकार कोई परोपकारी निकाय नहीं हो सकती.’’राष्ट्रपति ने कहा, ‘‘झूठे वायदों की परिणति मोहभंग में होती है, जिससे क्रोध भड़कता है तथा इस क्रोध का एक ही स्वाभाविक निशाना होता है- सत्ताधारी वर्ग.’’ उन्होंने कहा कि यह क्रोध तभी शांत होगा जब सरकारें वह परिणाम देंगी जिनके लिए उन्हें चुना गया था. अर्थात सामाजिक और आर्थिक प्रगति और वो भी कछुए की चाल से नहीं बल्कि घुड़दौड़ के घोड़े की गति से.
मुखर्जी ने चेतावनी दी कि महत्वाकांक्षी भारतीय युवा, उसके भविष्य से विश्वासघात को क्षमा नहीं करेंगे. जो लोग सत्ता में हैं, उन्हें अपने और लोगों के बीच भरोसे में कमी को दूर करना होगा. जो लोग राजनीति में हैं, उन्हें यह समझना चाहिए कि हरेक चुनाव के साथ एक चेतावनी जुड़ी होती है यानी ‘परिणाम दो अथवा बाहर हो जाओ’.
विचारों के मतभेद को लोकतंत्र का हिस्सा बताते हुए राष्ट्रपति ने कहा कि एक लोकतांत्रिक देश सदैव खुद से तर्क-वितर्क करता है और यह स्वागत योग्य है क्योंकि हम विचार-विमर्श और सहमति से समस्याएं हल करते हैं, बल प्रयोग से नहीं.
देश की अर्थव्यवस्था के बारे में मुखर्जी ने कहा कि पिछले दशक में विश्व की एक सबसे तेज रफ्तार अर्थव्यवस्था के रुप में भारत उभरा है लेकिन पिछले दो वषों में आई मंदी कुछ चिंता की बात हो सकती है लेकिन निराशा की नहीं. उन्होंने कहा कि अर्थव्यवस्था में पुनरत्थान की हरी कोपलें दिखाई देने लगी हैं. इस वर्ष की पहली छमाही में कृषि विकास दर बढ़कर 3.6 तक पहुंच चुकी है और ग्रामीण अर्थव्यवस्था उत्साहजनक है.
मुखर्जी ने कहा कि भारत को अपनी समस्याओं के समाधान खुद खोजने होंगे. यदि हम ऐसा नहीं करते तो यह अपने देश को गहरे दलदल के बीच भटकने के लिए छोड़ने के समान होगा.
उन्होंने कहा कि आज हमारे उच्च शिक्षा के ढांचे में 650 से अधिक विश्वविद्यालय और 33,000 से अधिक कॉलेज हैं. लेकिन अब हमारा ध्यान शिक्षा की गुणवत्ता पर होना चाहिए. उन्होंने भरोसा दिलाया कि भारत शिक्षा में विश्व की अगुवाई कर सकता है. बस उसे उच्च शिखर तक ले जाने वाले संकल्प तथा नेतृत्व को पहचानना चाहिए.मुखर्जी ने कहा कि शिक्षा अब केवल कुलीन वर्ग का विशेषाधिकार नहीं है बल्कि सबका अधिकार है और यह देश की नियति का बीजारोपण है. उन्होंने एक ऐसी शिक्षा क्रांति शुरु करने की बात कही जो राष्ट्रीय पुनरत्थान की शुरुआत का केंद्र बन सके.