अखबारों में रोजाना हत्याओं की खबरों को तटस्थ भाव से पढ़नेवाले वीतरागियों के लिए ‘जहानाबाद’ महज नरसंहारों और अपराधों का गढ़ है. यह सिक्के का एक पहलू है. लेकिन दूसरा पक्ष सामाजिक परिवर्तन के लिए वहां हो रही लड़ाई, सामंती रुझान से टकराव और सरकारी विकास नीति से उपज रही सामाजिक रुग्णता से संबंधित है. यह तसवीर ठहरे हुए समाज में टूट का हलफनामा है. नौकरशाही की अंधी दृष्टि और राजनेताओं के संकीर्ण नजरिये से दूर जहानाबाद का असली चेहरा उन सुदूर गांवों-देहातों में दिखता है, जहां मौजूदा व्यवस्था से आजिज लोग अंधेरे भविष्य में करवट बदलने के लिए आतुर हैं. इन क्षेत्रों से लौट कर हरिवंश की रिपोर्ट.
बिहार सरकार का दावा है कि जहानाबाद और मध्यवर्ती बिहार में पिछले कुछ महीनों से अमन-चैन है. जहानाबाद का अलग खुशहाल चेहरा दिखाने के लिए राज्य सरकार ने लाखों रुपये के विज्ञापन भी जारी किये हैं. इन अशांत इलाकों को सामान्य बनाने के लिए ‘अभियान रक्षक’ और ‘ऑपरेशन सिद्धार्थ’ कार्यक्रम चलाये जा रहे हैं. राजधानी पटना के आला पुलिस अफसर दर्प से कहते हैं कि 11 अगस्त के बाद (यानी दमुंहा-खगड़ी नरसंहार के उपरांत) कोई बड़ी वारदात नहीं हुई है. हालांकि छिटपुट हत्याएं बदस्तूर हो रही हैं. ऐसी हत्याओं की जड़ में भी इस अशांत इलाके का सामाजिक तनाव ही है. पुलिस द्वारा गोली चलाने से भी कुछ लोग मारे गये हैं. खालिसपुर गांव के पास पुलिस तैनात है. लेकिन आज तक गांव के कुछ बाशिंदे अपने घरों में नहीं लौटे हैं. पिछले 17 माह के दौरान इस अंचल में छह बड़े नरसंहार हुए हैं.
यह हकीकत है कि पुलिस गांव-गांव में नाकेबंदी कर कथित अतिवादियों की धर-पकड़ कर रही है. इसी अभियान के तहत 18 नवंबर को पुलिस ने जन मुक्ति परिषद के मधु सिंह की गिरफ्तार कर लिया है. पुलिस का कहना है कि बालूमाथ-पाकी में पुलिस राइफल लूटने की योजना मधु सिंह ने ही बनायी और उनके नेतृत्व में ही इस योजना को क्रियान्वित किया गया. पुलिस मधु सिंह की गिरफ्तारी को अपनी बड़ी उपलब्धि मानती है. हाल ही में 1986 में हुए कंसारा कांड के दो अभियुक्तों चंद्रहंस सिंह और शुक्ल सिंह को पकड़ने में भी पुलिस कामयाब रही है.
इन लोगों की गिरफ्तारी भी नवंबर के दूसरे सप्ताह में हुई. कंसारा सामूहिक हत्याकांड में छह महिलाएं और दो पुरुष मारे गये थे. नोन्ही-नगवां और दमुंहा-खगड़ी हत्याकांड के सूत्रधार हरेराम यादव ने जेल में ही खुदकशी कर ली है. एक वरिष्ठ पुलिस अफसर के अनुसार हरेराम यादव बड़ा भू-स्वामी था. वह शराब की ठेकेदारी करता था. बड़े नेताओं-अफसरों तक उसकी पहुंच थी. मरने के डेढ़ माह पहले से ही उसने किसी से मिलना-जुलना बंद कर दिया था.
हरेराम यादव के पास अनेक बड़े नेताओं-अफसरों का पक्का-कच्चा चिट्ठा था, इस कारण उसकी आत्महत्या के संबंध में अनेक अटकलें लगायी जा रही हैं, उसकी शवयात्रा में शामिल होने उसके दो शागिर्द (शातिर अपराधी) सुरेश यादव और सुरेश पासवान आये थे. पुलिस ने उन्हें पकड़ लिया. बिंदेश्वरी सिंह भी गिरफ्तार कर लिये गये हैं. उन पर 25 हजार रुपये का पुरस्कार था. पुलिस इन सभी गिरफ्तारियों को अपनी विशिष्ट उपलब्धि मानती है. उसे भरोसा है कि अतिवादी चूंकि असहनशील और व्यक्तिवादी होते हैं. इस कारण वे आपस में ही लड़ कर कमजोर होते जायेंगे.
प्रशासन-पुलिस का निष्कर्ष है कि अंतत: नक्सलबाड़ी की तरह यह इलाका भी शांत बन जायेगा. पुलिस यह भी बताती है कि सीओआइ (कम्युनिस्ट आर्गनाइजेशन ऑफ इंडिया, माकपा एमएल) की बैठक हाल ही में बिहार में हुई थी. इसमें अनेक मशहूर नेताओं ने भाग लिया था. इस बैठक में इस बात पर चर्चा हुई कि समूल परिवर्तन और नये समाज के लिए लड़नेवाले सभी अति वामपंथी तत्व एक हो जायें. अगर इनमें एकता हो गयी, तो ‘हमारे लिए (पुलिस) कठिनाई हो जायेगी.’ यह पुलिस का मानना है.
इंडियन पीपुल्स फ्रंट के सूत्रों के अनुसार लगभग 4,000 पुलिस के जवान इस इलाके में तैनात है. तकरीबन 35 से ऊपर पुलिस चौकियां हैं. गुजरात की भी पुलिस है. सीमा सुरक्षा बल के जवान हैं. तीन तरह के अर्द्ध सैनिक बल यहां चौकसी कर रहे हैं. क्योंकि पुलिसवालों ने इन पर कब्जा जमा रखा है. नौनिहालों के प्रशिक्षण स्थल पुलिस के रिहायशी अड्डे बन गये हैं. किसान भवनों पर भी पुलिस टुकिड़यों ने कब्जा कर लिया है.
रात में इन टुकड़ियों के जवान चौकसी करने निकलते हैं. इनके आतंक से लोग शाम ढलते ही घर-दरवाजे बंद कर लेते हैं. किसानों के लिए एक कठिनाई हो गयी है. वे रात में अपने खेतों में पानी नहीं पटा सकते. कथित उग्रवादियों के छापेमार दस्तों की तलाश में निकली पुलिस लोगों को हिदायत देती है कि इंडियन पीपुल्स फ्रंट से अलग रहो. पुलिस की शह पर ग्राम रक्षा दल गठित हो रहे हैं. इन्हें सीटी, टॉर्च और भाला आदि से सुसिज्जत किया गया है. रात में पुलिस घेरेबंदी कर छापेमारी करती है. लोगों की धर-पकड़ हो रही है, लेकिन उग्रवादियों के हथियारबंद दस्ते पुलिस के हाथ नहीं लगे हैं.
इसी बीच 14 नवंबर की रात में पुलिस की एक गश्ती टुकड़ी ने अमरजीत सिंह सोंधी नामक एक पंजाबी युवक को पकड़ लिया. उसकी गिरफ्तारी को बढ़ा-चढ़ा कर प्रस्तुत किया गया. पुलिस ने ऐसी तसवीर पेश की, मानों कोई अंतरराष्ट्रीय ख्याति का सिख उग्रवादी, देशद्रोही उनके हाथ लग गया हो. बिहार सरकार के आला अफसर इस गिरफ्तारी के बाद खुद अपनी पीठ ठोंकने लगे. पुलिस ने बढ़-चढ़ कर अपनी उपलब्धियों का ब्योरा पेश किया. आरंभ में यह बताया गया कि सोंधी ने कबूल कर लिया है कि हाल में पठानकोट में हुए नरसंहार में उसका हाथ था. यह भी कहा गया कि सोंधी का संबंध कनाडा के उग्रवादियों से है. वह मध्य बिहार के इलाके में सामूहिक नरसंहार की योजना बना रहा था. पुलिस पर भी हमले की तैयारी थी. वह उग्रवादियों को प्रशिक्षित कर रहा था. पुलिस-प्रशासन इस गिरफ्तारी में इंडियन पीपुल्स फ्रंट, नक्सलवादियों और सिख उग्रवादियों के बीच संबंध की पुष्टि करना चाहती थी. सोंधी आजाद बिगहा गांव में पकड़ा गया था. पुलिस के अनुसार उसके पास से कनाडा में गाड़ी चलाने का लाइसेंस, हथियारबंद प्रशिक्षण की तसवीरें, नक्सली साहित्य और भीष्म साहनी का ‘तमस’ उपन्यास बरामद किये गये. यह भी कहा गया कि अमरजीत सिंह की गिरफ्तारी और उसके अंतरराष्ट्रीय संपर्कों के भंडाफोड़ के बाद पुलिस ने आधी रात में पंथित गांव (कुरथा ब्लॉक) में छापा मार कर तीन अतिवादियों को मार डाला.
इंडियन पीपुल्स फ्रंट के अनुसार अकसर बिहार में नरसंहार और बड़ी वारदात होती रही हैं. लेकिन इसके पूर्व कभी भी बिहार के पुलिस महानिदेशक जेएम कुरैशी ने संवाददाता सम्मेलन संबोधित नहीं किया. लेकिन इस घटना के बाद उन्होंने संवाददाता सम्मेलन में तथ्यों को तोड़-मरोड़ कर पेश किया. सोंधी की गिरफ्तारी 14 नवंबर की रात में हुई. 15 की रात में पंथित में पुलिस ने तीन कथित उग्रवादियों को मार डाला. ये दोनों घटनाएं अलग-अलग हैं, लेकिन पुलिस ने इन्हें एक साथ ऐसे प्रस्तुत किया, ताकि अपनी करतूत छिपायी जा सके.
पुलिस भी यह कबूल करती है कि संगरुर (पंजाब) का रहनेवाला सोंधी लोक संघर्ष मोरचा की रैली में शामिल होने डालमियानगर आया था. डालमिया नगर में वर्षों से बंद बड़े पूंजीपतियों के कारखाने खुलवाने के लिए यह रैली आयोजित की गयी थी. बाद में जो तथ्य सामने आये हैं. उससे पुलिस की इस कथित उपलब्धि का असली चेहरा सामने आ गया है. इस संबंध में पीयूडीआर और पार्टी यूनिटी के बया आये हैं. लेकिन पुलिस इन तथ्यों को असत्य सिद्ध करने में विफल रही है. इससे स्पष्ट होता है कि पुलिस के पास सोंधी के खिलाफ ठोस सबूत नहीं हैं. अब तक प्राप्त तथ्यों के अनुसार सोंधी गुरुशरण सिंह (प्रख्यात नाटककार और उग्रवादियों के विरोधी) के दल से संबंधित है. पंजाबी कवि पाश का वह प्रशंसक है. विश्वसनीय सूत्रों के अनुसार वह जहानाबाद में किसान आंदोलन को जानने-समझने के लिए बिहार आया था.
14 नवंबर की रात वह आजाद बिगहा गांव में सो रहा था. उसी गांव में माकपा (एमएल) का एक हथियारबंद दस्ता भी ठहरा था. हथियारबंद दस्ते के पहरेदार को जब सीमा सुरक्षा बल और बिहार पुलिस के जवानों के आने की भनक मिली, तो उसने एक गोली चला दी. यह पुलिस के आने का पूर्व संकेत था. माकपा (एमएल) के हथियारबंद दस्ते के लोग निकल भागे. पहरेदार भी अपनी राइफल खेत में फेंक भाग गया. इसके बाद तलाशी में अमरजीत सिंह पकड़ा गया. अगर वह हथियारबंद दस्ते में शरीक होता, तो वह भी निकल गया होता. पुलिस अब तक एक भी ऐसा सबूत नहीं दे पायी है, जिससे स्पष्ट हो कि अमरजीत सिंह आतंकवादी है और उसके अंतरराष्ट्रीय संपर्क हैं.
पंथित की घटना 15 नवंबर की रात में हुई, लेकिन 14 को अमरजीत की गिरफ्तारी और 15 नवंबर को पंथित में मारे गये लोगों का विवरण अखबारों ने एक साथ 16 नवंबर को प्रकाशित किया.इंडियन पीपुल्स फ्रंट का कहना है कि पुनपुन नदी के किनारे पंथित में सूर्य मंदिर है. छठ पर्व के अवसर पर वहां मेला लगता है. मेले का प्रबंध ठेकेदार करता रहा है. इसमें अव्यवस्था और ठेकेदार के गुंडों का राज चलता है. पिछले दो वर्ष से किसान सभा के लोग इस मेले की व्यवस्था प्रशासन को सौंपने की मांग कर रहे थे. इस मेले में बिहार प्रदेश किसान सभा के लोग जहां ठहरे थे, वहां एक कमजोर बम फेंका गया. इसके बाद पुलिस टूट पड़ी. इसके बाद सतनदेव चौधरी (42 वर्ष), सकलदेव यादव (35 वर्ष) और नंद यादव (16 वर्ष) मार डाले गये. 16 वर्षीय अबोध बालक को भी पुलिस उग्रवादी ठहराती है. पुलिस का कहना है कि ये लोग मुठभेड़ में मारे गये.
सच्चाई यह है कि इस इलाके में इंडियन पीपुल्स फ्रंट एक मजबूत ताकत के रूप में उभर रहा है. वह अब चुनाव भी लड़ेगा. उसकी बढ़ती राजनीतिक शक्ति से राज्य सरकार और पुलिस परेशान हैं. दूसरी ओर बड़े राजनीतिक दलों की जड़ें कमजोर हो गयी हैं. अति पिछड़ी जातियों-हरिजनों में अपनी अलग पहचान रखने की भूख पैदा हो गयी है. इस सामाजिक तनाव को महज पुलिस बल या कथित विकास कार्यों से ही खत्म करना असंभव है. अति जुझारू वामपंथी शक्तियों से निबटने के लिए ही बिहार सरकार ने जहानाबाद को जिला का दरजा दिया था. फिर भी नरसंहारों का दौर चलता रहा. कमजोर और पतनोन्मुख सामंतवाद के बावजूद पिछड़ी-अगड़ी जातियों में खूनी संघर्ष होते रहे. पुलिस प्रशासन इसे दबाने में विफल रहा है. वस्तुत: सामाजिक समता कायम किये बगैर जहानाबाद में आर्थिक संपन्नता या सामान्य स्थिति बनाना दिवास्वप्न है. यह वर्ग संघर्ष और जाति संघर्ष का मिला-जुला रूप है.
हालांकि कुछ लोग कहते है कि जहानाबाद या मध्यवर्ती बिहार की समस्या सिर्फ जाति युद्ध है. लेकिन यह आंशिक सच्चाई हैं. राजनीतिक कार्यकर्ता अमलेंदु सत्यवर्ती (जो रेलवे में महत्वपूर्ण अधिकारी का पद छोड़ कर नयी राजनीति करने के लिए आतुर हैं, दिल्ली, मद्रास आइआइटी में उन्होंने शिक्षा पायी है.) कहते हैं, ‘अगर वर्ग संघर्ष की बात रहती, तो यह संघर्ष पूर्णिया या बिहार के ऐसे इलाके में होता, जहां बड़े-बड़े जागीरदार हैं. जहानाबाद या इसके आसपास बड़े जागीरदार नगण्य हैं. स्थापित राजनीतिक नेता अपने स्वार्थ के लिए इन क्षत्रों में जाति युद्ध को बढ़ावा दे रहे हैं.’
जहानाबाद में ऑपरेशन सिद्धार्थ के तहत चौड़ी व नयी सड़कें बन रही हैं. रोजगारोन्मुख योजनाएं क्रियान्वित हो रही हैं. इंदिरा आवास योजना तहत बेघरों को घर देने की कोशिश हो रही है. भूमि सुधारों की अनुगूंज भी सुनाई दे रही है. सरला ग्रेवाल और बिहार सरकार के वरिष्ठ अधिकारियों के बीच हुई बैठक के दौरान मध्य बिहार के विकास कार्यों के लिए ये कार्यक्रम तय किये गये. इन आर्थिक कार्यक्रमों से सामाजिक रुग्णता पर एक सीमा तक अवश्य अंकुश लगेगा. लेकिन आधुनिक विकास रणनीति से पनप रही गंभीर बीमारियां भी इस क्षेत्र में फैल रही हैं.
किसी गांव में अगर सड़क नहीं है, तो लोग कहते हैं कि यहां कोई बड़ा हत्याकांड हो जाये, तो तुरंत सड़क बन जायेगी. नक्सलवादी जिलों में विकास-राहत के नाम पर अरबों रुपये की राशि व्यय हो रही है. लेकिन इनसे सटे शांत व पिछड़े जिलों की सुध व्यवस्था को नहीं है. संभवतया आधुनिक विकास का पैमाना अशांत जिलों के विकास तक ही सीमित है. यह प्रश्न सहज नहीं है, जब तक सूझबूझवाली कोई नयी राजनीतिक दृष्टि विकसित नहीं होती, तब तक जहानाबाद और मध्य बिहार की समस्याओं का हल नहीं निकलनेवाला.