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इमरजेंसी के 39 साल बाद

39 साल पहले 25 जून 1975 को देश में इमरजेंसी लगी थी. आजादी के बाद पहली बार देश इसका सामना कर रहा था. इमरजेंसी के खिलाफ कांग्रेस विरोधी तमाम राजनीतिक-सामाजिक ताकतें एकजुट हो गयी थीं. उसे दूसरी आजादी की लड़ाई कहा गया. वह लड़ाई सत्ता के साथ-साथ व्यवस्था में व्यापक बदलाव पर केंद्रित थी. उस […]

39 साल पहले 25 जून 1975 को देश में इमरजेंसी लगी थी. आजादी के बाद पहली बार देश इसका सामना कर रहा था. इमरजेंसी के खिलाफ कांग्रेस विरोधी तमाम राजनीतिक-सामाजिक ताकतें एकजुट हो गयी थीं. उसे दूसरी आजादी की लड़ाई कहा गया. वह लड़ाई सत्ता के साथ-साथ व्यवस्था में व्यापक बदलाव पर केंद्रित थी.

उस लड़ाई की वजह से आजादी के बाद पहली बार केंद्र में गैर कांग्रेसी सरकार बनी. हालांकि वह सरकार निजी टकरावों, अहंकारों की भेंट चढ़ गयी. 1990 के बाद देश ने लंबे समय तक कांग्रेस विरोधी गंठबंधन सरकारों का दौर भी देखा. पर सवाल यह है कि जिन नये मूल्यों के दावे के साथ कांग्रेस विरोधी पार्टियों-गंठबंधन की सरकारें बनीं, उन्होंने देश-समाज को नया क्या दिया.

इमरजेंसी के दौरान जबरन पुरुष नसबंदी जैसी योजनाओं को छोड़ दें तो सरकारी कार्यालयों में घूसखोरी बंद हो गयी थी. भ्रष्टाचारी सहमे-डरे थे. सरकारी मुलाजिम समय के पाबंद थे. ट्रेनें समय पर चल रही थीं. कालाबाजारियों पर अंकुश था. मगर इमरजेंसी के खिलाफ लोकप्रिय जेपी आंदोलन के गर्भ से फूटी राजनीति और उसके नेता खुद को कांग्रेस की संस्कृति से अलग साबित नहीं कर सके. उलटे इन सरकारों में भ्रष्टाचार बढ़ा, महंगाई बढ़ी, परिवारवाद का दबदबा कायम हुआ, लोकतंत्र के उसूलों को व्यक्ति यानी नेता के खूूंटे से बांधने का रिवाज चल पड़ा. आज की पीढ़ी ने इमरजेंसी का वह दौर नहीं देखा है, मगर वह इस मसले पर अपनी मुकम्मल राय रखती है. अन्ना आंदोलन का अंजाम जो भी रहा हो मगर वह उसे भी जेपी आंदोलन और इमरजेंसी से जोड़ कर देखती है. इस लिहाज से इमरजेंसी के 39 साल बाद हम इस बार की आमुख कथा में उस पूरे प्रसंग को नयी निगाह से देखने की कोशिश कर रहे हैं.

श्रीमती गांधी ने आपातस्थिति का वर्णन एक ‘शॉक ट्रीटमेंट’ के रूप में किया है.संविधान निर्माताओं ने आपातस्थिति का प्रावधान करते हुए इस उद्देश्य की कल्पना भी नहीं की होगी. उसने उन्हें भी झटका लगाया है जिन्हें जेपी के भविष्य-विश्लेषण में संदेह था. ज्यादा दु:खद यह है कि इस झटके ने बहुतों को भारत में लोकतंत्र के भविष्य के बारे में आशंकित कर दिया है.

नाजी इतिहास के बारे में विलियम शिरर की ‘द राइज ऐंड फॉल ऑफ थर्ड राइक’ नामक पुस्तक अधिकृत और चिरस्मरणीय रचना मानी जाती है. हाल में जब मैं इसे पुन: पढ रहा था तो यह जानकर बहुत चकित था कि नाजी जर्मनी में हिटलर द्वारा अधिनायक बनने के लिए अपनाए गये तरीकों और श्रीमती इंदिरा गांधी द्वारा भारतीय लोकतंत्र को नष्ट करने के लिए अपनायी गयी प्रक्रि या में व्यापक समानताएं हैं. जब सन 1919 में जर्मनी का वीमियर संविधान बना था तो उसे बीसवीं शताब्दी का सबसे उदार और लोकतांत्रिक दस्तावेज कहा गया था. शिरर ने इसका वर्णन करते हुए लिखा है कि यह तंत्र की दृष्टि से पूर्ण, लोकतंत्र के दोषमुक्त संचालन के लिए अनेकानेक प्रशंसनीय तरीकों से युक्त, गारंटीशुदा संविधान था.

लेकिन भारत के संविधान की तरह जर्मनी के संविधान में भी आपातस्थिति का प्रावधान था, वह संविधान निर्माताओं ने इस विश्वास के साथ रखा था कि इस का उपयोग युद्ध जैसे गंभीर संकट के समय में लाया जायेगा. 30 जनवरी, 1933 के दिन हिटलर जर्मनी का चांसलर (प्रधानमंत्री) बना. उसने राज्य और जनता की सुरक्षा के लिए 28 फरवरी को राष्ट्रपति हिंडनबर्ग द्वारा आपातस्थिति की घोषणा करवा दी. यह घोषणा अनुच्छेद 48 के (आपात अधिकार) के तहत की गयी. अन्य बातों के अलावा इस घोषणा में ये बातें कही गयीं- ‘व्यक्तिगत स्वतंत्रताओं, विचार-स्वातंत्र्य एवं प्रेस-स्वतंत्रता पर और सभा व संगठन के अधिकारों पर पाबंदी, टेलीफोन वार्ता, टेलीग्राफिक संवाद तथा निजी पत्रचार की गोपनीयता का उल्लंघन, घरों की तलाशी के वारंट, संपत्ति की जब्ती और उस पर नियंत्रण आदि कानून के दायरे के बाहर के कदम इसमें थे.’ इस घोषणा से संसद को, संघ को राज्यों के अधिकार हस्तातंरित करने का अधिकार भी दिया गया. इसके द्वारा अनेक अपराधों के लिए क्रूर दंड विधान का प्रावधान किया गया. इन अपराधों में ‘शांति के लिए गंभीर खतरा उत्पन्न करना’ भी था. श्रीमती इंदिरा गांधी और उनके साथी बार-बार यह दोहराते रहे हैं कि जो कुछ किया गया है, संविधान के दायरे मे रहकर किया गया है. इसलिए उनका कहना है कि विपक्ष और पश्चिमी प्रेस द्वारा यह कहा जाना कि लोकतंत्र को ध्वस्त कर दिया गया है, बिल्कुल निराधार है. नाजी इतिहास इस बात का पक्का सबूत है कि सिर्फ संविधान के अनुसार काम करना अपने आप में लोकतांत्रिक आचरण करने की गारंटी नहीं है. हिटलर हमेशा डींगें मारता था कि जो कुछ वह कर रहा है, ‘उसमें कुछ भी गैर-कानूनी या असंवैधानिक नहीं है.’ सच तो यह है कि उसने एक लोकतांत्रिक संविधान को ही तानाशाही स्थापित करने का उपकरण बनाया. हिटलर के लिए विपक्ष की कोई उपयोगिता नहीं थी और न इंदिरा गांधी के लिए है.

वह विपक्ष की यह कहकर निंदा करते नहीं थकतीं कि अल्पमत बहुमत की इच्छाओं को ध्वस्त करता रहा है. आपातकाल के ठीक पहले श्रीमती गांधी अलोकप्रियता की ढलान पर लुढ़क रही थीं. मई में प्रकाशित एक जनमत सर्वेक्षण में यह तथ्य पूरी तरह स्थापित हो गया था. नेता के रूप में उनकी लोकप्रियता घट रही थी. फिर 12 जून के इलाहाबाद उच्च न्यायालय के निर्णय से प्रधानमंत्री के तौर पर उनकी वैधता भी समाप्त हो गयी थी. श्रीमती इंदिरा गांधी द्वारा आपातस्थिति की घोषणा के लिए संसदीय सहमति प्राप्त करने, संविधान संशोधनों की लंबी फेहरिस्त को पास कराने और अपने को कानून की सीमाओं के परे करने की अपनाई गई रणनीति और हिटलर की रणनीति में आश्चर्यजनक समानताएँ हैं. पर कुछ असमानतायें भी हैं. आधारभूत रूप से दोनों की रणनीति समान है. कुछ दलों के समर्थन की व्यवस्था करो, बाकियों को दमित करो. संसद की स्वीकृति पाने के लिए हिटलर को विपक्षी सदस्यों को ही कैद करना पडा था. लेकिन उसने नाजियों को कैद नहीं किया था. यहां श्रीमती इंदिरा गांधी को भारी संख्या में विपक्षी सदस्यों के साथ-साथ अपने दल की केंद्रीय कार्यसमिति के दो सदस्यों को भी कैद करना पड़ा. इनमें से एक श्री रामधन तो पिछली मई में ही कांग्रेस संसदीय दल के सचिव चुने गये थे. हिटलर ने संसदीय कार्रवाई के प्रकाशन पर कोई रोक नहीं लगायी थी. यहां विपक्ष ने आपातस्थिति का विरोध किया और इसके खिलाफ सत्र के शेष भाग के लिए सदन का बहिष्कार किया, यह समाचार तक दबा दिया गया.

संसद को पंगु बना देने और विपक्ष को दबा देने के बाद हिटलर की ‘क्रांतिदृष्टि’ ने अपना ध्यान प्रेस और न्यायपालिका की ओर किया. यही दो अवरोध तानाशाही के मार्ग में बचे थे. अलंघ्य सेंसरशिप लगाया गया था. गोयबल्स को प्रचार मंत्री नियुक्त किया गया. 4 अक्तूबर, 1933 को प्रेस कानून पास करके प्रेस दासता को औपचारिक रूप दे दिया गया. पत्रकारिता को सार्वजनिक सेवा घोषित कर दिया गया. उक्त कानून की धारा 14 के तहत संपादकों को कह दिया गया कि ऐसी सभी सामग्री, जो राष्ट्र को कमजोर और जनता की सामान्य आकांक्षाओं को कमजोर बनाती हो, उससे सावधान व दूर रहें. जब गांधी जी 1942 के सत्याग्रह के पहले गिरफ्तार किए गए तो मीरा बेन ने कहा, ‘रात गये वे चोरों की तरह आये और उन्हें चुरा के ले गये.’ 25-26 जून के बीच की रात को आज के महात्मा गांधी जयप्रकाश नारायण को भी उसी तरह ले जाया गया जैसे गांधीजी को ले जाया गया था, लेकिन एक अंतर था. ब्रिटिश सरकार ने जनता से यह समाचार छिपाने की कोशिश नहीं की कि उनके प्रिय नेता बंदी बना लिये गये हैं और न ही यह कि भगत सिंह को फांसी लगा दी गयी है. देश भर के समाचार-पत्रों में महात्मा गांधी की गिरफ्तारी का समाचार प्रथम पृष्ठ पर आठ कॉलम शीर्षक से छापा गया था.

श्रीमती गांधी के राज में 26 जून से जयप्रकाश नारायण, मोरारजी, चरण सिंह और वाजपेयी अस्तित्वहीन हो गये. जेपी जेल में हैं, यह आज सरकार का सबसे महत्वपूर्ण गोपनीय तथ्य है. यदि कोई इसे प्रकाशित कर दे तो कड़ी सजा का पात्र हो जायेगा. केवल हिटलर या स्टालिन के राज में ही ऐसी मूर्खताओं की कल्पना की जा सकती है. अधिनायकवादी राज्यों में समाचार माध्यमों की इसके अलावा कोई भूमिका नहीं होती कि वे सत्ताधीशों के लक्ष्यों के प्रति समर्पित रहें. समाचार-पत्रों सहित सभी जनसंचार माध्यम सरकारी अंग होते हैं. लेकिन लोकतंत्र में समाचार-पत्रों की भूमिका अलग होती है. यह प्रत्येक तानाशाह का चरित्र होता है कि भले ही वह सरकार की कुछ आलोचना बरदाश्त कर ले, लेकिन व्यक्तिगत रूप से की गई आलोचना को वह हरगिज नहीं पचा सकता. समाचार-पत्रों के खिलाफ श्रीमती गांधी के आक्र ोश का यह कारण है कि इलाहाबाद उच्च न्यायालय के निर्णय के बाद प्रेस ने लगभग एकमत से यह मत व्यक्त किया कि जब तक सर्वोच्च न्यायालय अपना निर्णय न दे तब तक के लिए श्रीमती गांधी प्रधानमंत्री पद से त्यागपत्र दे दें. इसके लिए श्रीमती गांधी उन्हें माफ करने को तैयार नही थीं. स्वाभाविक रूप से सेंसरशिप के कारण समाचार-पत्र नीरस और फीके हो गये हैं. वे सरकारी प्रचार-प्रपत्रों की तरह हो गये हैं. सेंसरशिप लगाने के बाद ऐसा नाजी जर्मनी में भी हुआ. एक बार स्वयं गोयबल्स ने संपादकों को ज्यादा डरपोक न होने की सलाह दी और उनसे अपने पत्रों को रसहीन न बनने देने का आग्रह भी किया. बर्लिन के एक संपादक वेल्के ने गोयबल्स के व्यक्त कथन को गंभीरता से लिया. दूसरे ही अंक में उस पत्र ने प्रचार मंत्रलय की आलोचना करते हुए लिखा कि कैसे यह मंत्रलय सूचनाओं को दबाता है और उससे अखबार किस तरह नीरस हो गये हैं. इसके प्रकाशन के कुछ ही दिन बाद पत्र बंद कर दिया गया और संपादक महोदय जेल पहुंचा दिये गये.

इन दिनों नयी दिल्ली में कुछ ऐसा ही हो रहा है. प्रधानमंत्री द्वारा बार-बार यह घोषणा किये जाने पर कि प्रेस सेंसरशिप ढीली कर दी गयी है, कुछ पत्रकारों ने, खासकर विदेशी पत्रकारों ने, पत्र-सूचना विभाग के रंगहीन प्रेस विज्ञप्तियों के अलावा भी कुछ भेजना शुरू कर दिया. लेकिन इससे वे परेशानी में पड़ गये. पिछले कुछ सप्ताहों में दो अंतरराष्ट्रीय समाचार एजेंसियों रायटर और यूपीआइ के टेलीप्रिंटर और टेलीफोन काट दिये गये हैं. कहा गया कि उन्होंने सेंसरशिप कानूनों का उल्लंघन किया है. हिटलर के सत्तासीन होने के तुरंत बाद नाजी नेता जोचिम रिबेनट्रोप ने नयी न्यायिक व्यवस्था की आवश्यकता प्रतिपादित की. जोचिम बाद में हिटलर के विदेश मंत्री बने जोचिम ने कहा कि पुरानी न्याय व्यवस्था को बदलना इसलिए जरूरी है, क्योंकि आज तो हिटलर पर भी उन्हीं दंड-विधानों से मुकदमा चल सकता है जिन कानूनों से एक आम आदमी पर चल सकता है. वकीलों के एक सम्मेलन को संबोधित करते हुए संसद में विधि संबंधी नेता और न्याय आयुक्त डॉ. हेंस फ्रैंक ने कहा, ‘आज जर्मनी में केवल एक सत्ता है और वह सत्ता है हिटलर की.’ डॉ. फ्रैंक और जोचिम जैसे हिटलर के पुजारियों और ‘इंडिया इज इंदिरा एंड इंदिरा इज इंडिया’ का मंत्रोच्चारण करनेवाले देवकांत बरु आ में कोई खास फर्क है क्या, जबकि दोनों के परिणाम एक ही तरह के निकले?

संविधान और कानूनों का ऐसा संशोधन किया गया कि कानून के शासन की धारणा बदल जाये और कार्यपालिका के प्रधान को कानूनी दायरे के ऊपर कर दिया जाये. इसी प्रक्रिया के अंतर्गत न्यायिक पुनरीक्षण के अधिकारों को कतर दिया गया. कांग्रेस के लोग शायद यह जानकर कुछ लज्जित हों कि अगर श्रीमती गांधी को बीस सूत्री कार्यक्र म का गौरव प्राप्त है तो हिटलर को अपने पच्चीस सूत्री कार्यक्र मों पर नाज था और वह उन्हें अपरिवर्तनीय कहा करता था. पहले यह व्यक्तिगत मत था, बाद में नाजी पार्टी का अधिकृत कार्यक्र म बन गया. हिटलर के राज्य में भी पच्चीस सूत्री कार्यक्र म के पक्ष प्रतिदिन प्रदर्शित होते थे. भाग लेनेवाले सामान्य जन ही नहीं, जीवन के विभिन्न क्षेत्रों के विचारवान अगुआ होते थे. 1933 में विख्यात वैज्ञानिकों और शिक्षाविदों सहित बर्लिन विश्वविद्यालय के 960 प्राध्यापकों ने हिटलर के प्रति अपनी आस्था एक प्रदर्शन के द्वारा प्रकट की. एक वरिष्ठ प्राध्यापक रीपोक ने बाद में लिखा कि इस वेश्या प्रवृत्ति ने जर्मन विद्वता के इतिहास को लांछित कर दिया. एक अन्य अध्यापक जूलियस एबिंग ने 1945 में लिखा :

‘जर्मन विश्वविद्यालय विफल हो गये. जब सार्वजनिक रूप से अपनी पूरी शक्ति से विरोध करने का अवसर था तब भी जर्मन लोकतंत्र के विनाश करने के क्र म को उन्होंने नहीं रोका. आतंक की काली रात में स्वतंत्रता और अधिकारों की मशाल को जलाये रखने में ये असफल सिद्ध हुए.’ भारत भी आतंक की काली रात से गुजर रहा है. अनुशासन की चमक-दमक भरी बातें किसी को धोखा नहीं दे सकतीं. आज जो हम देख रहे हैं वह अनुशासन नहीं है. यह कायर सहमति और गुलाम जी हुजूरपना है. यह सब श्रीमती गांधी के भय के कारण है, कर्तव्यपरायणता या ईमानदारी के कारण नहीं. आज वह आदर नहीं पातीं, आज उनका आतंक है. हिटलर ने इससे भी ज्यादा आतंक पैदा किया था और अपने कानूनों का पालन कराने में उसे कहीं अधिक कामयाबी मिली थी. उसने एक कानून बनाया था कि बिना संतोषजनक कारण के जो कामगार काम पर हाजिर नहीं होगा, उसे गिरफ्तार किया जा सकता है.

सरकारी दफ्तर आज आपातस्थिति के आतंक की छतरी के नीचे हैं. मनमानी कार्रवाई के खिलाफ सभी सुरक्षात्मक प्रबंधों को निलंबित कर दिया गया है. आज कोई यह पता लगाने की स्थिति में नहीं है कि वरिष्ठ अधिकारियों के खिलाफ की गई कार्रवाई में से कितनी न्यायोचित है. प्रतिदिन हम रेडियो और समाचार-पत्रों से जानकारी पाते हैं कि फलां-फलां जगह अकुशलता या भ्रष्टाचार के कारण इतने अधिकारी निलंबित कर दिये गये अथवा अनिवार्य रूप से उन्हें अवकाश प्राप्त करा दिया गया. दलीय साथियों के भ्रष्टाचार ने श्रीमती इंदिरा गांधी को कभी चिंतित नहीं किया. हिटलर भी इसके बारे में पूरी तरह उदासीन था.

लालकृष्ण आडवाणी

यह आलेख सितंबर, 1975 में बेंगलुरू सेंट्रल जेल से लिखा गया था

संजय गांधी : जिसने लोकतंत्र को तानाशाही में बदल दिया था

देश में आपातकाल के दौरान इंदिरा गांधी के साथ जिस विवादास्पद व्यक्ति का जिक्र होता है, वे हैं संजय गांधी. वह इंदिरा गांधी के छोटे पुत्र थे. आपातकाल के दौरान जहां परिवार नियोजन के लिए बड़े कठोर तरीके पुरुष नसबंदी की योजना चलायी गयी. कहते हैं कि इस योजना के पीछे संजय गांधी का ही दिमाग था. संजय ब्रिगेड उन दिनों काफी चर्चित हुआ था. इस ब्रिगेड को ज्यादतियों के लिए याद करते हैं.

भारतीय राजनीति में संजय गांधी का नाम एक ऐसे युवा नेता के रूप में दर्ज है जिसकी वजह से देश की राजनीति में कई बड़े परिवर्तन हुए. भारत की सबसे प्रभावी व्यक्तित्व वाली प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी और फिरोज गांधी के पुत्र संजय गांधी को एक ऐसे व्यक्तित्व के रूप में जाना जाता है जिसने भारत के लोकतंत्र को तानाशाही में बदल दिया था. अपनी तेज-तर्रार शैली और दृढ़ निश्चयी सोच की वजह से देश की युवाओं की पसंद बने इस नेता के फैसलों के आगे कई बार तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी को भी पीछे हटना पड़ा था.

आपातकाल के समय

आपातकाल के ठीक पहले देश की राजनैतिक तसवीर उथल-पुथल भरी थी. कांग्रेस के खिलाफ अलग-अलग विचारधाराओं वाले नेताओं की एकजुटता ने कांग्रेस के शीर्ष नेतृत्व को बेचैन कर दिया था. कांग्रेस का हर दावं उलटा साबित होने लगा था.

ऐसा माना जाता है कि 1975 के आपातकाल के पीछे संजय गांधी की केंद्रीय भूमिका थी. उनकी समझ थी कि चंद नेताओं के चलते देश के माहौल को बिगड़ने नहीं दिया जा सकता. उन्होंने एक लोकतांत्रिक तरीके से चुनी हुई सरकार को तानाशाही की ओर धकेल दिया. 19 माह के आपातकाल से उभरने के बाद वर्ष 1977 के चुनाव में भले ही कांग्रेस को हार का सामना करना पड़ा, लेकिन उसके बाद संजय गांधी और इंदिरा गांधी को गिरफ्तार कर जेल भेजने की तैयारियां भी की गयीं. हालांकि तत्कालीन सरकार ज्यादा दिनों तक सत्ता में नहीं रह सकी और नेताओं के आपसी खींचतान के चलते 1979 के चुनाव ने कांग्रेस की सत्ता में वापसी करवा दी.

समानांतर सरकार चलाते थे संजय

कहा जाता है कि एक समय ऐसा था जब संजय गांधी अपनी मां इंदिरा गांधी के सामानांतर अपनी सरकार चलाया करते थे और उनके फैसलों के आगे इंदिरा गांधी को भी झुकना पड़ता था. संजय गांधी ने कांग्रेस के कुछ नेताओं और अधिकारियों की दम पर देश की आर्थिक नीतियों और प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के फैसलों को प्रभावित करना शुरू कर दिया था. जिसका एक बहुत बड़ा उदाहरण परिवार नियोजन की पुरु ष नसबंदी योजना और देश के आम आदमी की कार कहलाने वाली मारु ति 800 को देश में लाने का श्रेय संजय गांधी को ही जाता है.

तेज-तर्रार युवा नेता की छवि

आलोचकों के निशाने पर रहने के बावजूद उनके कई फैसलों को आज तक सराहा जाता है. 14 दिसंबर 1946 को जन्मे संजय गांधी ने 70 के दशक की भारतीय राजनीति में कई उदाहरण पेश किये जिसे आज तक याद किया जाता है. पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी के छोटे भाई संजय के बारे में कहा जाता है कि वह बचपन से ही जिद्दी थे. इसकी वजह से वह माता पिता के तमाम प्रयासों के वाबजूद पढ़ाई में रुचि नहीं लेते थे. जिस वजह से संजय गांधी को देश के मशहूर स्कूल दून कॉलेज छोड़ना पड़ा जबकि उनके बड़े भाई राजीव ने अपनी 12वीं तक की पढ़ाई वहीं पूरी की थी. हर काम को अपने अंदाज में करने के आदी संजय गांधी ने व्यक्तिगत जीवन के साथ साथ देश का भविष्य तय करने वाले कुछ ऐसे फैसले लिए जिनकी वजह से देश को विषम परिस्थितियों से गुजरना पड़ा. भारतीय राजनीति में तेजी से उभरे संजय गांधी की 23 जून 1980 को एक हवाई दुर्घटना में मौत हो गयी थी.

विनोद मेहता ने लिखी है किताब

अब तक संजय गांधी की एकमात्र जीवनी लिखी गयी है जिसका नाम है द संजय स्टोरी- और उसके लेखक हैं वरिष्ठ पत्रकार विनोद मेहता. यह जीवनी भी ना तो प्रामाणकि होने का दावा करती है और ना ही आधिकारिक. संजय गांधी की जीवनी में विनोद मेहता ने बेहद वस्तुनिष्ठता के साथ संजय गांधी के बहाने उस दौर को भी परिभाषित किया है. आपातकाल की ज्यादतियों के अलावा मारु ति कार प्रोजेक्ट के घपलों पर तो विस्तार से लिखा है लेकिन साथ ही आपातकाल हटने पर सरकारी कामकाज में ढिलाई पर भी अपने चुटीले अंदाज में वार किया है. वो लिखते हैं- जिस दिन 21 मार्च को आपातकाल हटाई गई उस दिन राजधानी एक्सप्रेस चार घंटे की देरी से पहुंची. कानपुर में एलआइसी के कर्मचारियों ने लंच टाइम में मार्च निकाला, दिल्ली के प्रेस क्लब में मुक्केबाजी हुई, कलकत्ता में दो फैमिली प्लानिंग वैन जलायी गयी, मुम्बई के शाम के अखबारों में डांस क्लासेस के विज्ञापन छपे, तस्करी कर लाई जाने वाली व्हिस्की की कीमत दस रु पये कम हो गयी. देश में हालात सामान्य हो गये. व्यगंयात्मक शैली में ये कहते हुए विनोद आपातकाल के दौर में इन हालात के ठीक होने की तस्दीक करते हैं. विनोद मेहता की किताब में कई तथ्य पुराने हैं- जैसे दून स्कूल में ही संजय को कमलनाथ जैसा दोस्त मिला जो लगातार दो साल तक फेल हो चुका था. स्कूल से वापस आने के बाद संजय गांधी की दोस्तों के साथ मस्ती काफी बढ़ गयी थी और विनोद मेहता ने बिल्कुल फिक्शन के अंदाज में उसको लिखा है. इससे उसकी रोचकता अपने चरम पर पहुंच जाती है. इस किताब में जो सबसे दिलचस्प अध्याय है वो है मारु ति कार के बारे में. जिसका सपना संजय ने देखा था. मारु ति- सन ऑफ द विंड गॉड में विनोद मेहता ने संजय गांधी की किसी भी कीमत पर अपनी मन की करने, किसी भी कीमत पर अपनी चाहत को हासिल करने की, उस हासिल करने के बीच में रोड़े अटकाने वाले को हाशिए पर पहुंचा देने की मनोवृत्ति का साफ तौर पर चित्रण किया है. संजय गांधी की बचपन से मशीनों और उपकरणों में खास रुचि थी जिसे देखकर नेहरू जी कहा करते थे कि उनका नाती एक बेहतरीन इंजीनियर बनेगा.

इंदिरा के घर में था अमेरिकी भेदिया?

आपातकाल के बारे में कई तरह के अप्रमाणिक बातों पर अब भी गंभीरता के साथ चर्चा की जाती है. तब दुनिया में संचार क्रांति का इतना विस्फोट नहीं हुआ था और तकनीक के लिहाज से हम इतने समृद्ध भी नहीं थे. कुछ दिनों पहले विकीलिक्स ने ने दावा किया है कि 1975 से 77 तक आपातकाल के दौरान पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के घर अमेरिकी भेदिया मौजूद था. अमेरिकी दूतावास ने उस जासूस को भेजा था. वह जासूस अमेरिकी था या भारतीय, इसकी जानकारी नहीं दी गयी है. कहा जाता है कि इस भेदिये के बारे में जानकारी अमेरिका को थी. विकीलिक्स के यह भी साफ नहीं है कि आपातकाल लगाने में अमेरिका की भूमिका थी या नहीं. हालांकि विकीलीक्स केबल में इंदिरा गांधी के बेटे संजय गांधी और आरके धवन के बारे में कहा गया कि ये दोनों तानाशाह प्रवृत्ति के थे और किसी भी कीमत में इंदिरा सरकार को बचाना चाहते थे.

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