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एक बड़ी घटना की सीख

पवन के वर्मा लेखक एवं पूर्व प्रशासक pavankvarma1953@gmail.com जैश के बालाकोट स्थित प्रशिक्षण शिविर पर हवाई हमले के संबंध में मेरी दृष्टि में जो मूलभूत पहलू है, वह यह कि इसने हमारे सुरक्षा सिद्धांत के मानक में एक परिवर्तन को रेखांकित किया है. मैंने इसे क्यों मानक परिवर्तन की संज्ञा दी है? क्योंकि वर्ष 1971 […]

पवन के वर्मा
लेखक एवं पूर्व प्रशासक
pavankvarma1953@gmail.com
जैश के बालाकोट स्थित प्रशिक्षण शिविर पर हवाई हमले के संबंध में मेरी दृष्टि में जो मूलभूत पहलू है, वह यह कि इसने हमारे सुरक्षा सिद्धांत के मानक में एक परिवर्तन को रेखांकित किया है. मैंने इसे क्यों मानक परिवर्तन की संज्ञा दी है?
क्योंकि वर्ष 1971 के पश्चात हमने आत्मरक्षा में कभी भी नियंत्रण रेखा पार नहीं की. हमने इसे 26/11 के मुंबई आतंकी हमले के बाद नहीं किया. यहां तक कि हमने इसे कारगिल में पाकिस्तान के सत्यापित सशस्त्र घुसपैठ के बाद भी नहीं किया, जब वे घुसपैठिये रणनीतिक रूप से लाभदायक बिंदुओं पर मोर्चेबंदी कर जमे थे और उन्हें वहां से बाहर करने को हमें अपने सैकड़ों जवान तथा अधिकारी निश्चित मृत्यु के मुख में झोंकने पड़ते. ऐसे में हमारी स्वाभाविक प्रतिक्रिया यह होनी चाहिए थी कि हम नियंत्रण रेखा पार कर उसे सील कर देते और घुसपैठियों के सामने आपूर्ति के अभाव में भूखों मर जाने की नौबत ला देते. पर हमने ऐसा नहीं किया. इसकी बजाय हमारे नीति निर्माता अच्छे आचरण एवं संयम के प्रमाणपत्र प्राप्त करने दुनियाभर के दूतावासों में चक्कर काटते फिरे.
पुलवामा के पश्चात हमने आत्मरक्षा में विश्वसनीय निवारक प्रस्तुत करने की लीक से हटकर शत्रु राष्ट्र को यह बताया कि हद से बाहर उकसाये जाने पर हम उनकी जमीन में घुसकर भी आतंकी अड्डों को तबाह करने को तैयार हैं.
हमारी इस प्रतिक्रिया पर पाकिस्तान चकित रह गया, क्योंकि उसने यह सोच रखा था कि पहले की ही भांति भारत ‘उचित उत्तर’ देने की लफ्फाजी से आगे नहीं जायेगा. इस तरह बालाकोट आक्रमण ने शत्रु शिविर में एक मनोवैज्ञानिक असर पैदा करते हुए भारत की प्रतिक्रिया को लेकर उसकी निश्चिंतता नष्ट कर दी है.
वस्तुतः यह बालाकोट का प्रमुख सबक है. हमारे हवाई हमले से क्या क्षति पहुंची, इसे लेकर चल रहा विवाद पूरी तरह अप्रासंगिक है, जो सर्वप्रथम तो भाजपा सदस्यों के गैरजिम्मेदार बयानों से पैदा हुआ, जिन्होंने हताहतों की संख्या को लेकर भिन्न-भिन्न बयान दिये. वे ऐसा करने को अधिकृत भी नहीं थे. जिस एकमात्र बयान की जरूरत थी, वह सशस्त्र सेनाओं द्वारा उनके पत्रकार सम्मेलन में दे दिया गया. उसके बाद कोई भी बात सरकार के एक अधिकृत प्रतिनिधि द्वारा ही कही जानी चाहिए थी.
यदि बालाकोट हमले के राजनीतिकरण का सोचा-समझा प्रयास किया गया, तो यह दुर्भाग्यपूर्ण ही होगा. नीतीश कुमार ने एक स्पष्ट बयान दिया कि राष्ट्रीय सुरक्षा के मुद्दे अपनी परिभाषा से ही राष्ट्रीय होते हैं, न कि किसी दलगत राजनीति के विषय. किंतु राजनीतिकरण नहीं करने का मतलब यह नहीं होता कि बालाकोट तथा पुलवामा को लेकर कोई सवाल ही खड़ा नहीं किया जाये. एक लोकतंत्र में लोगों को पूछने की आजादी और जानने का अधिकार होता है.
जो कुछ करने से बचने की जरूरत होती है, वह यह कि हमारे बहादुर सैनिकों के बलिदान तथा वीरता पर वोट हासिल करने की कोशिश की जाये. इस संदर्भ में कर्नाटक के भाजपा नेता येदियुरप्पा का वह बयान, कि बालाकोट के परिणामस्वरूप भाजपा को राज्य में कई अधिक सीटें मिलेंगी, वस्तुतः अफसोसनाक है.
पुलवामा भी सवाल करने का विषय है. क्या इस आतंकी हमले को रोका जा सकता था?
क्या इसमें कोई खुफिया विफलता थी? क्या समन्वय तथा पूर्वानुमान की कोई कमी रही? क्या बड़े काफिले में जवानों के आवागमन को लेकर मानक परिचालन प्रक्रियाओ का अनुपालन नहीं किया गया? लोकतंत्र में ऐसे प्रश्न अपरिहार्य हैं, भविष्य में ऐसे ही अन्य आक्रमण रोकने की दिशा में जिनका स्वागत किया जाना चाहिए.
क्या इस चुनाव में बालाकोट का प्रभाव मतदान पर कोई असर डालेगा? कुछ ठोस नहीं कहा जा सकता. यदि लोगों को ऐसा लगता है कि वर्तमान सरकार ने आतंक के साथ पाक के नापाक गठबंधन के प्रत्युत्तर में अभूतपूर्व दिलेरी दिखायी है, तो उसे उसका लाभ मिलेगा. यदि बालाकोट के पश्चात पाकिस्तान द्वारा दहशतगर्दी के प्रायोजन पर प्रमाणित किये जाने योग्य प्रभाव पड़ा है, तो वर्तमान सत्तासीन दल को उसका भी श्रेय मिलेगा ही.
पर यदि सीमापार से दहशतगर्दी बेरोकटोक जारी रहती है और इसी तरह सीमापार के घुसपैठियों द्वारा हमारे जवानों एवं नागरिकों की जान से खिलवाड़ करना जारी रहता है, तो सरकार अथवा सत्तासीन दल को उसका खामियाजा भी चुकाना पड़ेगा. पाकिस्तान के साथ हमारी सीमा पर तथा कश्मीर घाटी में सुरक्षा की स्थिति परिवर्तनशील है. मतदान के दिन तक काफी कुछ संभव है.
इसके अलावा, ऐसा भी नहीं है कि मतदाताओं की पसंद किसी एक कारक पर ही निर्भर है. राष्ट्रीय सुरक्षा एक मुद्दा हो सकता है, पर एक मतदाता कई अन्य कारकों से भी प्रभावित होता है, जिनमें स्थानीय मुद्दे, खासकर रोजगार एवं कृषि संकट से संबद्ध आर्थिक स्थिति, दलीय संबद्धता और सत्ता की क्षेत्रीय सोच भी शामिल हैं. इतने सारे कारकों के बीच केवल राष्ट्रीय सुरक्षा को ही एकमात्र निर्णायक बिंदु बताना नासमझी ही होगी. मूलभूत बात यह है कि यदि सत्तासीन दल सीमापार से आनेवाले खतरों को नियंत्रित करने अथवा उसका उचित प्रत्युत्तर देने में सक्षम दिखता हो, तभी सुरक्षा के मुद्दे का मतदाताओं की भावनाओं पर कोई असर होगा.
इस बार चुनाव में विपक्ष का काम कहीं अधिक कठिन है. चुनाव की दृष्टि से राष्ट्रीयता एक उत्तेजक मुद्दा है.यदि इसे दलगत राजनीतिक लाभ के लिए इस्तेमाल करना वांछनीय न हो, तो भी सत्तारूढ़ दल इससे लाभ उठाना चाहेगा. विपक्ष को राष्ट्रीय अनिवार्यताओं के प्रति समर्थन व्यक्त करने एवं सत्तासीन दल से सही वक्त पर सही सवाल सही अनुपात में पूछने के बीच का नाजुक संतुलन साधना ही चाहिए. इसके द्वारा उठाये जानेवाला सर्वोत्तम कदम यह होगा कि जब भी वैसा करने की पर्याप्त वजहें हों, वह सीमापार से पैदा दहशतगर्दी के विरुद्ध संघर्ष में सरकार से जवाबदेही की मांग करे.
पुलवामा एक त्रासदी थी. जहां तक संभव हो, ऐसी त्रासदियां नहीं होनी चाहिए. बालाकोट एक ऐसी कार्रवाई थी, जिसकी प्रतीक्षा थी. इसे कार्यान्वित करने के निर्णय का श्रेय सरकार को मिलना चाहिए. पर इसे सनसनीखेज बनाने का कोई भी प्रयास- अथवा जैसा सर्जिकल स्ट्राइक के साथ किया गया- इसे पाकिस्तान की दहशतगर्दी के निर्णायक जवाब के रूप में पेश करना विपरीत परिणाम भी दे सकता है. यह सत्तासीन दल के लिए चुनौती है.
(अनुवाद: विजय नंदन)

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