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हमने राष्ट्रीय चरित्र गंवा दिया है!
– हरिवंश – आजादी की लड़ाई के तप और संघर्ष की तेज आग की आंच में, भारत का राष्ट्रीय चरित्र ढला. पर भोग की राजनीति की बाढ़ में हमारा वह राष्ट्रीय चरित्र भी धुल गया? या बह गया? आज किसी दल पर आप यकीन कर सकते हैं? किसी नेता पर भरोसा कर सकते हैं? देश […]
– हरिवंश –
आजादी की लड़ाई के तप और संघर्ष की तेज आग की आंच में, भारत का राष्ट्रीय चरित्र ढला. पर भोग की राजनीति की बाढ़ में हमारा वह राष्ट्रीय चरित्र भी धुल गया? या बह गया? आज किसी दल पर आप यकीन कर सकते हैं? किसी नेता पर भरोसा कर सकते हैं? देश में आज कोई ‘स्टेट्समैन’ है या उभर रहा है? स्टेट्समैन वह होता है, जिसकी निगाह सिर्फ सत्ता या परिवार या पार्टी पर नहीं होती.
जो अपनी जाति, धर्म या क्षेत्र के ढांचे में नहीं सोचता. जो पैसे या सत्ता के लिए अपनी आत्मा गिरवी नहीं रखता. जो जनता या भीड़ के मूड से नहीं चलता, बल्कि देशहित में ‘एकला चलो रे’ की राह अपनाता है. सच तो यह है कि आज मुल्क नेतृत्वविहीन हो गया है.
भारत में रोज नये कानून बनते हैं. अपराध नियंत्रण के लिए? भ्रष्टाचार रोकने के लिए? उग्रवाद पर काबू के लिए? राजनेताओं के पतन पर अंकुश लगाने के लिए? मसलन दल-बदल कानून. फिर भी देश अशासित, अनियंत्रित और अराजक क्यों? ब्रिटेन, जहां से लोकतंत्र की सीख हमने ली, वहां तो अलिखित संविधान है. पर स्वस्थ परंपराएं हैं. चरित्र है.
शब्द और कर्म में एका है. सार्वजनिक जीवन में कोई मामूली गलती कर वहां, राजनीति में नहीं टिक सकता. एक या दो के बहुमत से सरकार पांच साल चलती है. क्योंकि वहां राष्ट्रीय चरित्र है. पर भारत? अपराधी, जेल की सजा काट रहे, अनैतिक और भ्रष्ट ताकतों के सामने नतमस्तक होकर सत्ता पानेवाले भी पूजे जा रहे हैं. यह राष्ट्रीय जीवन के पतित चरित्र का नमूना है.
समझदार लोगों ने दूरदर्शी बात कही है कि हर संकट में भी एक अवसर छिपा होता है. केंद्र में, सरकार को लेकर जो खुला खेल हो रहा है, उससे देश की राजनीति का अंदरुनी सड़ांध और दुर्गंध तो सामने आ ही रहा है, भारत का राष्ट्रीय चरित्र, कितना खोखला, पाखंडी और पतित हो चुका है, यह भी दुनिया देख रही है.
सत्ता राजनीति की अंदरुनी दुनिया के पाप कर्म, पहले परदे के पीछे होते थे. जब से किसी एक दल को बहुमत मिलना बंद हुआ, तबसे नेताओं और पार्टियों के असली चरित्र उजागर होने लगे. सरकार बनाने और गिराने में, पतन की किस सीमा तक जा सकते हैं, यह घड़ी-घड़ी मीडिया के मंच से दिखने लगा है. देश चाहे तो इन दृश्यों को देख कर एक नयी यात्रा की राह पर चल सकता है. पर इसके लिए नयी राजनीति चाहिए.
आज किसी सांसद को अपने दल या नेता से कोई भय नहीं है. या लगाव नहीं है. खुलेआम बगावत हो रही है, क्योंकि स्वाभाविक तौर पर लोकसभा चुनाव वर्ष 2009 के आरंभ में होनेवाले हैं. अब सांसद आंक रहे हैं कि किस दल नेता या मंच से पुन: सांसद बन सकते हैं? ये सौदागर हैं, सांसद नहीं. इसलिए दल, विचारधारा या सिद्धांत, आदर्श फालतू हो गये हैं. धुर वाम से धुर दक्षिण तक रातोंरात सांसद करवट ले रहे हैं.
सांसदों के संबंध में जिम्मेवार नेता आरोप लगा रहे हैं कि 25 से 30 करोड़ की बोली लग रही है. दोनों पक्ष से ये आरोप लग रहे हैं.
नरसिंह राव ने अपनी सरकार बचाने के लिए ‘सांसद रिश्वत कांड’ का सहारा लिया. अब यह नुस्खा भारतीय राजनीति का लोकप्रिय दावं बन गया है. फर्ज करिए, कोई 10, 20 हजार करोड़ की ताकत, भारतीय राजनीति को अपने अनुसार नचाना चाहेगी, तो वह सफल होगी या नहीं? स्पष्ट है कि बिकाऊ नेता, चरित्रहीन नेता देश और समाज बेच देंगे. लोभियों के गांव में ठग उपास नहीं रहते? यह पुरानी कहावत है. और हमारे लोभी सांसद, कब-कहां देश को गिरवी रख देंगे, कहना मुश्किल है.
चरित्र और नैतिकता को मार्क्सवादी साथी ‘बुर्जुआ’ अवधारणाएं कहते हैं. वे कह सकते हैं, क्योंकि वे सुविधानुसार मुहावरे गढ़ते हैं. पाला बदलते हैं. मसलन, सोमनाथ जी भूल गये हैं कि 1993 में नरसिंह राव सरकार के खिलाफ उन्होंने भाजपा के साथ तत्कालीन सरकार के विरोध में मत डाला था.
बहरहाल यह विषयांतर है. पर यह तय है कि इस देश को नया राष्ट्रीय चरित्र चाहिए. और वह विवेकानंद, गांधी, सुभाष जैसे महापुरुषों की राह पर ही चल कर संभव है, ताकि बिकाऊ नेता न निकलें. आत्मकेंद्रित रहनुमा न उभरें. जाति, धर्म और क्षेत्र की बात करनेवाले नेता न बनें.
दिनांक : 20-07-08
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