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चेहरा बदल देगा डिजिटल मास्क

फेशियल प्रोजेक्शन टेक्नोलॉजी आधारित नये सॉफ्टवेयर से किसी भी इंसान के चेहरे का डिजिटल मास्क बनाया जा सकता है. इस डिजिटल मास्क को भविष्य में एक वीडियो से दूसरे वीडियो में मिश्रित किया जा सकता है. कैसे काम करती है यह टेक्नोलॉजी, इससे कैसे बदलता है चेहरे का स्वरूप, क्या हैं इसके लाभ, बता रहा […]

फेशियल प्रोजेक्शन टेक्नोलॉजी आधारित नये सॉफ्टवेयर से किसी भी इंसान के चेहरे का डिजिटल मास्क बनाया जा सकता है. इस डिजिटल मास्क को भविष्य में एक वीडियो से दूसरे वीडियो में मिश्रित किया जा सकता है. कैसे काम करती है यह टेक्नोलॉजी, इससे कैसे बदलता है चेहरे का स्वरूप, क्या हैं इसके लाभ, बता रहा है आज का नॉलेज..

ब्रह्नानंद मिश्र

नाम गुम हो जायेगा, चेहरा ये बदल जायेगा

मेरी आवाज ही पहचान है, गर याद रहे..

मशहूर गीतकार गुलजार द्वारा लिखे गये और लता मंगेशकर के सुरों से सजे इस गीत में भले ही यह बताया गया हो कि समय के साथ-साथ चेहरे की रंगत बदल जाती है, लेकिन आज के जमाने की विभिन्न तकनीकें समय से पहले ही चेहरे को मनचाही रंगत देने में सक्षम हैं. चेहरा अगर इंसान की पहचान है, तो चेहरे के हाव-भाव दिल और दिमाग के आइने हैं. सोचिये, कुछ समय के लिए यदि आपका चेहरा बिल्कुल अमिताभ बच्चन जैसा हो जाये, तो क्या-क्या होगा! फेशियल प्रोजेक्शन टेक्नोलॉजी एक ऐसी प्रक्रिया है, जिससे अमिताभ बच्चन क्या, आप किसी भी फिल्म स्टार या मनचाहे व्यक्ति का चेहरा धारण कर सकते हैं. हॉलीवुड में अब तक इस तकनीक पर आधारित कई साइंस फिक्शन फिल्मों का निर्माण किया जा चुका है.

फेशियल प्रोजेक्शन टेक्नोलॉजी चेहरे को अस्थायी रूप से और मनचाहे तरीके से बदलने की प्रक्रिया है, जबकि कॉस्मेटिक सजर्री चेहरे को स्थायी तौर पर बदलने की मेडिकल साइंस की बेमिसाल तकनीक है. फेशियल प्रोजेक्शन टेक्नोलॉजी को विकसित करनेवाले अट्यरूरो कास्ट्रो ने डिजिटल मोर्फिग की मदद से एक के बाद एक सेलिब्रेटी के चेहरों का मास्क बनाने में कामयाबी हासिल की. कास्ट्रो ने हॉलीवुड एक्ट्रेस पेरिस हिल्टन, अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा, मारलिन मोनरो, माओ जिडांग जैसे मशहूर चेहरों का डिजिटल मास्क बना कर लोगों को आश्चर्यचकित कर दिया. इसके अलावा, जापानी डिजिटल आर्टिस्ट नोबुमिकी असाइ ने भी प्रोजेक्शन मैपिंग टेक्नोलॉजी आधारित ओमेट नाम का एक वीडियो बनाया था. असाइ ने इस वीडियो के लिए प्रोजेक्शन मैपिंग और फेस ट्रैकिंग टेक्नोलॉजी दोनों को एक साथ इस्तेमाल किया.

डिजिटल मास्क की तकनीक

बार्सिलोना के आर्टिस्ट और डेवलपर कास्ट्रो ने क्रिएटिव कोडिंग के लिए ओपेन-सोर्स टूलकिट (ऐसा कंप्यूटर सॉफ्टवेयर जिसके लिए सोर्स कोड आसानी से उपलब्ध हो) सॉफ्टवेयर तैयार किया- जिसे ओपेनफ्रेमवर्क्‍स का नाम दिया गया. यह पूरा प्रोग्राम कैनेडियन प्रोग्रामर द्वारा क्रिएटिव फेस के लिए की जाने वाली इमेज क्लोनिंग प्रक्रिया पर आधारित है. ‘पॉपुलर मैकेनिक्स’ की एक रिपोर्ट के अनुसार, चेहरे की शिनाख्त (फेशियल रिकग्निशन प्रोसेस) को सामान्य बनाने के लिए कायले मैकडोनाल्ड ने फेस ट्रैकिंग के लिए प्रयोग में आने वाली वैज्ञानिक जेशन सारगी की ‘सी/ सी++ लाइब्रेरी’ और ‘ओएफएक्स ट्रैकर’ का इस्तेमाल किया.

कास्ट्रो ने इस प्रक्रिया में सबसे पहले चेहरे की तसवीर को प्रोग्राम में डालते हुए, तसवीर के तकनीकी बिंदुओं का विश्लेषण शुरू किया. इस दौरान आंख, नाक, मुंह आदि की लंबाई व चौड़ाई के अनुपात को व्यवस्थित रखने के लिए तस्वीर में दर्जनों बिंदुओं को चिह्न्ति किया. इसके बाद कास्ट्रो ने फोटो से मेस (जाली) को अलग रीयल-टाइम वीडियो में व्यवस्थित किया. वीडियो में जब व्यक्ति चेहरे के हाव-भाव को बदलता है या मुस्कुराता है या फिर अपनी भौंहों को ऊपर-नीचे करता है तो चेहरे की ऊपरी परत पर खिंचाव या सिकुड़न ठीक उस व्यक्ति के क्रिया-कलाप के अनुसार होती है. संबंधित व्यक्ति की त्वचा और ‘मास्क’ के रंग में आने वाली विसंगतियों को दूर करने के लिए कास्ट्रो ने ‘कलर इंटरपोलेशन एल्गोरिथम’ का इस्तेमाल किया. यह एल्गोरिथम एटकिंशन के इमेज क्लोन कोड पर आधारित होती है. इस तकनीक के माध्यम से स्क्रीन पर तसवीरों में दिखने वाली झुर्रियों और अस्पष्टता को दूर किया जाता है. इस अस्पष्टता को दूर करने के बाद चित्रों को बेहतर तरीके से डिजिटल मास्क में संयोजित किया जा सकता है.

डिजिटल मास्क पर है अलग-अलग मत

डिजिटल मास्क का पहला संस्करण बेहद प्रभावी रहा. कुछ लोगों का मानना है कि डिजिटल मास्किंग की तकनीकी प्रक्रिया पहली नजर में डरावनी लगती है. इस बात पर कास्ट्रो का मानना है कि चेहरा थोड़ा ठोस व रूखा होता है और असामान्य तरीके से परिवर्तित होता है. ऐसे में इस प्रक्रिया के दौरान देखने वाले को मृत व्यक्ति का चेहरा प्रतीत होने लगता है. ऐसे तमाम सवालों को हल करने के लिए कास्ट्रो और मैकडोनाल्ड ने तकनीक में गुणात्मक सुधार करने के लिए एक हद तक प्रयास भी किया. कास्ट्रो का मानना है कि जब एक शांत व्यक्ति के चेहरे का प्रतिचित्र और क्रिया-कलाप तेजी से परिवर्तित होता है तो देखने वाले व्यक्ति को डर का एहसास होने लगता है. हालांकि, डिजिटल मास्क की इस प्रक्रिया को आम लोगों के बीच सामान्य बनाने के लिए तकनीक को और भी विकसित करने की जरूरत है. इस तकनीक की कामयाबी के बाद कास्ट्रो और मैकडोनाल्ड ने ‘फेस सब्स्टिटय़ूशन टेक्नोलॉजी’ पर काम करना शुरू किया. यह तकनीक भविष्य में यदि सफल होती है, तो एक वीडियो से चेहरे के प्रतिचित्र को लेकर दूसरे वीडियो में सम्मिश्रित किया जा सकेगा. हालांकि, इस तकनीक पर हार्वर्ड के केविन डेल जैसे कई अन्य शोधकर्ता भी काम कर रहे हैं. प्रकाश तकनीकों व स्किन विरूपण जैसी विसंगतियों को दूर कर इस तकनीक को और भी बेहतर बनाया जा सकता है.

डिजिटल अनशॉर्प मास्किंग का प्रयोग एस्ट्रोफोटोग्राफी में

अनशॉर्प मास्किंग एक एडवांस्ड टेक्नोलॉजी है, जिसका मूल रूप से इस्तेमाल ग्राफिक इंडस्ट्री में किया जाता है. इस तकनीक में मूल चित्रों को धुंधला करके फिल्म मास्क तैयार किया जाता है. मशहूर एस्ट्रोफिजिशिस्ट विलियम सी मिलर ने इस तकनीक का इस्तेमाल एस्ट्रोफोटोग्राफी के लिए किया. एंग्लो-ऑस्ट्रेलियन ऑब्जरवेटरी के डेविड मैलिन ने भी इस तकनीक पर आधारित स्पेक्टेकुलर इफेक्ट पर काम किया. वर्षो पहले चक वॉउन ने भी डिजिटल अनशॉर्प मास्किंग आधारित एस्ट्रो फोटोग्राफी टेक्नोलॉजी की व्याख्या की थी. इस तकनीक की प्रक्रिया कुल पांच चरणों में संपन्न होती है. सबसे पहले मूल चित्र का डुप्लीकेट तैयार किया जाता है. दूसरे चरण में डुप्लीकेट को ब्लर (धुंधला) कर दिया जाता है. तीसरे चरण में डुप्लीकेट की ब्राइटनेस व कंट्रास्ट को कम किया जाता है. चौथे चरण में मूल चित्र से डुप्लीकेट को अलग किया जाता है और अंतिम चरण में विभिन्न स्तरों पर मास्क को व्यवस्थित कर दिया जाता है.

क्या है मास्क का सिद्धांत

मास्क एक फिल्टर (निष्पंदन) आधारित प्रक्रिया होती है. मास्किंग का सिद्धांत त्रिविमीय निष्पंदन (स्पेटियल फिल्टरिंग) पर काम करता है. यह प्रक्रिया विशेष प्रकार के छायाचित्रों पर अपनायी जाती है. फिल्टरिंग के दौरान मास्क को प्रतिचित्र के साथ मिश्रित किया जाता है. इसलिए फिल्टर मास्क को कन्वोल्यूशन मास्क भी कहा जाता है. फिल्टरिंग और मास्क को लागू करने की सामान्य प्रक्रिया में प्रतिचित्र (इमेज) में फिल्टर मास्क एक बिंदु से दूसरे बिंदु तक लगातार परिवर्तित होता रहता है. मूल प्रतिचित्र के प्रत्येक बिंदु (एक्स, वाइ) पर फिल्टर के प्रभाव को पहले से निर्धारित संबंधों के आधार पर हल किया जाता है. इस दौरान फिल्टर की वैल्यू पूर्व परिभाषित और स्टैंडर्ड के मुताबिक रखी जाती है.

फिल्टर के प्रकार और प्रयोग के तरीके

सामान्य तौर पर फिल्टर की प्रक्रिया दो प्रकार के सिद्धांतों पर काम करती है. पहली प्रक्रिया रैखिक होती है. इसे लीनियर फिल्टर्स या स्मूथिंग फिल्टर कहा जाता है और दूसरी प्रक्रिया आवृत्ति के सिद्धांतों पर काम करती है, जिसे फ्रिक्वेंसी डोमेन फिल्टर कहा जाता है. इमेज या प्रतिचित्रों पर फिल्टर प्रक्रिया विभिन्न उद्देश्यों के लिए लागू की जाती है. इनमें कुछ महत्वपूर्ण इस प्रकार हैं. पहली, चित्रों के धुंधलेपन और अतिरिक्त ध्वनि को कम करने के लिए और किनारों और विभिन्न कोणों की पहचान करने और उसे शार्प करने के लिए. धुंधलेपन को दूर करने के लिए आमतौर पर बॉक्स फिल्टर व वेटेड एवरेज फिल्टर का इस्तेमाल किया जाता है. ब्लरिंग के दौरान चित्रों में किनारों और उभारों को कम कर दिया जाता है व पिक्सल के बीच जरूरत के मुताबिक परिवर्तन किया जाता है. ब्लरिंग की प्रक्रिया में अतिरिक्त ध्वनि को आसानी से कम किया जा सकता है.

चेहरा बदलने की मेडिकल साइंस की तकनीक

कॉस्मेटिक सजर्री

चेहरे को स्थायी रूप से परिवर्तित करने की कॉस्मेटिक सजर्री की प्रक्रिया अपनायी जाती है. ऐसे लोग जिनके चेहरे पर जन्मजात विरूपता होती है या किसी दुर्घटनावश चेहरे का आकार असामान्य हो जाता है, तो ऐसी स्थिति में मेडिकल साइंस आधारित प्लास्टिक सजर्री तकनीक अपनायी जाती है. प्लास्टिक सजर्री से आंशिक रूप से या पूरा चेहरा बदला जा सकता है. आमतौर पर कॉस्मेटिक सजर्री की प्रक्रिया में व्यक्ति के आंख के नीचे की हड्डियों का ट्रांसप्लांट, ठुड्डी की सजर्री, कान की सजर्री, पलकों की सजर्री, चेहरों के आकार में परिवर्तन, चेहरे से अतिरिक्त मांसपेशियों को हटाना, होठों की सजर्री, नाक की सजर्री, त्वचा चिकित्सा, बोटोक्स इंजेक्शन, केमिकल पील और लेजर ट्रीटमेंट सहित विभिन्न प्रक्रियाएं अपनायी जाती हैं. ‘न्यूयार्क टाइम्स’ की एक रिपोर्ट के अनुसार, इसाबेल डिनोयर नाम की एक फ्रेंच महिला का चेहरा कुत्ते के काटने के कारण क्षत-विक्षत हो गया था. डॉक्टरों की एक टीम ने डिनोयर के शरीर के एक हिस्से से ऊतकों को लेकर क्षतिग्रस्त हिस्से को ठीक किया था. इसके बाद एक ‘ब्रेन डेड’ महिला के ऑर्गन्स की मदद से बिल्कुल नया चेहरा बनाने में कामयाबी हासिल की थी. इसके कुछ माह बाद डिनोयर सामान्य तरीके से खाने-पीने और बोलने में समर्थ हो गयी थी. एक दूसरे मामले में वर्ष 2007 में डॉक्टरों की एक टीम ने न्यूरोफाइब्रोमेटोसिस (नर्व में टय़ूमर के बढ़ने की बीमारी) से पीड़ित व्यक्ति के चेहरे को पूर्ण रूप से परिवर्तित कर दिया था. 15 घंटे के ऑपरेशन के बाद डॉक्टरों ने व्यक्ति की नाक, मुंह, गाल आदि को बदलने में कामयाबी हासिल की थी.

कैसे होती है फेस ट्रांसप्लांट सजर्री

फेस ट्रांसप्लांट सजर्री से पहले व्यक्ति का पर्याप्त रूप से स्वस्थ होना जरूरी है. इस बड़े शारीरिक बदलाव के लिए व्यक्ति को मानसिक रूप से भी तैयार होना चाहिए. चूंकि ऐसे ऊतकों को एक्टिव ब्लड सोर्स से जोड़ा जाता है, इसलिए सजर्री की प्रक्रिया सही डोनर के चुनाव से होती है, जिसके ऊतकों (टिश्यूज) का सजर्री के लिए इस्तेमाल किया जाता है. डोनर के रूप में लाइफ सपोर्ट पर जिंदा व्यक्ति या ब्रेन डेड व्यक्ति के ऑर्गन्स का इस्तेमाल किया जाता है. ब्लड और टिश्यूज की मैचिंग के लिए डॉक्टर एचएलए टाइपिंग (ह्यूमन ल्यूकोसाइट एंटीजेन) टेस्ट करते हैं. इस प्रक्रिया में टिश्यूज के सरफेस पर प्रोटीन्स (जिसे एंटीजेन कहा जाता है) को परखा जाता है. मेल नहीं होने पर इम्यून सिस्टम (प्रतिरक्षी तंत्र) डोनर से लिये गये टिश्यूज को रिजेक्ट कर सकता है. नयी तकनीकों में इस प्रक्रिया में स्टेम सेल टेक्नोलॉजी का भी इस्तेमाल किया जा सकता है. ‘हेल्थ डॉट हाउ स्टफ वर्क्‍स डॉट काम’ की रिपोर्ट के अनुसार, सजर्री के दौरान संबंधित व्यक्ति के न केवल त्वचा बल्कि वसा, मांसपेशियों, उपास्थि, धमनियों, शिराओं व नसों समेत कुछ मामलों में हड्डियों का भी ट्रांसप्लांट करते हैं.

डोनर से प्राप्त किये ऑर्गन को प्रतिरोपित होने तक मेडिकल टीम द्वारा उसे बर्फ में संरक्षित रखा जाता है. सजर्री के दौरान सजर्न माइक्रोस्कोपिक सूई और धागों की मदद से धमनियों व शिराओं को नये ऊतकों से जोड़ते हैं, जिससे कि ऑक्सीजनयुक्त रक्त की आपूर्ति सुनिश्चित की जा सके. इस दौरान सजर्न सभी धमनियों व शिराओं को ऊतकों से नहीं जोड़ते हैं. अंतिम चरण में सजर्न डोनर के चेहरे को वाहक व्यक्ति के स्कल (खोपड़ी) पर व्यवस्थित करते हैं. सजर्री सफल होने के बाद संबंधित व्यक्ति को टिश्यूज रिजेक्शन से बचने के लिए आजीवन इम्युनो-सप्रेसेंट दवाओं को सेवन करना होता है.

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