मथुरा: पटकथा लेखक और संवाद लेखिका ने दावा किया कि फिल्म निर्माता और निर्देशक बीआर चोपडा को तीन तलाक शब्दों के खौफ के चलते ही 1982 में रिलीज अपनी फिल्म का टाइटल ‘तलाक-तलाक-तलाक’ से बदलकर ‘निकाह’ करना पडा था. फिल्म की कथा-पटकथा एवं संवाद लेखिका डा. अचला नागर ने बताया कि चोपडा साहब के मित्र एवं फिल्म में जुम्मन चाचा की भूमिका निभा रहे वरिष्ठ कलाकार इफ्तिखार ने फिल्म का नाम सुनते ही कहा था कि ये आपने कैसा नाम रख दिया फिल्म का. हम तो अपनी बेगम को फिल्म दिखाने का प्रस्ताव भी नहीं कर सकते, क्योंकि फिल्म का नाम लेते ही हमारा तो घर टूट जाएगा.
उन्होंने यह भी कहा, ‘यह तो वैसे ही नकारात्मक नाम है. कुछ सकारात्मक नाम रखिए. तब ‘निकाह’ टाइटल रखा गया.’ ‘निकाह’, ‘निगाहें’, ‘नगीना’, ‘आखिर क्यों’, ‘ईश्वर’, ‘मेरा पति सिर्फ मेरा है’, ‘बाबुल’ और ‘बागबान’ जैसी फिल्मों की कथा-पटकथा-संवाद लिखने वाली डा. नागर ने बताया, ‘मैंने हर फिल्म महिलाओं और बुजुर्गों की सामाजिक समस्याओं को ही उजागर करती हुई लिखी. खास तौर पर मुस्लिम समाज में तीन तलाक और हलाला की कुप्रथाओं से मुझे बेहद टीस पहुंचती थी.’
उन्होंने बताया, ‘अपने जमाने की मशहूर अदाकारा मीना कुमारी तक को तीन तलाक और हलाला की चोट सहन करनी पडी थी. उनके पति कमाल अमरोही ने गुस्से में आकर पहले तो तलाक दे दिया. लेकिन बाद में घर वापसी कराने के लिए उन लोगों को भी उसी प्रक्रिया से गुजरना पडा.’ उन्होंने बताया, ‘यही सब जानकर मैंने निकाह फिल्म से पहले तोहफा नाम से एक कहानी लिखी थी. जिसे एक फिल्म पत्रिका में पढ़कर चोपडा साहब ने उस कहानी पर फिल्म तैयार करने का आफर दिया.’
तीन तलाक के मुद्दे पर उच्चतम न्यायालय के फैसले के बारे में उन्होंने कहा, ‘जब मैंने जीवन में पहली बार एक मुस्लिम शादी देखी तो उसमें यह देखकर बेहद रोमांचित थी कि इनके यहां दूल्हे से पहले दुल्हन से शादी को लेकर उसकी रजामंदी बाआवाज पूछी जाती है. उसके बाद काजी दूल्हे से कुबूल कराता है.’ उन्होंने कहा, ‘मुझे ताज्जुब है कि निकाह के लिए लडकी की रजामंदी पहले लेने वाले लोग, तलाक देने के मामले में उससे उसका मत जानना ही नहीं चाहते. जो बहुत गलत है. इसलिए ऐसी रवायत पर रोक लगाना, औरत को खुली हवा में सांस लेने की आजादी देने जैसा है.’
उन्होंने कहा, ‘मुझे तो यह भी समझ नहीं आता कि जब पाकिस्तान जैसे देश में 50 साल से भी ज्यादा वक्त गुजरे तीन तलाक खत्म कर दिया गया तो हमारे यहां तो उनसे ज्यादा ही मुस्लिम आबादी रहती है और शैक्षिक, आथर्कि और सामाजिक रुप से उनकी स्थिति से काफी अच्छी है. फिर भी हमारे यहां आजादी के 70 साल बाद भी यह मसला लटका ही रहा.’
उन्होंने उम्मीद जताई कि सरकार अदालत की दी गई मियाद के भीतर ही कोई ऐसा सक्षम कानून जरुरी लाएगी जो मुस्लिम बहनों को सुकून और इज्जत के साथ जीने का हक देगा.