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गांव में आप की असली परीक्षा, किसानों के बीच कामयाब हो पायेंगे केजरीवाल?

वर्ष के आरंभ में अरविंद केजरीवाल ने लोगों से जानना चाहा था, यदि हम उन राज्यों में न जाएं, जहां चुनाव हो रहे हैं, तो फिर क्या करें? आखिर देश की राजधानी आम आदमी पार्टी के लिए मुफीद प्रयोगशाला साबित हुई. लेकिन दिल्ली और ग्रामीण भारत के मुद्दे और मिजाज अलग हैं. ऐसे में 2014 […]

वर्ष के आरंभ में अरविंद केजरीवाल ने लोगों से जानना चाहा था, यदि हम उन राज्यों में न जाएं, जहां चुनाव हो रहे हैं, तो फिर क्या करें? आखिर देश की राजधानी आम आदमी पार्टी के लिए मुफीद प्रयोगशाला साबित हुई. लेकिन दिल्ली और ग्रामीण भारत के मुद्दे और मिजाज अलग हैं. ऐसे में 2014 के लोकसभा चुनाव के दौरान देश की नजरें इस बात पर भी होंगी कि दिल्ली में राजनीति की नयी परिभाषा गढ़नेवाली आप क्या ग्रामीण भारत में और किसानों के बीच भी ऐसी कामयाबी हासिल कर पायेगी?

।। रंजन कुमार सिंह ।।

(सामाजिक चिंतक)

वर्ष के आरंभ में अरविंद केजरीवाल ने जनता से जानना चाहा था, यदि हम उन राज्यों में न जाएं, जहां चुनाव हो रहे हैं, तो फिर क्या करें? क्या अन्ना फिर अनशन पर बैठें? सरकार ने पहले ही यह संकेत दे दिया है कि यदि जन अभियान की सहभागिता वोट में नहीं बदलती तो उसे इसकी चिंता नहीं. कुछ लोगों की सलाह है कि हमें खुद अपनी पार्टी का गठन करना चाहिए, लेकिन न तो हमारी ऐसी इच्छा है और न ही सामथ्र्य. यह जन आंदोलन है. अभियान सफल रहा, क्योंकि वे सहभागी बने. अब जनता ही बताये कि आगे का रास्ता क्या हो? और वर्ष के बीतते-बीतते वही केजरीवाल लोगों से पूछ रहे हैं, हम अब क्या करें? क्या हमें सरकार बनानी चाहिए?

जानें 2014 में कैसी होगी भारतीय राजनीति की दशा-दिशा

ऐसा पहली बार है कि जनता को आगे रख कर लोकतंत्र का सफर तय किया जा रहा है. यह न तो जनता पार्टी के गठन के समय हुआ और न ही जनता दल के गठन के वक्त. असम गण परिषद या तेलुगु देशम जैसे प्रयोग भी जनता के बल पर सफल तो रहे, लेकिन जनता की हिस्सेदारी चुनाव संपन्न होने के साथ ही खत्म हो गयी. दिल्ली में आम आदमी पार्टी को यदि स्पष्ट बहुमत मिलता तो निश्चय ही केजरीवाल को जनता से मशविरे की जरूरत नहीं होती, पर अब जब कांग्रेस ने उन्हें एकतरफा समर्थन दे दिया है, तब भी उनका जनता के बीच जाना मायने रखता है. इतना धैर्य हमारे कई बड़े नेता भी नहीं दिखा पाये, चाहे वह चौधरी चरण सिंह हों, चंद्रशेखर, 13 दिन की सरकार के अगुआ अटल बिहारी वाजपेयी हों या मायावती, नीतीश कुमार, अजरुन मुंडा या हेमंत सोरेन. इनमें से कुछ तो सदन में विश्वास मत का सामने किये बिना ही चले गये, जबकि कुछ को कुर्सी के लिए अपनी नीतियों से समझौते करने पड़े. और इन सभी मौकों पर जनता महज तमाशबीन बनी रही.

देश के लोकतंत्र में पहली बार नेता पीछे और जनता आगे है. वह तमाशबीन नहीं, भागीदार है. उससे भी बड़ी बात यह कि पहली बार कोई समर्थन देनेवाली पार्टी, किसी समर्थन लेनेवाली पार्टी की शर्ते मानने को बाध्य हो रही है. आम आदमी पार्टी ने किसी से समर्थन मांगा ही नहीं और जब कांग्रेस ने उसे एकतरफा समर्थन देने की घोषणा कर दी, तो उल्टे उसी पर शर्त भी लाद दी और साथ में दस दिन का समय भी लिया कि वह जनता से सलाह-मशविरा करके इस इस बारे में कोई फैसला करेगी. देखनेवाले आप और उसके नेता केजरीवाल को भगोड़ा के तौर पर देख सकते हैं, या फिर एक ऐसे नेता और पार्टी के तौर पर, जिसका संपर्क कुर्सी सामने होते हुए भी जनता से टूटा नहीं है. जनता द्वारा चुनकर तो सभी आते रहे हैं, पर उनकी सरकार को जनता की सरकार कहना शायद ही ठीक हो. लोगों से रायशुमारी के बाद केजरीवाल यदि सरकार बनाते हैं, तो यह वाकई जनता की सरकार होगी.

भारतीय लोकतंत्र की यह खामी है कि वह हर स्तर पर सहभागितापूर्ण नहीं है. लोग यहां सांसद या विधायक तो चुनते हैं, पर फिर पांच साल बाद तक वह मूक दर्शक बने रहते हैं. स्थानीय निकायों, खासकर पंचायतों में, उनकी सहभागिता हरेक स्तर पर हो सकती है, पर यथार्थ में ऐसा होता नहीं और मुखियाजी पहले काम कराकर, बाद में कागजी कार्रवाई पूरी करते हैं.

आम आदमी पार्टी संसदीय प्रणाली में हस्तक्षेप करते हुए पंचायती राज व्यवस्था कायम करने का प्रयास करती दिख रही है. याद रहे कि इस पार्टी का जन्म ही जनलोकपाल के मुद्दे से हुआ था, जिसमें जनता की भागीदारी पहली बार किसी विधि-विधान के लिए हुई. अन्यथा इस देश में जनता विधायिका के प्रति उदासीन ही रही है. सांसद या विधायक का चुनाव यहां गली-नली के लिए किया जाता है, न कि नीति और विधि के निर्धारण के लिए. देश नें पहली बार एक ऐसा जन आंदोलन देखा गया, जो जातीयता, क्षेत्रीयता और सांप्रदायिकता से मुक्त था.

कहना गलत न होगा कि अपनी पहली परीक्षा में आम आदमी पार्टी सफल रही है, पर कहा जा सकता है कि दिल्ली की परिस्थितियां पूरी तरह से उसके अनुकूल थीं. समाज यहां जातियों में बिखरा नहीं था. यहां मध्यवर्ग की बहुलता थी, जो भ्रष्टाचार और महंगाई से सबसे अधिक त्रस्त था. लोगों में यहां शिक्षा के साथ जागरूकता थी. हां, उनकी अकर्मण्यता को तोड़ने का काम अन्ना हजारे के सहारे अरविंद केजरीवाल ने बखूबी किया. शायद केजरीवाल भी यह जानते थे कि जन-उन्मुख राजनीति के लिए दिल्ली ही सबसे उपयुक्त प्रयोगशाला है, इसीलिए शुरुआत यहीं से की.

दिल्ली एक और मायने में इस प्रयोग के लिए मुफीद थी. लोग यहां भागीदारी के लिए तैयार थे. शीला दीक्षित और उनकी सरकार से तमाम विरोध के बावजूद केजरीवाल को यह तो मानना पड़ेगा कि वह सरकार दिल्ली में भागीदारी की अवधारणा को कार्य रूप देने में सफल रही थी. अब जब देश भर की आंखें केजरीवाल पर टिकी हैं, उनके लिए बड़ा इम्तिहान अगले वर्ष होनेवाले लोकसभा चुनाव के रूप में सामने है. इस देश में सरकारें किसान और मजदूर बनाते हैं, मध्यवर्ग नहीं, जबकि केजरीवाल की सभाओं और जुलूसों में फिलहाल धोती-कुर्ता या पगड़ीधारी कम ही दिखते हैं.

बिहार और उत्तर प्रदेश जैसे राज्यों के आम आदमी तक उनकी कितनी पहुंच बनी है, यह तो वक्त बतायेगा. ये ऐसे राज्य हैं, जो केंद्र सरकार के नियामक रहे हैं. यहां आम आदमी पार्टी की अग्नि परीक्षा इस मायने में है कि इन प्रांतों में पार्टियों की पहचान जातियों से होती है और जातियां भी पार्टी विशेष की अनुगामी होती हैं. राष्ट्रीय दल भी अपना उम्मीदवार जातीय समीकरण के आधार पर तय करते हैं. ये ऐसे राज्य हैं, जहां मध्यवर्ग से अधिक किसानों की संख्या है, जिनकी जरूरतें व प्राथमिकताएं अलग हैं. यहां लोगों की प्राथमिकताएं आज भी नली-गली हैं.

अपनी बुनियादी सुविधाओं से वंचित इन लोगों में शायद अब भी यह समझ नहीं बनी है कि उनके प्रतिनिधि का मूल दायित्व नीति और कानून बनाना है, न कि नली-गली बनाना. अब तक सभी दलों ने लोगों को नाली का कीड़ा बनाये रखा है, जिसकी सोच को वे इतना उठने ही नहीं देना चाहते कि उनके लिए चुनौती खड़ी हो. व्यवस्था के जाल में बेकसूरों को फंसाये रखने व कानून के दायरे से अपराधियों को बचाये रखने के लिए शायद यह जरूरी है. ऐसे में आम आदमी पार्टी हवा के ताजा झोंके की तरह है.

हो सकता है कि जिस तरह केजरीवाल ने आम आदमी पार्टी को हालिया अन्य राज्य विधानसभा चुनावों से दूर रखा, वैसे ही वे लोकसभा चुनाव में अपनी पार्टी को ग्रामीण क्षेत्रों से दूर रखें. दिल्ली की सफलता के बाद उनकी नजर यदि भारत के अन्य महानगरों की नगर परिषदों और पालिकाओं पर हो तो आश्चर्य नहीं. हाल के चुनावों ने इतना तो सिद्ध कर दिया है कि कांग्रेस के प्रति लोगों का भारी गुस्सा है, पर जहां तक संभव हो वे किसी ऐसी पार्टी को भी नहीं चाहते जो सांप्रदायिक कही जाती हो. राजस्थान, मध्यप्रदेश या छत्तीसगढ़ में चूंकि भाजपा ही एकमात्र विकल्प थी, इसलिए लोगों ने उसे चुना, पर दिल्ली में एक अन्य विकल्प के दिखते ही वे उसके साथ हो गये.

आगामी लोकसभा चुनाव के लिए कांग्रेस तथा भाजपा से इतर अनेक ताकतें पहले से ही मौजूद हैं. उनके बीच आम आदमी पार्टी अपना क्या स्थान बना पाती है, यह देखना होगा. हो सकता है कि केजरीवाल तीसरे विकल्प के लिए उत्प्रेरक का काम करें, पर इससे उनकी अपनी विशिष्टता खत्म हो सकती है. केजरीवाल ऐसी गलती न करें, यही देश और लोकतंत्र के हित में होगा.

देश को जो स्वच्छ और स्वस्थ राजनीति वह देना चाहते हैं, किसी भी विलय से उसको झटका लगेगा. उन्हें चाहिए कि वे संसद का चुनाव पूरे देश में आम आदमी के दम पर ही लड़ें, दूसरे दलों के सहारे नहीं. उन्हें यदि कुछ सीटें ही मिलती हैं, तो संसद में वे किसी भी मसले पर गंभीर हस्तक्षेप तो कर ही सकेंगे. और कौन जाने, कहीं सारे क्षेत्रीय एवं जातीय समीकरण फिर उसी तरह गौण हो जाएं, जैसा कि जनता पार्टी या जनता दल के समय हुआ था.

* दिल्ली के रास्ते पूरे देश में बदलाव के संकेत

।। मनीष सिसोदिया ।।

(नेता, आम आदमी पार्टी)

आपातकाल के दौरान जयप्रकाश नारायण ने जब इंदिरा गांधी के खिलाफ बिगुल फूंका तो नतीजा यह निकला कि देश में सत्ता बदल गयी. लेकिन उनका मूल मकसद सत्ता परिवर्तन नहीं, व्यवस्था परिवर्तन था. जेपी इस भ्रष्ट व्यवस्था को बहुत बड़ी चोट देकर गये थे. हम भी वही काम कर रहे हैं. जेपी के काम को ही आगे बढ़ा रहे हैं. हमारी पूरी लड़ाई का केंद्रीय मुद्दा चेहरा नहीं, बल्कि व्यवस्था परिवर्तन है और इस व्यवस्था में परिवर्तन तभी संभव है, जब भ्रष्टाचार खत्म हो. आम आदमी को उसका अधिकार मिले. बंद कमरों में बैठ कर चंद लोग (पार्टी हाइकमान) नहीं बल्कि खुले मैदान में, सबके सामने जनता यह तय करे कि उन्हें किस तरह की सरकार और व्यवस्था चाहिए.

दिल्ली में आम आदमी पार्टी का अगला कदम क्या होगा, यह तो आनेवाले दिनों में तय होगा, लेकिन दिल्ली के जरिये देश के लिए संकेत साफ है. दिल्ली की जनता ने जनमत के जरिये यह स्पष्ट संकेत दिया है और उन संकेतों को गहराई से परखें, उनके लक्षणों को देखें तो साफ है कि दिल्ली के नतीजे देश की राजनीति में बदलाव के संकेत हैं. दिल्ली की तरह ही देश भी बदलाव के लिए तैयार है और निशाने पर वंशवाद की राजनीति, अभिजात्य होने की राजनीति और अपराध एवं भ्रष्टाचार के दम पर टिकी राजनीति है. इस बदलाव के असली एजेंट आम आदमी पार्टी या इसके 5-6 चेहरे नहीं, बल्कि हर आदमी के अंदर बैठा वह गुस्सा है, जो वर्षो के शोषण से पनपा है.

अब तक जनता यह मानकर चल रही थी कि उनके पास विकल्प नहीं है, लेकिन आज उन्हें विकल्प दिख रहा है. आज उन्हें खुद पर भरोसा हुआ है कि वे विकल्प ला सकते हैं. जिस तरह से आम आदमी पार्टी के आम चेहरों को दिल्ली की जनता ने सिर-माथे पर बिठाया है, उनकी नीति-रीति में विश्वास व्यक्त किया है, उसे देखते हुए यह भरोसा हुआ है कि देश में साफ-सुथरी राजनीति की जगह बची हुई है. यह भरोसा सिर्फ हमारे ऊपर नहीं, बल्कि अपने ऊपर करना है. जब आम आदमी खुद के भरोसे को मतपत्र के जरिये व्यक्त करता है, तभी तो एक सामान्य पत्रकार राखी बिड़ला, छात्र अखिलेश मणि त्रिपाठी, धर्मेद्र कोली, संजीव झा जैसे लोगों को राजनीति में आने का मौका मिलता है. इसलिए राजनेताओं पर भरोसा करने से ज्यादा जरूरी है, अपने ऊपर भरोसा करना.

अभी तक यही होता आया था कि राजनीति और राजनेता दोनों ही जन सरोकारों से पूरी तरह कटे हुए थे. जमीनी मुद्दों, जमीनी समस्याओं को जड़ से खत्म करने के बजाय बनावटी सवालों और समस्याओं के इर्द-गिर्द सजावटी बातें कर देश की राजनीति को भ्रष्ट कॉरपोरेट तंत्र के हवाले करने का खेल चल रहा था. समस्या जनता को है, लेकिन समाधान के लिए जनता से पूछे जाने की किसी भी राजनीतिक दल को जरूरत महसूस नहीं हो रही थी.

देश में सांप्रदायिक राजनीति के सवाल को उठाया जा रहा है. सांप्रदायिकता के सवाल पर पूरी राजनीति को नरेंद्र मोदी-बनाम राहुल गांधी के इर्द -गिर्द केंद्रीत करने का प्रयास चल रहा है. लेकिन जनता चौकन्नी है. जनता समझ रही है कि सांप्रदायिकता आदि मुद्दे भ्रष्ट राजनीति को किसी भी कीमत पर बचाये रखने के लिए पनपाये गये थे, और आगे भी चाशनी चढ़ाकर लोगों के सामने पेश करने का प्रयास हो रहा है, ताकि एक बार फिर से जनता को धोखा दिया जा सके. हमारा मानना है कि भ्रष्टाचार को खत्म किये बिना सांप्रदायिकता को खत्म नहीं किया जा सकता. अभी तक राजनीतिक दल देश के संसाधनों को और लोगों की मेहनत की कमाई को अपने शिकंजे में लेने के लिए राजनीति करते आये हैं. अपनी इसी राजनीति को बचाने के लिए वे संप्रदाय, जात-पात, क्षेत्रवाद की राजनीति को बढ़ावा देते आये हैं.

राजनीतिक दल मुद्दों पर बात नहीं करना चाहते. लोगों की जिंदगी नर्क बनी हुई है. आजादी के 66 वर्ष बाद भी हम लोगों को साफ पीने का पानी मुहैया नहीं करा पाये हैं. इससे बड़ी बात क्या हो सकती है. वैसे तो हमने पहले ही कह दिया है कि हम आगामी लोकसभा चुनाव में जनता के बीच जाकर देशव्यापी स्तर पर हस्तक्षेप का प्रयास करेंगे. बिहार तो सामाजिक-राजनीतिक क्रांति की धरती है. बिहार-झारखंड में प्रचुर मात्र में प्राकृतिक संसाधन हैं. इस संसाधन पर दुनिया के मुनाफाखोरों की नजर लग गयी है. वहां से आम आदमी पार्टी को अच्छा रिस्पॉन्स मिल रहा है. लोग बदलाव के लिए व्याकुल हैं. बिहार की राजनीति के एक नेता खुद भ्रष्टाचार के आरोपों में जेल से जमानत पर लौटे हैं और सांप्रदायिकता की हवा-हवाई बातें कहकर कांग्रेस के साथ गंठबंधन के प्रयास में लगे हुए हैं, लेकिन जनता सच जानती है.

सुशासन के नाम पर भी लोगों को ठगा जा रहा है. मुङो लगता है कि सुशासन की बात कहना फर्जीवाड़ा है. अपनी राजनीति को चमकाने का जरिया है. देश को सुशासन की नहीं, स्वशासन की दरकार है. और यह स्वशासन तब तक नहीं आयेगा, जब तक मंत्रलय में बैठ कर अधिकारी ही तमाम चीजों को तय करेंगे. हम तो जनता को अपनी जरूरत के मुताबिक चीजों को तय करने का अधिकार देना चाहते हैं. मुहल्ला सभा, ग्राम सभा को मजबूत कर उन्हें अपने हित की नीतियों को तय करने का अधिकार देने की बात करते हैं और यही स्वशासन है. हम अन्य राजनीतिक दलों की तरह बनावटी सवालों पर राजनीति नहीं करते, बल्कि लोगों को सपना देखने का हौसला देते हैं. और जब व्यक्ति हौसला करता है, तभी सपनों को हकीकत में बदलने का काम शुरू होता है. देश में जिस तरह का माहौल बना हुआ है, उसे देखते हुए हमारे लिए राष्ट्रीय राजनीति में अच्छा अवसर है.

(संतोष कुमार सिंह से बातचीत पर आधारित)

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