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घर लौटे राहुल गांधी के सामने क्या हैं पांच बडी चुनौतियां?

नयी दिल्ली : कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी आज स्वदेश वापस लौट चुके हैं. उनकी वापसी से कांग्रेस कार्यकर्ताओं में उत्साह का माहौल है. राहुल गांधी की इस वापसी को उनकी राजनीति की दूसरी पारी की शुरुआत माना जा रहा है. कहा जा रहा है कि राहुल गांधी थाइलैंड में थे और उन्होंने वहां मेडिटेशन व […]

नयी दिल्ली : कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी आज स्वदेश वापस लौट चुके हैं. उनकी वापसी से कांग्रेस कार्यकर्ताओं में उत्साह का माहौल है. राहुल गांधी की इस वापसी को उनकी राजनीति की दूसरी पारी की शुरुआत माना जा रहा है. कहा जा रहा है कि राहुल गांधी थाइलैंड में थे और उन्होंने वहां मेडिटेशन व विपश्यना का कोर्स किया. माना जा रहा है कि ऐसा कर राहुल गांधी अपने व्यक्तित्व में अत्यधिक दृढता लाना चाहते हैं, जो उनके राजनीतिक सफर को अधिक सफल बना सके.
राहुल गांधी के नेतृत्व के सवाल पर उनकी पार्टी कांग्रेस भी बंटी हुई हैं. पार्टी का एक धडा मानता है कि अब नेतृत्व राहुल को दिया जाना चाहिए, वहीं दूसरे धडे का कहना है कि पार्टी का नेतृत्व अभी सोनिया गांधी ही करें. पार्टी के बुजुर्ग नेताओं को चिंता है कि राहुल गांधी को सीधे कमान मिलने के बाद अब उनकी पूछ पार्टी में कम हो जायेगी और टीम राहुल की ज्यादा चलेगी. राहुल को इस सब के बीच तालमेल बनाना होगा. आइए जानें राहुल के सामने क्या पांच बडी चुनौतियां हैं :
पार्टी के सीनियर नेताओं का विश्वास हासिल करना
राहुल गांधी को उस पीढी के नेताओं के साथ बेहतर तालमेल स्थापित करना होगा, जो उनके पिता व मां के साथ काम कर चुकी है. शीला दीक्षित, अमरिंदर सिंह, पी चिदंबरम, एके एंटोनी, अंबिका सोनी, आनंद कुमार ऐसे ही नेता हैं. सीनियर नेताओं में दिग्विजय सिंह व मधुसूदन मिस्त्री को राहुल गांधी के बेहद करीब माना जाता है. राहुल को पार्टी के दूसरे सीनियर नेताओं में मन के इस वहम को दूर करना होगा. यह काम वे अपनी कार्यशैली से ही कर सकेंगे.
परिदृश्य से गायब हो जाने से बचना
राहुल गांधी राजनीति के फ्रंटफुट पर रहते हैं और अचानक से गायब हो जाते हैं. सार्वजनिक जीवन का शख्स कहां है, क्या कर रहा है, इसको लेकर भ्रम की स्थिति रहती है. यह अनिश्चितता एक शून्य तैयार करती है, जो किसी और के लिए बल्कि उनकी पार्टी के लिए ही खतरनाक साबित होती रही है. दूसरा राहुल गांधी संसद में कभी फ्रंट फुट पर नजर नहीं आते. संसदीय राजनीति में उनकी छवि एक अनमने शख्स की बन गयी है, जबकि वे तीसरी बार सांसद बने हैं. अगर वे विपक्ष के प्रभावी नेता के रूप में संसद में सरकार का सामना करेंगे, तो इससे उनकी पार्टी में नयी जान आयेगी, नेताओं व कार्यकर्ताओं में भी विश्वास बहाला होगा. ध्यान रखना होगा कि संसदीय राजनीति में एनजीओ शैली में सफलता हासिल नहीं की जा सकती है.
संगठन में बेहतर तालमेल व सांगठनिक चुनाव कराना
वरिष्ठ कांग्रेस नेता जनार्दन द्विवेदी के द्वारा नरेंद्र मोदी पर दिये एक बयान से कांग्रेस में हंगामा मच गया था. इस मुद्दे पर राहुल के करीबी अजय माकन मीडिया के सामने आये और कहा कि द्विवेदी पर कार्रवाई होगी. द्विवेदी राजनीति में माकन से वरिष्ठ हैं और सोनिया गांधी के विश्वस्त भी. यह स्थिति द्विवेदी सहित सभी वरिष्ठ नेताओं के लिए असहज करने वाली थी. हालांकि सोनिया ने बाद में एके एंटोनी के माध्यम से द्विवेदी को यह संदेश दिया कि अब भी उनका भरोसा उन पर है. यह एक राजनीतिक कौशल है, जो अपनी मां से ही राहुल गांधी को सीखना होगा. उन्हें वरिष्ठ नेताओं की गरिमा का ख्याल रखना होगा और यह देखना होगा कि अकारण या छोटी वजहों से उनका अपमान नहीं हो. संगठन में जिम्मेवारियां देने में भी नये व पुराने लोगों में तालमेल बैठाना होगा. राहुल गांधी को इस साल होने वाले सांगठनिक चुनाव में भी बेहतर लोगों को सामने लाने की कोशिश करनी होगी, जैसे उन्होंने महासचिव के रूप में युवा कांग्रेस व एनएसयूआइ में किया था.
कार्यकर्ताओं का मनोबल उंचा करना
कांग्रेस के कार्यकर्ताओं का मनोबल अभी ऐतिहासिक रूप से निचले पायदान पर है. राहुल गांधी को उनका मनोबल उंचा करना होगा. यह कोई तुरंत फुरंत का कार्यक्रम नहीं हो सकता और न ही इसे मिस्टर इंडिया की शैली में भी नहीं किया जा सकता है कि अचानक अवतरित होकर करिश्मा किये और फिर गायब हो गये. उन्हें व उनकी टीम को सतत काम करना होगा. केंद्रीय व राज्यों के स्तर पर एक व्यापक कार्यक्रम तैयार करना होगा और उसमें केंद्र, राज्य, जिले से लेकर पंचायत स्तर तक के कार्यकर्ताओं को गतिशील बनाना होगा. नि:संदेह इससे पार्टी में नयी जान आ सकती है.
बिहार, बंगाल, उत्तरप्रदेश व तमिलनाडु में पार्टी की जडें जमाना
आने वाले ढाई सालों में देश के चार बडे व महत्वपूर्ण राज्यों में चुनाव होने हैं. इस साल बिहार में, अगले साल पश्चिम बंगाल व तमिलनाडु में चुनाव होना है, उसके बाद उत्तरप्रदेश में चुनाव होगा. पार्टी को इन राज्यों में अपनी जडें जमानी होगी. तमिलनाडु में कांग्रेस के कई महत्वपूर्ण नेताओं ने पार्टी छोड दी है, राज्य इकाई वहां पी चिदंबरम जैसे वरिष्ठ नेताओं की भी उपेक्षा कर रही है. जीके वासन व जयंती नटराजन ने पिछले दिनों कांग्रेस को बाय बाय कह दिया. बिहार में पार्टी जनता परिवार के साथ जाने का संकेत दे रही है. यूपी को लेकर संशय है, उसमें राहुल की विशेष रुचि अपना गृह राज्य होने के कारण है. पश्चिम बंगाल में कांग्रेस की क्या रणनीति होगी, यह भी देखना होगा. इस बात पर नजर रखनी होगी कि राज्य में जडें जमाती भाजपा के खिलाफ वह तृणमूल की बी टीम बनती है या फिर वाम दलों से दोस्ती करती है. बहरहाल, ये राज्य भी राहुल गांधी के लिए परीक्षा साबित होंगे, जिसमें पूरी तरह नहीं तो आंशिक सफलता भी कांग्रेस में नयी जान फूंक देगी.

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