आखिरकार जनादेश आ ही गया. महंगाई, भ्रष्टाचार सहित अन्य समस्याओं से त्रस्त जनता का गुस्सा चार राज्यों के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस पर कहर बन कर टूटा. वहीं नरेंद्र मोदी लहर पर सवार भाजपा ने राजस्थान, मध्यप्रदेश में जबरदस्त जीत, तो छत्तीसगढ़ में कांटे की टक्कर के बीच विजेता बनी. दिल्ली ने भी भाजपा को निराश नहीं किया है, लेकिन यहां अरविंद केजरीवाल की पार्टी आप को दिल से जिताया. आप की इस अभूतपूर्व सफलता से भाजपा और कांग्रेस दोनों भौचक हैं. दोनों ने कहा कि आप ने भारतीय राजनीति को नयी दिशा दी है. अब भाजपा नेता जनता को राहत देने की बात कर रहे हैं, तो कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी और राहुल गांधी ने कहा है कि उन्होंने इससे सबक लिया है और अब जनता के लिए मन लगा कर काम करेंगे.
* सोशल मीडिया पर आप
सोशल मीडिया पर आम आदमी पार्टी (आप) की जीत को लेकर जश्न का माहौल है. अपने खास अंदाज में एनडीटीवी के पत्रकार रवीश कुमार ने लिखा है, आज लिटिल लिटिल इंगलिश में बोलने का मन कर रहा है, वेल डन अरविंद केजरीवाल, वेल डन आम आदमी पार्टी.
फेसबुक पेज फेकिंग न्यूज पर एक पोस्ट खासी दिलचस्प है- जो दारू भाजपा और कांग्रेस दिल्ली में नहीं बांट पायी थी, वो अब आम आदमी के समर्थकों को जीत का जश्न मनाने के लिए दी जायेगी. जनसत्ता के संपादक ओम थानवी लिखते हैं, मोदी की हवा है, तो दिल्ली में हवा निकली कैसे? आप को एक अंक में समेटने वाले मौन क्यों हैं? पत्रकार राणा अयूब ट्विटर पर लिखती हैं, कुछ महीने पहले प्रशांत भूषण ने कहा था कि उनकी पार्टी दिल्ली में सरकार बनायेगी और 2014 के चुनाव में वो निर्णायक भूमिका में होंगे और तब हमने सोचा था कि वो नामुमकिन को मुमकिन बनाने जैसी बात कह रहे हैं!
किरण बेदी ने ट्विट किया है, भाजपा की सरकार और आप के जिम्मेदार विपक्ष के रूप में दिल्ली के लोग एक जवाबदेही वाली सरकार की उम्मीद कर सकते हैं. हालांकि ये तभी होगा जब राज्य में राष्ट्रपति शासन न लागू हो. देखते हैं!
राष्ट्रपति चुनावों की आशंका को आगे बढ़ाते हुए पत्रकार प्रभात शुंगलु ने फेसबुक पर लिखा, दिल्ली में दोबारा चुनाव कब होंगे, इस पर चुनाव आयोग जरा काम करना शुरू कर दे! अंगरेजी के जाने-माने लेखक व स्तंभकार चेतन भगत ने लिखा, कांग्रेस को कम से कम अब सुनना होगा.
* संकेत साफ हैं, राजनीति में अब सबकुछ नहीं चलेगा
।। रामबहादुर राय ।।
(वरिष्ठ पत्रकार)
चार राज्यों के विधानसभा चुनावों के नतीजों पर गौर करें तो यह साफ हो गया है कि भले ही इन चुनावों में स्थानीय नेतृत्व और स्थानीय मुद्दों का प्रभाव रहा है, लेकिन सभी राज्यों में भाजपा के बेहतर प्रदर्शन में पार्टी के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार नरेंद्र मोदी का स्पष्ट प्रभाव दिखाई दे रहा है. उनकी सभाओं में उमड़ती भीड़ को देखते हुए उनकी दिन-प्रतिदिन बढ़ती लोकप्रियता का अंदाजा तो लग ही रहा था; लेकिन सभाओं की उमड़ती भीड़ मत में तब्दील होगी, इसको लेकर आशंका थी. नतीजा सामने आने पर यह आशंका निर्मूल साबित हुई है.
जहां तक नरेंद्र मोदी के मुकाबले राहुल गांधी की राजनीति का सवाल है, कांग्रेस पार्टी के अंदर भी उनके नेतृत्व कौशल को गंभीरता से नहीं लिया जाता. फिर कांग्रेस के बाहर के राजनीतिक दलों में राहुल गांधी को गंभीरता से लिये जाने का तो सवाल ही नहीं है. वैसे भी किसी राजनीतिक परिवार की तीसरी-चौथी पीढ़ी में पहलेवाली तेजस्विता नहीं रह जाती. इसलिए, अब राहुल गांधी को भविष्य में भी निराशा हाथ लगेगी. वैसे भी भले ही 2014 के लोकसभा चुनाव तक यह नहीं हो, लेकिन उसके बाद कांग्रेस टूटेगी. पार्टी अब नेहरू वंश से खुद को मुक्त करना चाहेगी और यह कांग्रेस के लिए शुभ संकेत भी होगा.
चारों राज्यों के नतीजों में यह साफ दिख रहा है कि नरेंद्र मोदी की सभाओं में उमड़ी भीड़ वोट में तब्दील हुई और भाजपा को प्रत्यक्ष रूप से इसका फायदा मिला है. उदाहरण के तौर पर अगर दिल्ली को ही देखें तो चुनावी मुहिम शुरू होने के पहले यह स्पष्ट दिखाई दे रहा था कि प्रदेश में कांग्रेस की वापसी हो रही है और शीला दीक्षित मजबूत स्थिति में हैं.
चुनाव के दौरान माना गया कि मुख्य मुकाबला कांग्रेस और भाजपा के बीच है और आप त्रिकोण बना रहा है. चुनाव परिणाम आने के बाद पासा पलटा हुआ नजर आ रहा है. भाजपा बहुमत के करीब है और आप, जिसके विषय में कहा जा रहा था कि इनसे कोई मुकाबला नहीं है, वह प्रमुख विपक्ष के रूप में उभरा है. इसके दो कारण नजर आ रहे हैं. जैसे ही दिल्ली में नरेंद्र मोदी की रैली शुरू हुई, दिल्ली में भाजपा का ग्राफ ऊपर उठने लगा. भाजपा के सोये हुए कार्यकर्ता संगठित दिखाई देने लगे. चुनाव अभियान शुरू होने पर कांग्रेस की तरफ से बराबर सवाल उठाया जा रहा था कि भाजपा का मुख्यमंत्री पद का उम्मीदवार कौन है? भाजपा ने इसका जवाब देते हुए हर्षवर्धन जैसे बेदाग चेहरे को चुनाव मैदान की अगुआई सौंपी.
इस लिहाज से नरेंद्र मोदी के रूप में भाजपा को राष्ट्रीय स्तर का मजबूत नेता और हर्षवर्धन के रूप में बेदाग प्रत्याशी मिलने का फायदा हुआ. संगठनात्मक स्तर पर तो पार्टी पहले से खड़ी थी ही. इन दोनों ने मिल कर इसे नयी धार दी. नतीजा सामने है कि भाजपा सबसे बड़े दल के रूप में उभरी है. हालांकि, आंदोलन से उपजी पार्टी ने दूसरे स्थान पर पहुंचकर अपनी मजबूत छाप छोड़ी है.
दिल्ली में बड़ी संख्या में लोगों ने आम आदमी पार्टी को वोट दिया. मतदाता केजरीवाल के रूप में दिल्ली में एक मजबूत दावेदार देख रहा था, लेकिन इस वक्त आम चुनाव के लिए ज्यादातर मतदाताओं की पसंद केजरीवाल नहीं, बल्कि नरेंद्र मोदी हैं. इस लिहाज से इस चुनाव का सीधा संबंध लोकसभा के साथ जुड़ गया है.
आप ने दिल्ली में एक नया प्रयोग करते हुए मजबूत दावेदारी पेश की है, भविष्य में इस प्रयोग को और विस्तार देते हुए वह राष्ट्रीय स्तर पर अपने फैलाव की पुरजोर कोशिश करेगी. अन्य राज्यों में भी ऐसे ही प्रयोग दिखाई देंगे. आप को अन्ना आंदोलन का फायदा मिला और जन आंदोलन राजनीतिक पार्टी के रूप में रूपांतरित हो गया. इसके जरिये यह संकेत भी जनता ने दिया है कि राजनीति में अब सबकुछ नहीं चलता है. साथ ही, भ्रष्टाचार में संलिप्त रहनेवाले नेताओं के लिए भी संकेत हैं. इसलिए आगे चल कर आप की सीट पर जीत हासिल करनेवाले और पार्टी के कामकाज पर जनता की नजर होगी. साथ ही, इनके सामने जनता की उम्मीदों पर खरा उतरने की चुनौती होगी.
अगर छत्तीसगढ़ की बात करें तो प्रदेश में रमन सिंह के कहे अनुसार ही प्रत्याशी तय किये गये. पार्टी का प्रचार कार्यक्रम के निर्धारण में भी उनकी अहम भूमिका रही. छत्तीसगढ़ में भी भाजपा कांग्रेस के साथ कड़े मुकाबले के बावजूद आखिरकार जीत हासिल करने में कामयाब हुई.
रमन सिंह को इस जीत का श्रेय निश्चित रूप से दिया जाना चाहिए, लेकिन इस जीत को इस पैमाने पर भी देखने की जरूरत है कि अगर नरेंद्र मोदी छत्तीसगढ़ नहीं गये होते, तो शायद चुनाव परिणाम कांग्रेस के पक्ष में होता, क्योंकि राज्य में कई स्थानों पर भाजपा बनाम भाजपा की लड़ाई देखी गयी. भाजपा के खिलाफ भाजपा के ही लोग बागी के रूप में नजर आ रहे थे. मोदी ने अगर मोर्चा नहीं संभाला होता तो वहां भाजपा पिछड़ जाती.
मध्यप्रदेश में भाजपा के आने के संकेत पहले से ही मिलने लगे थे. हालांकि, कांग्रेस ने ज्योतिरादित्य को चुनाव अभियान की कमान देकर ग्वालियर संभाग समेत अन्य इलाकों में मजबूत टक्कर देने का प्रयास किया. लेकिन ऐसा लगता है कि पार्टी को इसका लाभ नहीं मिल पाया. ऐसा नहीं था कि मध्य प्रदेश में नाराजगी नहीं थी. वहां दो तरह की नाराजगी थी. एक तो शिवराज के विधायक और कई मंत्रियों के कामकाज से जनता नाराज थी. वहीं, दूसरी ओर अधिकारियों के खिलाफ जिस तरह से भ्रष्टाचार के मामलों में संलिप्तता की बातें सामने आ रही थीं, यह भी पार्टी के लिए परेशान करनेवाली बात थी. लेकिन शिवराज ने अपनी यात्राओं के जरिये जनता से सीधा संपर्क बनाये रखा और जनता को यह संदेश देने में कामयाब हुए की ऊपर बैठा आदमी सब कुछ ठीक कर सकता है. इसके साथ ही उन्होंने कल्याणकारी योजनाओं को भी बेहतर तरीके से लागू किया.
हालांकि, दिल्ली में शीला दीक्षित की सरकार और राजस्थान में अशोक गहलोत की सरकार ने भी गरीब तबके को सीधे-सीधे तौर पर फायदा पहुंचाने वाली सभी कल्याणकारी योजनाओं को बखूबी लागू किया. वृद्धावस्था से लेकर बैंक खाते में नकदी डालने की योजनाओं को भी अमली जामा पहनाने की भरपूर कोशिश की गयी. उनके विषय में जनता की राय भी ठीक थी, लेकिन कांग्रेस के केंद्रीय नेतृत्व की विफलता और उनका लुंज-पुंज रवैया उन्हें भारी पड़ा. इस चुनाव से यह भी साफ हो गया है कि सिर्फ पैसा बांट कर या ऐन चुनाव के वक्त पर लोक लुभावनी घोषणा करके चुनाव नहीं जीता जा सकता. हालांकि, हक और अधिकार के लिए चलायी जा रही इन्हीं योजनाओं को अगर ठीक तरीके से लागू किया जाये, तो जनता इसका सकारात्मक जवाब भी देती है, और शिवराज सिंह चौहान को इस बात का क्रेडिट दिया जाना चाहिए.
(संतोष कुमार सिंह से बातचीत पर आधारित)
* बदलाव की चाहत के साथ जागरूक हुआ है युवा
अब करीब सौ फीसदी युवा वोट डालने के लिए निकल रहे हैं, यह बहुत बड़ा परिवर्तन है
।। यशवंत देशमुख ।।
(चुनाव विश्लेषक)
देश के पांच राज्यों में हुए विधानसभा चुनावों में इस बार युवाओं ने बढ़-चढ़ कर हिस्सा लिया. पोलिंग बूथों पर उमड़ी युवाओं की भीड़ ने यह साबित किया कि आज के युवाओं में राजनीति और मुद्दों को लेकर जागरूकता कुछ बढ़ी है और अब यह उम्मीद की जा सकती है कि आगामी चुनावों में भी इनकी महती भूमिका होगी. लेकिन जहां तक राजनीति में युवाओं के मुद्दों या पार्टियों को तरजीह देने का सवाल है, तो ऐसा कोई पुख्ता आंकड़ा नहीं है और न ही यह कहा जा सकता है कि युवाओं ने इनमें से किसे ज्यादा तरजीह दी.
हां, दिल्ली में ज्यादातर युवाओं ने आम आदमी पार्टी को वोट किया. दिल्ली में यह टर्नआउट (मतदान वृद्धि) एक अलग विषय है, क्योंकि अप्रैल, 2011 में हुए अन्ना आंदोलन के समय से ही युवा अन्ना हजारे और अरविंद केजरीवाल से बहुत प्रभावित रहे. लेकिन बाकी जगहों पर युवाओं ने वैसे ही वोट दिया, जैसे सभी आम मतदाताओं ने वोट दिया.
दरअसल, अन्ना आंदोलन के बाद जिस तरह से देश में एक युवा-लहर हमारे सामने आयी थी, उस लहर ने युवा-जागरूकता का एक बेहतरीन परिचय दिया. पहले का युवा राजनीति और नेताओं की प्रति काफी हद तक उदासीन हुआ करता था, आज के दौर में ऐसा बिल्कुल भी नहीं है. अब वह सिर्फ मताधिकार का प्रयोग करने के लिए ही जागरूक नहीं हुआ है, बल्कि वह इसके जरिये देश में किसी न किसी तरह से एक बदलाव चाहता है. यही कारण है कि युवाओं ने अब सोच लिया है कि हम भले ही कुछ और नहीं कर सकते, लेकिन वोट तो कर ही सकते हैं. इस तरह राजनीति को लेकर युवाओं के सोच में व्यापकता आयी है और अब वे देश के हर छोटे-बड़े मसले पर अपनी प्रतिक्रिया देने लगे हैं.
भ्रष्टाचार-मुक्त देश की परिकल्पना लिये अन्ना हजारे के आंदोलन ने युवाओं में जैसे जान फूंक दी और देश की कमजोर व्यवस्था के खिलाफ वे उठ खड़े हुए. इस देश में भ्रष्टाचार बहुत पहले से था, अन्ना आंदोलन के पहले से ही और महंगाई लगातार बढ़ ही रही थी, लेकिन इसके लिए लोगों के पास मुखालिफत से भरा कोई नगमा नहीं था, जिस पर वे झूम सकें. अन्ना आंदोलन से यह नगमा तैयार हुआ तो देश के सिर्फ युवा ही नहीं, बड़े-बूढ़े-बच्चे सभी इस पर झूमने लगे.
अन्ना के पहले भ्रष्टाचार और महंगाई को लेकर कुछ लोग अपना विरोध तो दर्ज कराते थे, लेकिन वह युवाओं को एक मंच प्रदान नहीं कर पाते थे. दरअसल, अन्ना हजारे के व्यक्तित्व ने देश के युवाओं के जेहन में एक गांधीवादी आदर्श की तसवीर बना दी. जो युवा गांधी और जेपी के आंदोलनों के बारे में पढ़ता आया, उसे वह कुछ उन आंदोलनों से मिलता-जुलता लगा, तो वे उससे जुड़ते चले गये.
हालांकि अन्ना हजारे के आंदोलन का लोगों ने अपने-अपने तरीके से राजनीतिक इस्तेमाल किया, जो एक अलग विषय है. एक पूरी राजनीतिक पार्टी बन गयी, वह भी एक अलग विषय है. लेकिन मूलत: गैर-राजनीतिक ढंग से युवाओं को प्रेरित करने के लिए, देश के लिए कुछ काम करने के लिए जेपी आंदोलन के बाद अगर देश में कोई बड़ा आंदोलन हुआ तो वह अन्ना आंदोलन ही है. जैसे जेपी आंदोलन के समय युवाओं ने बढ़-चढ़ कर भूमिका निभायी थी, अन्ना के समय भी इन्हीं युवाओं ने फिर से मोर्चा संभाला. यही वजह है कि पिछले दो साल से देश में जहां भी चुनाव हो रहे हैं, वहां युवाओं की राजनीतिक सक्रियता बढ़ रही है. इसके लिए कुछ लोग चुनाव आयोग को श्रेय देते हैं. लेकिन चुनाव आयोग की इसमें कितनी भूमिका है, कैसे कहा जा सकता है? आयोग सभी चुनावों को अच्छे से संपन्न कराये, यह अच्छी बात है, लेकिन वोटिंग टर्नआउट में इसकी बड़ी भूमिका नहीं है. अकेले आयोग मतदान प्रतिशत नहीं बढ़ा सकता, वह सुरक्षित मतदान करा सकता है, जो उसका काम है.
बिहार में 1995 के चुनाव में भारी मतदान हुआ था, जब लालू यादव फिर से जीत गये थे. पहले लालू ने तात्कालिक चुनाव आयुक्त टीएन शेषन की खूब बुराई की, लेकिन बाद में उन्होंने तारीफ भी की. ऐसा इसलिए, क्योंकि आयोग की सुरक्षा व्यवस्था के तहत उस तबके ने भी वोट दिया, जो कभी वोट नहीं डाल पाता था. मौजूदा दौर में आयोग अगर कुछ अच्छा कर रहा है तो इसमें टीएन शेषन का बहुत बड़ा योगदान है. नवीन चावला को श्रेय नहीं जायेगा, क्योंकि उनकी नियुक्ति राजनीतिक नियुक्ति थी.
इस तरह देखें तो मौजूदा दौर में देश में जो भी सामाजिक नेता हैं, उन्होंने राजनीतिक नेताओं की अपेक्षा ज्यादा उम्दा काम किया है और यही युवाओं के लिए प्रेरणा का स्नेत भी बना. मूलत: अन्ना आंदोलन ने युवाओं को राजनीति के प्रति जागरूक होने में अपनी महती भूमिका निभायी है और इस जागरूकता के सकारात्मक नतीजों से इनकार नहीं किया जा सकता. अगर दिल्ली चुनावों की बात करें तो वहां ज्यादातर युवाओं ने आम आदमी पार्टी को ज्यादा पसंद किया.
हालांकि यह नहीं कहा जा सकता कि सौ में से सौ ने आप को वोट देकर स्थापित पाटिर्यो को नकार दिया. मुङो नहीं लगता कि सौ में 60 या 70 युवाओं ने आप को वोट दिया. हालांकि पहले यह होता था कि सौ में से बहुत कम युवा वोट देने जाते थे, लेकिन आज लगभग सौ फीसदी युवा वोट दे रहे हैं. यह उनके अंदर आयी आधारभूत जागरूकता का ही परिणाम है, जो लोकतंत्र के लिए एक शुभ संकेत है. अब वे बाहर निकल कर वोट देने में यकीन रखते हैं और उनमें यह सोच सामाजिक आंदोलन से आया है, न कि किसी राजनीतिक या प्रशासनिक मुहिम से.
मौजूदा दौर में राजनीति में युवा सक्रियता के लिए तीन चीजें बहुत ही अहम हैं. तीन श्रेय हैं- पहला श्रेय अन्ना हजारे के आंदोलन को जाता है, दूसरा श्रेय मीडिया को जाता है, जिसने युवाओं की हर सक्रियता को लोगों के सामने लाया, और तीसरा श्रेय चुनाव आयोग को जाता है, जिसने सुरक्षित मतदान की व्यवस्था की. सामाजिक आंदोलन ने जिस विचार को जन्म दिया, उसे मीडिया ने खूब दिखाया और उसके बाद चुनाव आयोग सुरक्षित चुनाव प्रणाली के लिए अच्छे प्रशासकों को उतारा, जो बेहद कामयाब रहा. हालांकि कुछ लोग एक पार्टी के एक चर्चित नेता को इसका श्रेय मान रहे हैं, लेकिन यह पूरी तरह सही नहीं है. अगर कोई पार्टी या नेता देश के युवाओं को जागरूक करने में सक्षम होता तो यह बहुत पहले हो जाता, क्योंकि पूर्व के कई नेता वर्तमान नेताओं से ज्यादा ओजस्वी और कर्मशील नेता थे.
भ्रष्ट नेताओं को नकारने के उद्देश्य से सामाजिक आंदोलनों की मांग पर इस बार नोटा (नन ऑफ दि एवव) का इस्तेमाल किया गया. लेकिन इससे कोई फर्क नहीं पड़नेवाला. क्योंकि अगर 99 प्रतिशत वोट भी नोटा पर पड़े तब भी जिसको एक प्रतिशत वोट मिलेगा, वह विजेता होगा. ऐसे में इसका फायदा क्या है? यह तो वही है कि जितने प्रतिशत नोटा का इस्तेमाल हुआ, उसे ऐसे माना जा सकता है कि उतने प्रतिशत वोट ही नहीं पड़े. यह तो वोट की बर्बादी हुई. यह हो कि नोटा की संख्या अधिक होने पर जो चुनाव लड़ रहे हैं, उनका परचा कैंसिल कर दिया जाये, या उन्हें पांच-छह साल के लिए चुनाव लड़ने से वंचित कर दिया जाये, तब कहीं जाकर इसका सार्थक उपयोग नजर आयेगा.
(बातचीत : वसीम अकरम)
* बदल रही है राजनीति
।। रविंदर कौर ।।
(समाजशास्त्री, आइआइटी)
विधानसभा चुनाव के दौरान सभी राज्यों में भारी मतदान के कारण परिणाम को लेकर अनिश्चितता बनी हुई थी. लेकिन चुनाव परिणामों ने मतदाताओं की पसंद को साफ कर दिया है. सबसे चौंकानेवाला परिणाम रहा दिल्ली विधानसभा चुनाव का. चुनाव से लगभग एक साल पहले बनी आम आदमी पार्टी के शानदार प्रदर्शन में युवाओं का योगदान अहम रहा है. इसे विकास की जीत नहीं, बल्कि भ्रष्टाचार के खिलाफ जनता के गुस्से की जीत माना जाना चाहिए. देश में युवा, जिसे डेमोग्राफिक डिविडेंड कहते हैं, वह पारदर्शी और जवाबदेह सरकार चाहता है.
भविष्य में भारत कैसा होगा, उसके बारे में आज का युवा सोचता है. दिल्ली और केंद्र सरकार युवाओं का भरोसा नहीं जीत पायी. नये वोटरों ने पूरे उत्साह के साथ मतदान में हिस्सा लिया. ये वही युवा थे जिन्होंने भ्रष्टाचार के खिलाफ अन्ना आंदोलन में सक्रिय भूमिका निभायी थी. इसका फायदा आम आदमी पार्टी को मिला, क्योंकि उस आंदोलन में अरविंद केजरीवाल भी शामिल थे.
दूसरी तरफ, जनलोकपाल कानून को लेकर राजनीतिक दलों ने जिस प्रकार का रवैया अपनाया, उससे युवाओं के बीच गलत संदेश गया. साथ ही मौजूदा यूपीए सरकार के दौरान भ्रष्टाचार और आर्थिक बदहाली के कारण तथा रोजगार की कमी के कारण युवाओं में जबरदस्त आक्रोश था. 2008 के बाद देश की लगातार खराब होती आर्थिक स्थिति का सबसे प्रतिकूल असर युवाओं पर ही पड़ा. आर्थिक विकास दर में गिरावट के कारण न सिर्फ नौकरियों की संख्या कम हुई, बल्कि बहुत से युवाओं को रोजगार से हाथ धोना पड़ा. इन मुद्दों के अलावा आम आदमी पार्टी ने कई वादे किये, जैसे बिजली की दरों को आधा करना, हर परिवार को 700 लीटर रोजाना पानी मुफ्त में देना भी लोगों को भा गया.
इस जीत के बाद यह मान लेना कि राष्ट्रीय स्तर पर आम आदमी पार्टी का विस्तार होगा, जल्दबाजी होगी. लेकिन एक बात स्पष्ट है कि चुनाव में मिली सफलता के बाद पार्टी का आम चुनाव से पहले राष्ट्रीय स्तर पर नेटवर्क खड़ा हो जायेगा. इस पार्टी में आम आदमी के अलावा इंजीनियर और अन्य पेशेवरों की एक बड़ी टीम है. यह टीम तकनीक के इस्तेमाल में माहिर है.
आज सोशल मीडिया प्रचार का बड़ा माध्यम बन गया है और खास बात यह है कि इसका सबसे ज्यादा इस्तेमाल युवा ही करते हैं. इसके अलावा पार्टी को फंड की भी कमी नहीं हुई. दिल्ली चुनाव में भी विदेशों में रह रहे भारतीयों ने आप की बहुत मदद की. आप कभी सत्ता में नहीं रही, इसलिए भ्रष्टाचार मुक्त शासन देने के उसके वादे पर जनता ने भरोसा किया. लेकिन एक खतरा भी है. अगर पार्टी लोगों की उम्मीदों पर खरा नहीं उतर पायी, तो इसका नकारात्मक असर भी पड़ सकता है.
अन्य राज्यों में भी जिस पार्टी के कामकाज से लोग संतुष्ट थे, उन्होंने उसके पक्ष में मतदान किया. लेकिन यह मान लेना कि अब जाति और धर्म की राजनीति के बदले विकास की राजनीति हावी हो रही है, पूरी तरह सही नहीं है. दिल्ली में वैसे भी यह मुद्दा उतना प्रभावी नहीं रहा है. दिल्ली एक प्रवासी शहर है. उत्तर प्रदेश, बिहार, मध्य प्रदेश, आंध्र प्रदेश की स्थितियां दिल्ली से अलग हैं. यह सही है कि आज का युवा विकास और जवाबदेही के आधार पर मतदान करता है, लेकिन कुछ हद तक जाति और धर्म के मुद्दे भी चुनाव को प्रभावित करते हैं. मुजफ्फरनगर दंगा इसका प्रमाण है. निश्चित तौर पर ध्रुवीकरण का लाभ किसी न किसी दल को मिलेगा. साथ ही स्थानीय मुद्दे भी चुनाव को प्रभावित करते हैं.
देश के सामने कई समस्याएं हैं, जैसे नक्सलवाद, आंध्र का विभाजन, कश्मीर. इन मुद्दों पर आम आदमी पार्टी का स्टैंड अभी स्पष्ट नहीं है. इन मुद्दों पर पार्टी को अपना स्टैंड लोगों के सामने पेश करना होगा. हाल के विधानसभा चुनाव के नतीजों और मौजूदा विधानसभा चुनाव के नतीजों से साफ है कि अब सिर्फ लोक-लुभावन योजनाओं के सहारे वोटरों का भरोसा नहीं जीता जा सकता है. अब लोग भ्रष्टाचार मुक्त और जवाबदेह सरकार चाहते हैं. सबसे खास बात है कि अब युवा सिर्फ सोशल मीडिया में ही सक्रिय नहीं हैं, बल्कि मतदान में भी बढ़-चढ़कर हिस्सा ले रहे हैं. चुनाव परिणामों को प्रभावित करने में इस वर्ग की भूमिका पहले के मुकाबले अधिक बढ़ी है. युवाओं की सक्रियता को सिर्फ शहरी क्षेत्र तक सीमित नहीं किया जा सकता है. आज का युवा न सिर्फ ईमानदार व्यक्तित्व को पसंद करता है, बल्कि भारत को विकसित राष्ट्र बनता देखना चाहता है. युवाओं को बेहतर शिक्षा के साथ ही सिर्फ घोषणाओं वाली सरकार नहीं, बल्कि काम करनेवाली और जल्द परिणाम देनेवाली सरकार चाहिए. एक बात साफ है कि युवाओं की भागीदारी से चुनाव में जाति और धर्म के मुद्दे की धार काफी हद तक कुंद हुई है.
(बातचीत : विनय तिवारी)
* दिल्ली से आ रहा नयी राजनीति का संदेश
।। संतोष कुमार सिंह ।।
जंतर-मंतर के मंच से जब अरविंद केजरीवाल और उनके साथी देश को राजनीतिक विकल्प देने की बात कह रहे थे, तब परदे के पीछे हो रही बैठकों में अन्ना हजारे के साथ राजनीतिक विकल्प में भागीदारी को लेकर माथापच्ची चल रही थी. केजरीवाल राजनीतिक विकल्प देने का रास्ता अख्तियार करने पर अड़े थे. टीम अन्ना से निकल कर केजरीवाल और उनके सहयोगियों द्वारा आप पार्टी का गठन किया गया. जहां से दिल्ली की मुख्यमंत्री शीला दीक्षित चुनाव लड़ेंगी, वहीं से चुनाव लड़ने की केजरीवाल की घोषणा राजनीतिक विश्लेषकों को एक नौसिखिए आंदोलनकारी की जज्बाती बातें ही ज्यादा नहीं लगी थीं.
व्यवस्था परिवर्तन का संकल्प व्यक्त करते हुए चुनावी राजनीति की ओर कदम बढ़ानेवाले केजरीवाल न सिर्फ कांग्रेस को दिल्ली की सत्ता से बेदखल करेंगे, बल्कि मुख्यमंत्री शीला दीक्षित को उनके विधानसभा क्षेत्र में 22 हजार वोट से करारी शिकस्त देंगे, इसका अनुमान किसी भी राजनीतिक मर्मज्ञ को नहीं था.
दिल्ली की राजनीति में ऐतिहासिक जीत हासिल करते हुए आम आदमी पार्टी भले ही सरकार बनाने से एक कदम पीछे रह गयी हो, भाजपा बहुमत के करीब पहुंच कर सरकार बनाने की स्थिती में हो, लेकिन इस परिणाम का संकेत साफ है. संकेत यह है कि आंदोलन का दौर अभी खत्म नहीं हुआ है. जब-जब किसी स्वच्छ छवि वाले नेता ने व्यवस्था के खिलाफ आवाज उठायी है, लोगों की परेशानियों, उनकी समस्याओं से खुद को जोड़ते हुए सच्चे मन से चुनावी राजनीति में कदम रखा है, तो आम-जनता ने उसे सर माथे पर बिठाया है. ऐसी राजनीति करनेवालों को चुनाव जीतने के लिए भ्रष्टाचारियों और अपराधियों को टिकट देने की जरूरत नहीं है, जातिगत समीकरण को टटोलने की जरूरत नहीं है.
आप की जीत इस लिहाज से बड़ी जीत है कि खुद केजरीवाल पर सवाल खड़ा करनेवाले, फंड की हेराफेरी का आरोप लगानेवाले, अपने नाम और तसवीर के इस्तेमाल पर आपत्ति जतानेवाले अन्ना हजारे आज भी उन्हें जीत का सही श्रेय देने को तैयार नहीं हैं. अन्ना ने कहा है कि केजरीवाल को जीत मिली है, लेकिन उनके द्वारा खिचड़ी की सरकार और चलती का नाम गाड़ी जैसे उपमाओं का प्रयोग बताता है कि वे केजरीवाल को जीत का सही श्रेय देने को तैयार नहीं हैं.
हालांकि भ्रष्टाचार के खिलाफ आंदोलन में शुरुआती दौर में केजरीवाल साथ खड़े रहे बाबा रामदेव ने केजरीवाल की जीत को राजनीति के इतिहास में बड़ी जीत करार दिया है. उन्होंने कहा है भले ही इस देश में जनांदोलनों को नकारा जा रहा था, लेकिन आप की जीत से यह साबित हुआ है कि देश सकारात्मक राजनीतिक विकल्प की तरफ आगे बढ़ रहा है.
चुनावी सर्वेक्षणों में मजबूत उपस्थिति दर्ज करा रही आप भले ही दिल्ली में सरकार नहीं बना पाये, बावजूद इसके एक प्रभावशाली विपक्ष के रूप में इसे प्रमुख भूमिका निभाना है. इतना ही नहीं आगामी आम चुनाव में पार्टी अपनी मजबूत उपस्थिति दर्ज करवायेगी, इसका भी संकेत इन चुनावी नतीजों से मिल रहा है.