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देश तोड़ने पर तुले नेता!

-हरिवंश- राजनीतिक दल, देश को तोड़ने पर तुले हैं. मुजफ्फरनगर दंगा और उसके बाद की स्थितियां, प्रासंगिक उदाहरण है, यह समझने के लिए. दिल्ली पुलिस के अनुसार लश्कर-ए-तैयबा के दो युवकों ने मुजफ्फरनगर दंगा पीड़ितों से संपर्क किया. उन युवकों ने स्वीकारा कि कई बार वहां जा कर वे दंगा पीड़ितों से मिले और संभावित […]

-हरिवंश-

राजनीतिक दल, देश को तोड़ने पर तुले हैं. मुजफ्फरनगर दंगा और उसके बाद की स्थितियां, प्रासंगिक उदाहरण है, यह समझने के लिए. दिल्ली पुलिस के अनुसार लश्कर-ए-तैयबा के दो युवकों ने मुजफ्फरनगर दंगा पीड़ितों से संपर्क किया. उन युवकों ने स्वीकारा कि कई बार वहां जा कर वे दंगा पीड़ितों से मिले और संभावित आतंकवादियों की तलाश की. दिल्ली पुलिस के बयान से लगता है कि इसके पीछे लश्कर-ए-तैयबा है.

दिल्ली पुलिस के बयान के बाद उत्तर प्रदेश पुलिस का बयान आया कि हमें ऐसी कोई सूचना नहीं है. उत्तर प्रदेश पुलिस के एक डीआइजी ने टीवी पर कहा कि राहुल गांधी ने बहुत पहले यह आशंका जाहिर की थी कि आइएसआइ (पाकिस्तान की खुफिया एजेंसी), मुजफ्फरनगर दंगे के युवकों से संपर्क की कोशिश में है. यूपी के डीआइजी के अनुसार राहुल गांधी के इस बयान को सच साबित करने के लिए दिल्ली पुलिस ने ऐसा काम किया है. डीआइजी के अनुसार यह राजनीतिक कदम है.

डीआइजी के बयान की सच्चाई जानने से पहले याद रखिए कि भारतीय पुलिस या भारतीय प्रशासनिक सेवा के अधिकारी, भारत संघ के नौकर हैं. भारतीय संविधान के तहत उनको देश के लिए काम करना है. वे सार्वजनिक रूप से नेताओं की तरह राजनीतिक बयान देने के अधिकारी नहीं हैं. लेकिन आश्चर्य है कि उत्तर प्रदेश के डीआइजी ने राहुल गांधी पर राजनीतिक हमला किया. वह कह सकते थे कि दिल्ली पुलिस की यह सूचना अधूरी है या गलत है या जांच चल रही है. इस नाजुक और महत्वपूर्ण मुद्दे को एक बार आप अलग रख दें, तो हमारे अफसर सार्वजनिक जीवन में किस तरह पेश आने लगे हैं?

व्यवहार करने लगे हैं? अगर भारतीय पुलिस सेवा या भारतीय प्रशासनिक सेवा के अफसर, भारतीय संविधान-कानून से बंधे रहने के बजाय, नेताओं या दलों से बंध कर बयान देने लगें, तो इस देश को बचाना या देश की एकता को संभाले रखना नामुमकिन है. दुर्गाशक्ति नागपाल प्रकरण में उत्तर प्रदेश ने केंद्र को यहां तक कह दिया कि सभी आइएएस वापस बुला लें. क्या यूपी स्वतंत्र देश है? दरअसल, केंद्र या भारत संघ की महिमा घट गयी है. इंदिरा गांधी के रहते कोई राज्य सरकार ऐसा बयान देती?.. भारत को खतरा क्षत्रप नेताओं से है. उनके आचरण से है. अफसर, नेताओं के भक्त तो हो ही गये हैं, पर इस हद तक शायद पहली बार हुआ है कि एक डीआइजी सार्वजनिक रूप से टीवी पर राजनीतिक बयान देता है. राहुल गांधी पर व्यंग्य करता है.

अब तथ्य पर लौटें. नहीं मालूम कि सच क्या है, पर इस प्रसंग को लेकर केंद्रीय मंत्री मनीष तिवारी ने कहा कि राहुल गांधी ने कितना सही कहा था. इसी तरह कांग्रेस के बहुचर्चित और हर विषय पर स्तब्धकारी बयान देकर, कांग्रेस की जड़ हिला देनेवाले माननीय दिग्विजय सिंह का बयान आया. उन्होंने अपने बयान से यह सिद्ध करने की कोशिश की कि राहुल गांधी किस हद तक देश का भविष्य देख सकते हैं. उन्होंने (राहुल ने) पहले ही यह बात कही थी. अब दो आतंकवादियों के बयान से पुष्टि हो गयी. इसके विपरीत उत्तर प्रदेश के राजनीतिज्ञों के बयान आये. उत्तर प्रदेश के बड़बोले और अपने असंयमित बयानों के लिए देशभर में बहुचर्चित मंत्री आजम खां ने फरमाया कि अब राहुल गांधी से इस मामले में पूछताछ हो. याद रखिए, राहुल गांधी ने इंदौर की बड़ी सभा में इस संवेदनशील तथ्य का खुलासा किया था.

दरअसल, इस प्रसंग के पीछे के सच को छोड़ दिया जाये, क्योंकि जांच के बाद चीजें स्पष्ट होंगी, पर कुछ सवाल तो अपनी जगह हैं ही. क्या ऐसी संवेदनशील सूचना, राहुल गांधी को एक सार्वजनिक सभा में देनी चाहिए थी? इसके जवाब में क्या यूपी पुलिस को दिल्ली पुलिस पर ही सवाल उठाने चाहिए? क्या पुलिस भी राजनीतिक दल है? क्या देश की सुरक्षा से जुड़े सवालों-गोपनीय प्रसंगों पर सार्वजनिक बहस होनी चाहिए? दूसरे मुल्कों में ऐसे सवालों पर सब संयम रखते हैं. यह जांच एजेंसियों का जिम्मा है कि वे सही ढंग से अपना काम करें. सच तक पहुंचे. हां, यह सुनिश्चित होना चाहिए कि जांच एजेंसियां किसी निर्दोष को न फंसायें या पकड़ें? पर ऐसे मौकों पर नेता क्यों कूदते हैं? क्योंकि ऐसे सवालों पर वे वोट बैंक की राजनीति करते हैं.

दूसरी तरफ उन नेताओं का असल चरित्र देखिए. आप महज बयानों से दंगा-पीड़ितों (मुजफ्फरनगर के) से सहानुभूति बटोरते हैं? ठंड से राहत शिविरों में लोगों के मरने की खबर आ रही थी, उधर मुलायम सिंह के गांव सैफई (जहां दो सौ करोड़ का स्विमिंग पूल बना है) में नाच-गान चल रहा था. यह महोत्सव लंबा चला. माधुरी दीक्षित, सलमान खान भी नाचे. ठुमके लगाये. एक तरफ कराह-आह की गूंज, दूसरी तरफ मौज. इस बीच देश-समाज कहां है? समाज बांट कर भी अपको गद्दी क्यों चाहिए? समाज की तरक्की के लिए नहीं, इसी मौज-मस्ती के लिए न?

मुजफ्फरनगर दंगों से प्रभावित शिविरों में लोग ठंड से अकड़ें, यह अमानवीय है. दंगा-पीड़ितों पर यह आरोप लगा कि राहत शिविरों में रहनेवाले कुछ लोगों ने दंगों के नाम पर मिलनेवाले पैसे, सुविधाएं और राहत ले ली है, लेकिन अब उन्हीं परिवारों के अन्य लोग अलग से अपने-अपने नाम ये सुविधाएं लेना चाहते हैं. इसलिए वे शिविरों में टिके हुए हैं. यह भी आरोप लगा कि राहुल गांधी वहां जाकर इसमें राजनीति कर रहे हैं. क्या ऐसे सवालों को हम राजनीति से परे नहीं रख सकते? संभव है, वहां पर दंगों से प्रभावित लोग राहत पाने के लिए या सरकारी पैसा-अनुदान पाने के लिए टिके हों, पर यह सवाल सभी राजनीतिक दलों को खुद से करना चाहिए कि यह स्थिति क्यों आयी? क्यों हमने समाज को इस तरह से परजीवी बना दिया है? अगर अत्यंत ईमानदार और पारदर्शी ढंग से सरकारी राहत का बंटवारा होता, तो ऐसी स्थिति नहीं होती? फिर भी अगर कुछेक लोग इस भयंकर ठंड में उन शिविरों में पड़े रहे, तो उनके साथ मानवीय व्यवहार होना चाहिए. क्या उनके शिविरों पर बुलडोजर चलाना सही था? यह एक सभ्य समाज का कदम है? हम बांग्लादेश या पाकिस्तान नहीं हैं. कम-से-कम यह भारतीय परंपरा नहीं है.

यह सिर्फ दो समुदायों के बीच का प्रसंग नहीं है, इसके पीछे सत्ता का मकसद है. सत्ता, जो मानती है कि देश से बड़ा दल है और दल से बड़ी नेताओं की निजी सत्ता है. इन नेताओं का निजी अहंकार, सत्ता से भी बड़ा है. भारतीय परंपरा कहती है कि अहंकार, नाश का मूल है. ये नेता अपने कामकाज के लिए, अपने वोट बैंक के लिए इस तरह अहंकारी हो चुके हैं कि सिर्फ हिंदू और मुसलमानों को ही नहीं लड़ा रहे, बल्कि पूरे समाज को अलग-अलग जाति, कुनबे, गोत्र, क्षेत्र में बांट चुके हैं. आज मुलायम सिंह और उनका कुनबा, उत्तर प्रदेश में राज कर रहा है.

हकीकत यह है कि वहां कोई समाजवादी पार्टी नहीं है. जो सत्ता में है, वह मुलायम सिंह एंड परिवार की पार्टी है. वह अपने नेता के रूप में डॉक्टर लोहिया की चर्चा करते हैं. डॉ लोहिया, जिन्होंने हिंदुस्तान में हिंदू-मुस्लिम एकता का एक बेहतर सपना देखा. गांधी के रास्ते चल कर एक अद्भुत ढंग की परिकल्पना की. अक्तूबर, 1963 में लोहिया ने ‘हिंदू-मुसलमान’ विषय पर हैदराबाद में अद्भुत व्याख्यान दिया था. इसका मर्म-मकसद था कि दोनों कैसे एक हों? यह हर भारतीय को पढ़ना चाहिए. गौर करिए, आज विभिन्न जातियों-धर्मो में एकता पैदा करनेवाले वैसे राजनेता या राजनीति कहीं है? रोज तो हर जाति-धर्म में लड़नेवाले विष बो रहे हैं. सिर्फ जहर की खेती हो रही है.

गांधीवादी परंपरा में जहर मिटानेवाली नैतिक राजनीति, मानवीय राजनीति तो इस धरती से विदा ही हो गयी. तब लोहिया ने इस भाषण में कहा था कि हर एक बच्चे को सिखाया जाये, हर एक स्कूल में, घर-घर में, क्या हिंदू क्या मुसलमान, बच्ची-बच्चे को कि रजिया, शेरशाह, जायसी वगैरह हम सबके पुरखे हैं, हिंदू-मुसलमान दोनों के.. साथ-साथ मैं यह चाहता हूं कि हममें से हर आदमी, क्या हिंदू, क्या मुसलमान यह कहना सीख जाये कि गजनी, गोरी और बाबर लुटेरे थे. हमलावर थे. इस तरह लोहिया ने इतिहास को समझ कर कहा कि हम अतीत से सीख कर एकसूत्र में बंधें. उनका मानना था कि देश वह दौर देखना चाहता है, जब हिंदू, मुसलमानों का नेतृत्व करें और मुसलमान, हिंदुओं का. अगड़े, पिछड़ों की रहनुमाई करें और पिछड़े, अगड़ों की. पर आज बात कहां पहुंच गयी? आपस में हम धर्म, जाति और गोत्र में बंटे हैं. फिर अपना परिवार है, परिवार में भी अपने बेटा-बेटी हैं. यही हाल मुसलमानों का भी है. वहां भी विभाजन है, पर दूसरे तर्ज पर. यह काम वही लोग कर रहे है, जो डाक्टर लोहिया के रास्ते पर चलने का दिखावा करते हैं.

दरअसल, इस देश में पुरानी सामाजिक स्थितियों या कुरीतियों के कारण कुछ तबके पिछड़े रह गये या जन्मजात पिछड़े हैं. हिंदुओं में भी और मुसलमानों में भी. ऐसे लोगों को कानूनन विशेष हक मिलना ही चाहिए, ताकि वे आगे बढ़ सकें. समाज में एक साथ खड़े हो सकें. लेकिन कानून के सामने, चाहे वो जिस भी जाति या धर्म या गोत्र से हों, अगर एक तरह का अपराध है, तो उसमें आप दो तरह का दंड, भेदभाव या व्यवहार करने लगें, तो यह मुल्क नहीं बच सकता. यह धर्म का प्रसंग नहीं है. यह द्वेष, जलन, ईर्ष्या खटराग है. मानवीय स्वभाव है कि दो भाइयों में किसी एक के साथ व्यवस्था, एक ही अपराध में अलग-अलग व्यवहार करे, दूसरे से अलग, तो बात आगे बढ़ेगी ही.

पर उत्तर प्रदेश सरकार का खेल देखिए, वह एक समूह के लिए विशेष मदद, मुकदमा उठाने जैसी घोषणाएं करती है, फिर प्रतिक्रिया देख कर चुप हो जाती है. उत्तर प्रदेश सरकार ने मुजफ्फरनगर के जिलाधीश को लिखा कि सात लोगों (जिसमें बसपा सांसद कादिर राणा हैं, पूर्व सांसद कांग्रेसी सईद उज्जमा व कुछेक मौलाना) से जुड़े मुकदमे वापस लिये जायें. जिला प्रशासन ने कहा, यह कानूनन संभव नहीं है. यानी लोगों को राहत भी नहीं मिली और मानसिक बंटवारा, समाज में एक नये मुकाम तक पहुंच गया. सत्ता का यह खेल अब हर समुदाय के लोग समझने लगे हैं और उन्होंने हाल में हुए चुनावों में दिखाया भी कि ऐसी राजनीति से ऊपर उठ कर हर धर्म-जाति के लोग वोट देने लगे हैं, फिर भी पुराने तौर- तरीके से ही उत्तर प्रदेश में वोट बैंक के लिए मुलायम सिंह काम कर रहे हैं. मुजफ्फरनगर दंगों का असर यह हुआ कि पहले जिस पश्चिमी उत्तर प्रदेश में भारतीय जनता पार्टी के लिए जगह नहीं थी, अब वह वहां है.

अब आप इसके लिए दोष देते हैं, नरेंद्र मोदी को? आपको खुद राजकाज चलाने नहीं आता, तो दूसरे दोषी कैसे? गांव-देहात में या भोजपुरी में एक कहावत है कि ‘चलनी दोषे सूप को, जिसमें खुद बहत्तर छेद या चले न आवे अंगनवे टेढ़’. खुद आपके अंदर रहनुमाई की क्षमता नहीं है, आप खुद के लिए जी रहे हैं, अपने परिवार के लिए जी रहे हैं, ताम-झाम, रौब आपके जीवन का मकसद या धर्म है, तो आप समाज या देश के लिए क्या करेंगे? इन दंगों के बाद समाजवादी पार्टी की सरकार या उसके लोगों ने जिस तरह व्यवहार किया, इससे लोगों को लगा कि कानून सबके लिए समान काम नहीं कर रहा है. इससे वहां समाज में ध्रुवीकरण हुआ. कुछेक माह पहले कुछ अल्पसंख्यक नेता, पुलिस के विशेष संरक्षण में राज्य सरकार के विशेष हवाई जहाज से मेरठ से लखनऊ लाये गये, जिन पर गंभीर आरोप थे. वारंट थे. उन्हें पुलिस संरक्षण में एक ही दिन में लाया व लौटाया गया. राष्ट्रीय मीडिया में यह प्रसंग उछला.

यह मुद्दा बना. आप समझें कि इसका संदेश-असर क्या होगा? जिन्हें, गिरफ्तार होना चाहिए, वे पुलिस-प्रशासन के संरक्षण में, राज्य सरकार के विमान से सरकार की बड़ी हस्तियों से मिलने बुलाये जाते हैं. उसके बाद उत्तर प्रदेश सरकार ने तय किया कि हमें किसी तरह अपना अल्पसंख्यक वोट बैंक बचाये रखना है. उन्होंने घोषणा कर दी कि हम एक-एक परिवार को पांच-पांच लाख रुपये देंगे. यह अच्छी बात थी. लेकिन सरकार ने तय किया कि सिर्फ एक समुदाय के लोगों को ही यह राहत मिलेगी. इसने उत्तर प्रदेश के समाज को और अधिक बांट दिया. मामला सुप्रीम कोर्ट में गया. इसका हश्र वही हुआ, जो होना था. क्योंकि संविधान-कानून, एक तरह की चीज के लिए वोट बैंक के अनुसार अलग-अलग प्रावधान नहीं करता, चाहे आप किसी भी जाति-धर्म के हों. सुप्रीम कोर्ट ने कहा, सभी मजहब के दंगा प्रभावितों को यह राहत मिलेगी. लेकिन उत्तर प्रदेश के राजनीतिक माहौल में इस कदम से ध्रुवीकरण पैदा हुआ. अगर सरकार एक ही साथ सभी दंगा पीड़ितों को राहत दे देती, तो हालात नहीं बिगड़ते. इसके लिए कौन दोषी है?

फिर मुकदमे वापसी (कुछेक लोगों पर से) की बात चली, वह भी कानूनन नहीं थी. नहीं हुई. पर बात फैली और समाज बंटा. आश्चर्य नहीं होना चाहिए कि यह मानस देश तोड़ना चाहता है. एक तरह के अपराध में शामिल एक पक्ष के लोगों के साथ चल रहे मुकदमे उठा लें, उन पर से गंभीर आरोप वापस ले लें. और दूसरे के प्रति आपका व्यवहार सख्त हो, उन पर लगे मुकदमे आप न उठायें, उनको कानून के अनुसार सजा दिलायें, तो समाज का बंटना तय है. होना तो यह चाहिए कि ऐसी स्थिति में कठोर कानून ही काम करे.

जिसने भी ऐसा काम किया हो, दंगों में जिसकी जैसी भूमिका हो, उसको वैसी सजा हो. चाहे वह किसी भी जाति, धर्म का हो. एक जैसे अपराध के लिए एक तरह की ही सजा है. ताकि आगे कोई ऐसा काम न कर सके. अब एक दूसरा प्रसंग देखिए. उत्तर प्रदेश में जिन पर आतंकवादियों से जुड़े होने या आतंकवादी होने के गंभीर आरोप हैं, वे जेलों में हैं. मुकदमे चल रहे हैं. बिना किसी जांच के सरकार ने अचानक घोषणा कर दी कि उनके मुकदमे वापस होंगे. यानी मुकदमे उठे भी नहीं और समाज और तेजी से बंट गया. इससे भी राज्य में ध्रुवीकरण हुआ. अंतत: मामला उठा नहीं, पर समाज-राज्य की जनता को इस इश्यू पर बांट दिया. गौर करिए, ऐसे अनेक कदम, जिनकी महज यूपी सरकार ने घोषणा की या एक कदम आगे रखा, पर वापस ले लिया, यानी ऐसा एक भी काम पूरा नहीं हुआ, पर समाज को महज मुद्दा उठा कर उसने बांट दिया. यह राजनीति देश को कहां ले जायेगी?

आज देश में कोई नेता ऐसा नहीं है, जो ऐसे कामों पर सवाल उठा सके कि ऐसे काम देश को कहां ले जा रहे हैं? चंद्रशेखर की तरह कोई नेता, देश के पक्ष में साफ बोलने के लिए तैयार नहीं. अपना दल, अपनी सत्ता, अपना परिवार, कहां पहुंचेंगे हम? होना क्या चाहिए? जो लोग देश को चाहते हैं, भारत की पुरानी परंपरा को अक्षुण्ण रखना चाहते हैं, उनकी भूमिका होती कि मुजफ्फनगर में अगर केस उठाना ही है, तो सभी पक्षों-समुदायों के नेताओं को एक साथ बैठाते. कहते कि आपके ऊपर ऐसे गंभीर आरोप हैं. आप एक-एक आरोप देख लें. हम आपसे यह आग्रह करते हैं कि अपनी गलत भूमिका को समझें और हम मिल कर भारत को एक रखने की पहल करें. हम सभी मुकदमे वापस उठाते हैं. लेकिन तय करें कि इस तरह की कोई भी घटना फिर नहीं होगी.

दरअसल, भारत में सभी धर्मों-समुदायों में मिल कर रहने की एक साझी परंपरा रही है. हाल ही में न्यूयार्क टाइम्स में भारत के बारे में एक रोचक खबर थी. धरती का अद्भुत नजारा है, यहां सत्तर करोड़ से अधिक मतदाता वोट देंगे. अपनी प्राचीन सभ्यता को भविष्य में राह दिखाने के लिए. यह देश, उन देशों का पड़ोसी है, जो इसे अस्थिर करने पर तुले हैं, आदतन ये आक्रामक भी हैं, पाकिस्तान, चीन, बर्मा.

भारत की चुनौतियां अनंत हैं. खासतौर से आतंकवाद से निबटना. पर इन चुनौतियों और ऐसे पड़ोसियों से घिरे होने के बावजूद यह धरती का अद्भुत देश है. सैकड़ों भाषाएं, सभी धर्म, संस्कृति न सिर्फ जीवित हैं, बल्कि फल-फूल रहे हैं. वह भारत देश, जहां हिंदू, बौद्ध, जैन और सिख धर्म पैदा हुए, जो धरती पर मुसलमानों का दूसरा सबसे बड़ा देश है.

– जहां 2000 वर्ष पूर्व ईसाई धर्म था.

-जहां यहूदी धर्म का सबसे पुराना ‘सेनेगाग’ (उपासना स्थल) है. यहां यहूदी तब से हैं, जब रोमन साम्राज्य ने उनके दूसरे उपासना स्थल को जला डाला था.

-जहां दलाई लामा और निर्वासन में रह रही तिब्बत सरकार है.

-जहां पर्शिया से जेरोथेरिएंस आये, फले-फूले, तब उन्हें अपनी मातृभूमि से बेदखल कर दिया गया था.

-जहां आर्मेनियाई और सीरियाई व अन्य रहने के लिए आये.

-जिसे पेरिस स्थित ओसेड (डएउऊ) ने कहा कि गुजरे 2000 वर्षों में से 1500 वर्षों तक धरती की सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था यहां (भारत की) रही.

-जहां तीन मुसलमान राष्ट्रपति चुने गये.

-जहां एक सिख प्रधानमंत्री है और सत्ता दल की प्रधान कैथोलिक इटेलिएन महिला हैं.

-जहां पूर्व राष्ट्रपति एक महिला थीं. उनके पूर्व एक मुसलमान राष्ट्रपति थे, राकेट विज्ञानी और देश के नायक.

-जहां की बढ़ती अर्थव्यवस्था, हर साल गरीबी रेखा से चार करोड़ लोगों को ऊपर उठा रही है. जहां उम्मीद है कि जनसंख्या की अधिक आबादी 2025 तक मध्यवर्ग होगी, जो अमेरिका की पूरी जनसंख्या के बराबर होगी.

-जहां फिल्मों में, कला में, आर्थिक विकास और वोट डालने में, आशावाद व जीवंतता है, अनेक भारी और विषम चुनौतियों के बावजूद.

-जहां अपना प्रभुत्व-प्रभाव जमाने के लिए दुनिया की हर महाशक्ति एक-दूसरे को पछाड़ना चाहती हैं.

जिस भारत में यह सब है, वहां दुनिया की 1/10 आबादी वोट देनेवाली है. यह दुनिया के लिए प्रेरक चीज है.

(सौजन्य : वी मिचेल न्यूयार्क)

यह विविधता बचाना, हर भारतीय (चाहे जिस जाति-धर्म का हो) का धर्म-फर्ज है. यह कोई नयी परंपरा नहीं है. लेकिन दुनिया में बड़े पैमाने पर ऐसा माहौल बनाया जा रहा है, जिससे एक नये किस्म का तनाव और आतंक फैले. भारतीय उपमहाद्वीप में भी हालात गंभीर हैं. हमारी विरासत क्या रही है और हम कहां जा रहे हैं, इस पर बहुत सुंदर पुस्तक लिखी है, डॉ रजी अहमद ने, भारतीय उपमहाद्वीप की त्रासदी- सत्ता, सांप्रदायिकता और विभाजन (वाणी प्रकाशन), इस पुस्तक पर कभी अलग से चर्चा. वह बताते हैं कि कैसे 1857 के विद्रोह को सख्ती से कुचल देने के बाद अंग्रेजों ने फोर्ट विलियम कालेज की सोची-समझी मैकाले रणनीति के तहत, बौद्धिक शस्त्र को अपनाया. यहां की मानसिकता को बदलने के लिए अनेक अभियान चलाये. कुछ ही वर्षों बाद उन्हें अपने मकसद में कामयाबी भी मिली. उनके प्रयासों से हिंदुस्तानियों की दो महत्वपूर्ण इकाइयों के बीच कटुता की खाई बढ़ती गयी. इतिहास के तथ्यों को गलत ढंग से बढ़ा-चढ़ा कर पेश किया गया. इसका दीर्घकालीन असर हुआ.

आज जरूरत है कि हिंदुस्तान का हर आदमी अपनी विरासत को समझे. यह समझे कि आज हम मिलजुल कर नहीं रहेंगे, तो यह भारत बन नहीं सकता. यह समझाने का काम अंतत: राजनीतिक दल ही कर सकते हैं. पर राजनीतिक दलों को अपना स्वार्थ, अपने परिवार का स्वार्थ पीछे रखना होगा. आज इस आतंकवाद से खुद पाकिस्तान बुरी तरह तबाह है. पाकिस्तान में भी इस्लामीकरण के नाम पर जो आतंकवादी चीजें बढ़ी हैं, वह खुद पाकिस्तान के बहुसंख्यक, सही पाकिस्तानियों के लिए गंभीर चुनौती है. रामचंद्र गुहा की मशहूर पुस्तक है, भारत, नेहरू के बाद. इस पुस्तक में उन्होंने पाकिस्तान के बारे में उल्लेख किया है कि 1980 के दशक में पाकिस्तान का इस्लामीकरण बहुत तेजी से हुआ.

सन् 1947 यानी पाकिस्तान के जन्म के समय वहां सिर्फ 136 मदरसे थे, जो 2000 आते-आते तीस हजार तक हो चुके थे. तारिक अली लिखते हैं कि ये मदरसे कट्टरपंथियों को पैदा करने की सैद्धांतिक नर्सरी थे. पाकिस्तान में अब तक 58 राजनीतिक पार्टियां पनप चुकी थीं और वहां 24 हथियारबंद मजहबी संगठन थे, जो देश के मदरसा-तंत्र से निकले युवाओं द्वारा चलाये जा रहे थे. इसी पुस्तक में उन्होंने लश्कर-ए-तैयबा और उनके नेताओं का भारत के प्रति इरादे का भी उल्लेख किया है. किस तरह लश्कर-ए-तैयबा के प्रमुख हाफिज मोहम्मद सईद ने घोषणा की कि वो हिंदुस्तान भर में मुजाहिदीन का नेटवर्क बना रहे हैं, जो अपनी तैयारी के बाद हिंदुस्तान के विघटन प्रक्रिया को शुरू कर देंगे.

पड़ोसी पाकिस्तान पर नजर डालें. रक्षा मंत्री एके एंटोनी ने स्वीकार किया है कि वर्ष 2013 में पाकिस्तान ने सबसे ज्यादा सीजफायर का उल्लंघन किया है. भारत-पाक नियंत्रण रेखा पर शहीद हुए सैनिक हेमराज के सिर काटने का वीडियो सामने आने से भारतीयों में काफी रोष बढ़ा है. ऐसी स्थिति में हम धैर्य और संयम बनाये रख पाते हैं तो भारतीय उपमहाद्वीप के लिए बेहतर होगा. बांग्लादेश में यह स्थिति है कि वहां से अल्पसंख्यक भाग रहे हैं. तब भारतीय उपमहाद्वीप के लिए या भारतीय समाज के लिए बड़ी चुनौती है. भारत के समझदार दलों के लिए एक चुनौतीपूर्ण समय, जब उन्हें सचेत होकर हिंदुस्तान के भविष्य को बनाये रखने की पहल करनी होगी. भारत की एक विरासत रही है. महात्मा गांधी से लेकर मौलाना अबुल कलाम या खान अब्दुल गफ्फर खां जैसे लोगों ने जो सपना देखा कि साझा समाज कैसे समृद्ध-बेहतर होगा, आज उसे बचाने की चुनौती है. अरविंद का एक महत्वपूर्ण भाषण है, उत्तरपाड़ा प्रसंग, जहां से उनके जीवन में एक नया मोड़ आया था, यह ऐतिहासिक भाषण माना जाता है. उन्होंने कहा था, जिसे हम हिंदू धर्म कहते हैं, वह वास्तव में सनातन धर्म है. क्योंकि यही वह विश्वव्यापी धर्म है, जो दूसरे सभी धर्मों का आलिंगन करता है. यदि कोई धर्म विश्वव्यापी न हो, तो वह सनातन भी नहीं हो सकता. कोई संकुचित या सांप्रदायिक या अनुदार धर्म, कुछ काल और किसी मर्यादित कार्य हेतु ही रह सकता है. यानी एक ऐसा धर्म है, जो अपने अंदर एक साइंस के आविष्कारों और दर्शनशास्त्र के चिंतनों का पूर्वाभास देकर, उन्हें अपने अंदर मिला कर जड़वाद पर विजय प्राप्त कर सकता है.

आज ऐसे धर्म को भी सीमा में बांधने और धर्म के आधार पर लोगों को एकजुट करने की कोशिश चल रही है. हिंदू धर्म के उदार लोगों का दायित्व है कि वे अपनी विरासत को समझें और अपने अंदर भी कट्टरता की प्रतिक्रिया में कट्टरता न आने दें. आज देश नाजुक मोड़ पर है, अगर देश के लिए काम करनेवाले लोगों ने देश के मौजूदा हालात पर गौर नहीं किया, तो देश मुसीबत में होगा.

यह समय है, जब जनता भी जगे. क्षेत्रीय दलों के संस्कार, मिजाज व अहं को समझे. राष्ट्रीय दल कांग्रेस, भाजपा खुद को पुनर्परिभाषित करें. कांग्रेस अपना अहंकार छोड़े. विचारों की ओर लौटे. एक परिवार के दबदबे से मुक्त हो. भाजपा, कायाकल्प करे, सबको साथ लेकर चले. पूरे देश में फैले. विचारों में मध्यमार्गी बने. भ्रष्टाचार उन्मूलन और देश निर्माण सबका सपना हो. इस देश की जनता इसके लिए तैयार है. छोटी घटना है. जिस दिन रांची के सीठियो गांव से कुछेक युवा पकड़े गये, पटना में नरेंद्र मोदी की रैली में. विस्फोट के आरोप में. उसके अगले दिन, उस गांव के लोगों ने आतंकवाद के खिलाफ एक बड़ी सभा की. यह संकेत है कि इस देश के बहुसंख्यक लोग (हर धर्म-जाति में) इस देश को मजबूत देखना चाहते हैं. बस नेता चाहिए. मजबूत, उदार.. और देश के प्रति समर्पित.

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