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दरियागंज का रविवार, सुना पड़ा किताब बाजार, विक्रेता निराश

-गरिमा सिंह- कहते हैं ‘किताबें इंसान की सबसे अच्छी दोस्त होती हैं, क्योंकि वो कोई मांग नहीं करती हैं. पुस्तकों के बारे में भारतीय मूल की अमेरिकी लेखिका झुम्पा लाहिड़ी लिखती है कि" दैट्स दी थिंग्स अबाउट द बुक्स,दे लेट यू ट्रैवेल विदाउट मूविंग योर फ़ीट" यानी किताबों के बारे में सबसे अच्छी चीज़ ये […]

-गरिमा सिंह-

कहते हैं ‘किताबें इंसान की सबसे अच्छी दोस्त होती हैं, क्योंकि वो कोई मांग नहीं करती हैं. पुस्तकों के बारे में भारतीय मूल की अमेरिकी लेखिका झुम्पा लाहिड़ी लिखती है कि" दैट्स दी थिंग्स अबाउट द बुक्स,दे लेट यू ट्रैवेल विदाउट मूविंग योर फ़ीट" यानी किताबों के बारे में सबसे अच्छी चीज़ ये होती है कि वो तुम्हें दुनिया की सैर कराती है,बगैर एक कदम चले भी. हम किताबों की चर्चा इसलिए कर रहे है क्योंकि ‘किताब बाजार’ के नाम से प्रमुख दरियागंज का संडे बुक बाज़ार बंद हो गया है. दिल्ली नगर निगम और दिल्ली उच्च न्यायालय के द्वारा इसे बंद करने के आदेश दिये गये है. इसलिए बीते चार हफ़्तों से इस मार्केट पर सन्नाटा छाया है. यहां के लोकल विक्रेता अल्ताफ बताते है कि ऐसा ही फैसला 1990 में भी लिया गया था. लेकिन जनता और दुकानदारों के साझा प्रयासों द्वारा इसे निष्फल कर दिया गया था. पर इस बार ऐसा गुस्सा न लोगों में नजर आ रहा है और न ही किसी नेता में. कहा जाता है,कि पिछले 50 सालों से ये मार्केट इस जगह की शान बढ़ा रहा था . पर अब यहां सन्नाटे के अलावा और कुछ नहीं है.

अगर एक नजर हम अपने इतिहास पर डालते हैं, तो पाते हैं कि आज तक जितने भी महान क्रांतिकारी और नेता पैदा हुए हैं, उन सभी में एक बात आम थी उनकी पढ़ने की ललक. वे दर्जनों किताबें पढ़ा करते थे. भगत सिंह भी अपनी फांसी के अंतिम क्षणों में लेनिन की आत्मकथा पढ़ रहे थे. महान सिकंदर से लेकर लेनिन तक महात्मा गांधी से लेकर भगत सिंह ,चंद्रशेखर आजाद, ऐसे ही न जाने कितने ही उदहारण इतिहास के पन्नो में अपनी छाप छोड़ते आये है. तो ऐसे में हम कह सकते है कि किताबों के बिना कोई भी व्यक्ति महान नहीं बन सकता है. तो ऐसे समय में दिल्ली का दिल कहे जाने वाले दरियागंज के संडे बुक मार्किट को बंद करने का फैसला कितना सही है? बता दें कि इस बाजार में सस्ती दरों में हर तरह की किताबें मुहैया करायी जाती थी. जिससे आर्थिक रूप से पिछड़े वर्गों के अभ्यर्थियों को पढ़ने में कठिनाई का सामना नहीं करना पड़ता था.

कोर्ट के इस फैसले के बाद लोकल पुस्तक विक्रेताओं को खासी परेशानी झेलनी पड़ रही है. रहमान जो पिछले 22 साल से इसी बाजार में किताबें बेच कर अपनी रोजी रोटी कमाता था. हाई कोर्ट के इस फैसले के बाद से अपनी दुकान नहीं लगा पा रहा है. वह हाथ में कुछ किताबें लेकर दरियागंज की सड़कों पर घूमता है. लोगों से कहता है कि उसका घर यही पास में ही है जहां से आप किताबें खरीद सकते है. उसके पास स्टॉक के स्टॉक भरे पड़े है. लेकिन उन्हें खरीदने वाला कोई नहीं या बहुतेरे लोग इससे अनभिज्ञ हैं. लेकिन लोग ऐसे अनजान आदमी की सुने क्यों यह बात सही भी है. तब ऐसे समय में उसे पलायन करने के अलावा या फिर अपना पारंपरिक धंधा बदल कर नये धंधे में लगने को मजबूर होना पड़ रहा है. आज कल वो मजदूरी करके अपनी जीविका चला रहा है. वह भी तब हमारे प्रधानमंत्री जी कहते हैं -पढ़ेगा इंडिया तभी तो पढ़ेगा इंडिया. ‘बेटी बचाओ बेटी पढ़ाओ’ क्या यह सब सिर्फ कहने की बात है?

ज्ञात हो कि बीते चार हफ़्तों से दरियागंज का संडे बुक मार्केट बंद चल रहा है. नगर निगम ने ट्रैफिक का हवाला देते हुए दिल्ली उच्च न्यायालय में अर्जी दी और इस मार्केट को बंद करने की मांग की गयी थी. जिसे हाइकोर्ट ने 26 जुलाई के अपने फैसले में मान लिया था. तब से यह मार्केट नहीं लग रहा है. कयास लगाये जा रहे हैं कि इस मार्केट को किसी और जगह पर लगाये जाने की बात चल रही है पर यहां के लोकल विक्रेता इसे मानने को तैयार नहीं है उनका कहना है कि दिल्ली का दरियागंज उनकी पहचान है, बीते दो दशक से वे यहीं पर किताब बेच थे है और वे यहां से कहीं जाने को तैयार नहीं हैं.

(लेखिका दिल्ली स्कूल ऑफ जर्नलिज्म,दिल्ली विश्वविद्यालय की छात्रा हैं)

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