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भारत में 250 भाषाएं हुईं विलुप्त

नई दिल्ली : भारत में तकरीबन 850 जीवित भाषाएं हैं और पिछले 50 साल में करीब 250 भाषाएं विलुप्त हुईं. यह बात जाने-माने भाषाविद् गणेश देवी के संस्थान भाषा रिसर्च एंड पब्लिकेशन सेंटर द्वारा ‘भारतीय भाषाओं के लोक सर्वेक्षण’ (पीएलएसआई) में जाहिर हुई. ब्रिटिश शासनकाल में भारतीय प्रशासनिक सेवा के अधिकारी रहे जॉन अब्राहम ग्रियर्सन […]

नई दिल्ली : भारत में तकरीबन 850 जीवित भाषाएं हैं और पिछले 50 साल में करीब 250 भाषाएं विलुप्त हुईं. यह बात जाने-माने भाषाविद् गणेश देवी के संस्थान भाषा रिसर्च एंड पब्लिकेशन सेंटर द्वारा ‘भारतीय भाषाओं के लोक सर्वेक्षण’ (पीएलएसआई) में जाहिर हुई.

ब्रिटिश शासनकाल में भारतीय प्रशासनिक सेवा के अधिकारी रहे जॉन अब्राहम ग्रियर्सन के नेतृत्व में 1894-1928 के बीच हुए भाषा सर्वेक्षण के करीब 100 साल बाद हुए अपने तरह के पहले सर्वेक्षण के निष्कर्षों के संबंध में देवी ने कहा ‘‘भारत में लगभग 850 जीवित भाषाएं हैं जिनमें से हम 780 भाषाओं का अध्ययन कर सके और 1961 की जनगणना को आधार मानें तो इन 50 सालों में 250 भाषाएं विलुप्त हुईं.

यह पूछने पर कि भाषाओं के सर्वेक्षण की जरुरत क्यों महसूस हुई, उन्होंने कहा ‘‘भाषाएं अलग-अलग वजहों से बड़ी तेजी से मर रही हैं और हर शब्द एक अलग विश्व-दृष्टि पेश करता है. मिसाल के तौर पर हम कितने लाख बार रोए होंगे तो एक शब्द पैदा हुआ होगा ‘आंसू’. यह शब्द गया तो हमारी इस शब्द से जुड़ी विश्व-दृष्टि भी गई.’’

सर्वेक्षण में भाषा और बोली के बीच वर्गीकरण न करने के संबंध में उन्होंने कहा ‘‘यह विवाद ही बेकार है. भाषा सिर्फ भाषा होती है. बोली जिसे अंग्रेजी में डायलेक्ट कहते हैं उसका अर्थ है दूसरी भाषा (आधिकारिक भाषा के इतर).’’

उन्होंने कहा ‘‘इस धारणा को सिरे खारिज करते हैं कि जिस भाषा की लिपि नहीं है वह ‘बोली’ है. विश्व की ज्यादातर भाषाओं के पास लिपि नहीं है. विश्व में करीब 6,000 भाषाएं हैं और 300 से ज्यादा भाषाओं के पास अपनी लिपि नहीं है. मौजूदा दौर में दुनिया की सबसे फैशनेबल और प्रभावशाली भाषा अंग्रेजी के पास अपनी लिपि नहीं है तो इसे बोली तो नहीं कहते. अंगेजी का काम ‘रोमन’ लिपि से चल रहा है.’’

उन्होंने कहा कि किसी भाषा को ‘भाषा’ का दर्जा देने का एक आधार यह भी है कि उसका अपना व्याकरण होना चाहिए और इसके अपने नियम होने चाहिए. एक और आधार है कि उसका 70 प्रतिशत विशिष्ट शब्द-भंडार होना चाहिए.

वडोदरा विश्वविद्यालय में 1996 में अंग्रेजी के प्राध्यापक रहे 63 वर्षीय देवी ने कहा कि पीएलएसआई ने जिन 780 भाषाओं का अध्ययन किया उनमें से 400 भाषाओं का व्याकरण और शब्दकोष तैयार किया गया.

देवी ने कहा कि यह सर्वेक्षण किसी भाषा के लिए आंसू बहाने के लिए नहीं बल्कि अपनी विविधता का उत्सव मनाने के लिए किया गया. उन्होंने बताया कि सर्वेक्षण में पाया गया कि अरणाचल प्रदेश में जहां 90 भाषाएं बोली जाती हैं वहीं गोवा में सिर्फ तीन भाषाएं बोली जाती हैं.

दिल्ली, कोलकाता, हैदराबाद, चेन्नई जैसे शहरों 300 से अधिक भाषाएं बोली जाती हैं. वहीं दादर एवं नागर हवेली में एक भाषा मिली ‘गोरपा’ जिसका अब तक कोई रिकार्ड नहीं है.

यूनेस्को के लिंग्वापॉक्स पुरस्कार विजेता देवी ने कहा ‘‘अगली पीढ़ी तक इन सैंकड़ों भाषाओं के करोड़ों शब्दों की विश्व-दृष्टि को सौंपने की जिम्मेदारी महसूस कर हमने यह सर्वेक्षण किया जिसे बगैर किसी सरकारी मदद के करीब 3000 स्वयंसेवियों, शिक्षाविदों, स्कूली शिक्षकों, लेखकों, किसानों, बनजारों आदि की मदद से पूरा किया गया.’’

इस सर्वेक्षण के निष्कर्ष को 68 खंडों में करीब 35,000 पन्नों की रपट के स्वरुप में भारत के पहले उप-राष्ट्रपति एस राधाकृष्ण के जन्मदिन के मौके पर मनाए जाने वाले ‘शिक्षक दिवस’ के अवसर पर अगले पांच सितंबर को जारी किया जाएगा.

उन्होंने बताया कि करीब 400 से अधिक भाषाएं आदिवासी और घुमंतू व गैर-अधिसूचित जनजातियां बोलती हैं. यदि हिंदी बोलने वालों की तादाद करीब 40 करोड़ है तो सिक्क्मि में माझी बोलने वालों की तादाद सिर्फ चार है.

देवी ने बताया कि इस सर्वेक्षण में उन भाषाओं को भी शामिल किया गया है जिन्हें बोलने वालों की संख्या 10,000 से कम है क्योंकि 1971 में बांग्लादेश युद्ध के बाद देश में भाषाई संघर्ष की आशंका को विराम देने के लिए सोची-समझी रणनीति के तहत जनगणना में उन भाषाओं को शामिल करना बंद कर दिया गया जिन्हें बोलने वालों की संख्या 10,000 से कम हो.

देवी ने कहा कि इसलिए 1961 की जनगणना में जहां 1,652 भाषाओं का जिक्र है वहीं 1971 में ये घटकर 182 हो गई और 2001 में यह 122 रह गई. उल्लेखनीय है कि जनगणना में भाषा को मानने का आधार अलग होता है इसलिए 1961 में जिन 1,652 भाषाओं का जिक्र है उनमें से अनुमानत: वास्तविक तौर पर 1100 को हम भाषा का दर्जा दे सकते हैं.

देवी ने बताया कि 2006-07 में भारत सरकार की ओर से भारतीय भाषाओं के सर्वेक्षण की दिशा में पहल की गई थी लेकिन योजना आगे नहीं बढ़ सकी इसलिए 2010 में भाषा रिसर्च सेंटर की ओर से आयोजित एक सम्मेलन में ऐसे सर्वेक्षण पर आम सहमति बनी.

भाषा रिसर्च सेंटर के प्रोग्राम अफसर विपुल कापड़िया ने बताया कि इस सर्वेक्षण की लागत लगभग 60 लाख रपए रही और इसके लिए संसाधन जमशेदजी टाटा ट्रस्ट और भाषा रिसर्च सेंटर के दान-अनुदान के जरिए जुटाया गया.

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