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Friday, March 29, 2024

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वर्षांत 2018 : सुर्खियों में रहे संस्थान

वर्ष 2018 में कई संवैधानिक संस्थाएं विवादों में रहीं. विवादों के कारण समय-समय पर सरकार और इन संस्थाओं के बीच खींचतान पर सवाल भी खड़े होते रहे. कई ऐसे शिक्षण संस्थान भी अलग-अलग कारणों से खबर का हिस्सा बने रहे.विवादों के बीच यह सवाल भी उठता रहा कि सरकार को संवैधानिक संस्थाओं की स्वायत्तता का […]

वर्ष 2018 में कई संवैधानिक संस्थाएं विवादों में रहीं. विवादों के कारण समय-समय पर सरकार और इन संस्थाओं के बीच खींचतान पर सवाल भी खड़े होते रहे. कई ऐसे शिक्षण संस्थान भी अलग-अलग कारणों से खबर का हिस्सा बने रहे.विवादों के बीच यह सवाल भी उठता रहा कि सरकार को संवैधानिक संस्थाओं की स्वायत्तता का सम्मान करना चाहिए. वहीं, विशेषज्ञों के एक वर्ग ने िववादों को देश के विकास में बाधा बताया तथा सरकार व संस्थाओं के बीच सामंजस्य को सर्वोपरि कहा. ऐसे ही कुछ प्रमुख विवाद आज की विशेष प्रस्तुति में…
सीबीआइ
सीबीआइ का गठन साल 1941 में स्पेशल पुलिस इस्टेब्लिशमेंट के रूप में हुआ था. तब यह संस्था युद्ध और आपूर्ति विभाग के भ्रष्टाचार मामलों की जांच करने का काम करती थी. समय के साथ इसके हिस्से में जांच का दायरा बढ़ता गया और वर्ष 1963 से इसे सीबीआइ के तौर पर जाना जाने लगा. गुजरते साल यह तब खबर का हिस्सा तब बनी, जब अक्तूबर माह में सीबीआइ के डायरेक्टर आलोक वर्मा और स्पेशल डायरेक्टर राकेश अस्थाना को छुट्टी पर भेज दिया गया. इससे पहले इन दोनों अधिकारियों ने एक-दूसरे पर भ्रष्टाचार के आरोप लगाये थे.
इसके बाद कार्रवाई करते हुए सरकार ने आलोक वर्मा की जगह नागेश्वर राव को अंतरिम निदेशक बना दिया था. इस मामले दौरान विपक्ष हमलावर हो गया और उसने सरकार पर दखलंदाजी का आरोप लगाया. इसके जवाब में केंद्रीय वित्त मंत्री आरोप को बकवास कहा, वहीं भाजपा सांसद सुब्रमण्यम स्वामी पूर्व सीबीआइ डायरेक्टर आलोक वर्मा को ईमानदार बता दिया और कहा कि सरकार द्वारा की गयी कार्रवाई ठीक नहीं थी.
जानकारों का मानना है कि इस विवाद और कार्रवाई से सीबीआइ की छवि अदालतों, सरकारों और आम लोगों के बीच बिगड़ी है. ऐसा पहली बार नहीं है, जब सीबीआइ विवादों का हिस्सा बना है. इंदिरा गांधी और उनके बाद की सभी सरकारों के वक्त भी सीबीआइ को सवाल उठते रहे हैं. सुप्रीम कोर्ट के निर्देशानुसार केंद्रीय सतर्कता आयोग मामले की जांच कर रहा है.
सीवीसी
केंद्रीय सतर्कता आयोग का गठन साल 1964 में सरकारी भ्रष्टाचार पर रोक लगाने के उद्देश्य से किया गया था. यह संस्थान भी गुजरते साल विवादों का हिस्सा बना रहा, जब मुख्य आयुक्त केवी चौधरी की नियुक्ति को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी गयी थी, जिसे बाद उच्च न्यायालय ने खारिज कर दिया था.
विवाद और गहरा गया, जब विपक्ष ने सीबीआइ मामले में केंद्रीय सतर्कता आयोग पर सरकार से मिलीभगत करने का आरोप लगा दिया था. भाजपा सांसद सुब्रमण्यम स्वामी ने भी सीवीसी पर सवाल खड़े किये थे. सरकार ने सबके आरोपों को खारिज करते हुए कहा था कि सीबीआइ की सीवीसी जांच कर रही है और सीवीसी पर न्यायपालिका अपनी नजर रखती है.
चुनाव आयोग
लोकतंत्र की महत्वपूर्ण संवैधानिक संस्था चुनाव आयोग की स्वायत्तता को बेहद जरूरी माना जाता है. लेकिन, देश का चुनाव आयोग (ईसी) भी उन संस्थाओं में शामिल रहा, जो इस वर्ष विवाद में बनी रहीं. केवल इसी वर्ष नहीं, हालिया कई वर्षों में चुनाव आयोग पर सवाल उठते रहे हैं, जिसमें ज्यादातर ईवीएम में गड़बड़ी से जुड़े रहे हैं. सितंबर में चुनाव आयोग ने पांच राज्यों के विधानसभा चुनावों की घोषणा थी.
घोषणा के दिन आयोग ने प्रेस कॉन्फ्रेंस का पूर्व निर्धारित समय अचानक बदल दिया था, जिसके बाद विपक्ष ने चुनाव आयोग पर सवाल उठाया था और आरोप लगाया था कि उसी दिन प्रधानमंत्री की राजस्थान में हुई रैली की वजह से प्रेस कॉन्फ्रेंस का समय बदल लिया गया.
ऐसे ही कुछ हुआ था, जब हिमाचल प्रदेश और गुजरात विधानसभा चुनाव के समय चुनाव आयोग ने दोनों राज्यों में मतदान की तारीखों की घोषणा एक साथ नहीं की थी. कर्नाटक विधानसभा चुनाव के समय ऐसा भी देखा गया कि कई नेता चुनाव तारीखों की घोषणा चुनाव आयोग की प्रेस कॉन्फ्रेंस से पहले ही करते पाये गये. यह सारी बातें चुनाव आयोग की विश्वसनीयता पर सवालिया निशान लगानेवाली हैं.
ईडी
संवैधानिक संस्था प्रवर्तन निदेशालय (ईडी) भी गुजरते साल विवादों में रही. ईडी के एक वरिष्ठ अधिकारी द्वारा वित्त सचिव हसमुख अधिया को एक पत्र भेजा गया था, जिसमें भ्रष्टाचार के आरोप लगाये गये थे.
इस पत्र को लेकर विवाद की स्थिति बन गयी थी. इस पत्र में भ्रष्टाचार के कई आरोप लगाने वाले अधिकारी राजेश्वर सिंह के खिलाफ उच्च न्यायालय में याचिका दायर की गयी थी. इसके बाद राजेश्वर सिंह ने एक और पत्र लिखकर हसमुख अधिया के खिलाफ लगाये आरोप वापस ले लिए थे. राजेश्वर सिंह पहले कई बेहद बड़े मामलों की जांच से जुड़े रहे थे.
इस मामले में विवाद की वजह अंदरूनी हाई प्रोफाइल भ्रष्टाचार के मामले का सतह पर आ जाना माना गया था. इस दौरान वित्त सचिव को पत्र लिखने वाले अधिकारी के समर्थन में भाजपा सांसद सुब्रमण्यम स्वामी खड़े हो गये थे और सरकार को चेतावनी दे दी थी. उन्होंने कहा था कि पीसी के विरुद्ध आरोप-पत्र दाखिल न हो, इसलिए ही कार्रवाई की जा रही थी. प्रवर्तन निदेशालय देश में आर्थिक कानून को लागू कराने वाला संस्थान है. इस संवैधानिक संस्थान की स्थापना ही भारत मेंआर्थिक अपराधों पर रोक लगाने के लिए की गयी है और यह वित्त मंत्रालय के राजस्व विभाग के अधीन काम करता है. इस विवाद से प्रवर्तन निदेशालय की साख पर असर पड़ा है.
सुप्रीम कोर्ट
सुप्रीम कोर्ट भी विवाद से अछूता नहीं रह गया था, जब जनवरी महीने में चार वरिष्ठ जजों द्वारा अदालत में प्रशासनिक अनियमितताओं सहित देश में न्यायपालिका की स्थिति को लेकर प्रेस कॉन्फ्रेंस किया गया था. इन जजों में वर्तमान चीफ जस्टिस रंजन गोगोई भी शामिल थे. इसके अतिरिक्त, कांग्रेस ने पूर्व चीफ जस्टिस दीपक मिश्रा के खिलाफ महाभियोग प्रस्ताव लाने की कोशिश की थी.
आरबीआई
भारतीय रिजर्व बैंक की स्थापना वर्ष 1935 में की गयी थी. यह केंद्रीय बैंक भारतीय अर्थव्यवस्था के अभिभावक के तौर पर काम करता है. वर्ष 2018 के ज्यादातर समय आरबीआई गलत कारणों से खबर में बना रहा और केंद्र सरकार के साथ विवाद की स्थिति बनी रही.
पहली बार यह खींचतान तब सामने आयी, जब आरबीआई के डिप्टी गवर्नर विरल वी आचार्य ने अपने एक सभा के दौरान कह दिया कि ‘यदि रिजर्व बैंक की स्वायत्तता कमजोर पड़ी, तो इसके विनाशकारी परिणाम देश भुगतेगा. रिजर्व बैंक के स्वायत्तता खोने से पूंजी बाजार में संकट खड़ा हो सकता है, जबकि इस बाजार से सरकार भी कर्ज लेती है, इसलिए इस बैंक की स्वतंत्रता यथावत रहनी चाहिए.
जो सरकारें केंद्रीय बैंक की स्वतंत्रता का सम्मान नहीं करतीं, उन्हें देर-सबेर वित्तीय बाजारों के गुस्से का सामना करना पड़ता है. वे आर्थिक संकट खड़ा कर देती हैं और उस दिन के लिए पछताती हैं, जब उन्होंने एक महत्वपूर्ण नियामक संस्थान की अनदेखी की.’ इस बयान के बाद बहस का नया दौर शुरू हो गया और आरबीआई व सरकार के बीच मतभेद टीवी चैनलों के डिबेट का हिस्सा बनने लगे.
जानकारों के अनुसार इस विवाद की शुरुआत सरकार द्वारा भारतीय रिजर्व बैंक के अधिनियम सात से संबंधित आरबीआई को चिट्ठी लिखे जाने से हुई. ऐसा भारत के इतिहास में पहली बार हुआ हुआ था, जब किसी सरकार ने अधिनियम सात के इस्तेमाल को लेकर पहल की थी. गौरतलब है कि भारतीय रिजर्व बैंक का अधिनियम सात आरबीआई के संचालन से संबंधित है और आरबीआई का संचालन सरकार द्वारा गठित समिति को सौंपने का अधिकार प्रदान करता है.
यह मामला और गहराया जब डिप्टी गवर्नर के बयान के प्रत्युत्तर में वित्त मंत्री ने आरबीआई की कार्य-शैली पर सवाल उठाते हुए कहा कि ‘जब कांग्रेस की सरकार सत्ता में थी, उस वक्त वर्ष 2008 से 2014 के बीच बैंकों द्वारा अंधाधुंध कर्ज बांटे गये और केंद्रीय बैंक इन कर्जों को वसूलने में नाकाम रहा. इसी के चलते बैंकिग उद्योग में फंसे कर्जों यानी एनपीए की समस्या खड़ी हुई. इससे यह हुआ कि वर्ष 2008 में जो कुल बैंक ऋण 18 लाख करोड़ रुपया था, वह साल 2014 में बढ़कर 55 लाख करोड़ रुपये हो गया.
उस समय कांग्रेस सरकार ने कहा था कि कुल एनपीए 2.5 लाख करोड़ रुपये है, लेकिन जब मोदी सरकार वर्ष 2014 में सत्ता में आयी और सरकार द्वारा एसेट क्वाॅलिटी रिव्यू किया गया, तो पता चला कि वास्तव में एनपीए 8.5 करोड़ रुपये हैं.’ वहीं रिजर्व बैंक के अधिकारी स्वायत्तता के सवाल को ऊपर करते रहे और केंद्र सरकार के अधिनियम सात को लेकर किये पहल को आरबीआई के कामों व संचालन में अतिरिक्त दखल देने की कोशिश की बताते रहे.
इस दौरान ऐसी अटकलबाजियां भी लगायी जाती रहीं कि सरकार आरबीआई के खजाने से 3.6 लाख करोड़ रुपये इस्तेमाल के लिए लेना चाहती है. हालांकि, सरकार ने बयान जारी करके इसका खंडन कर दिया. जानकारों का कहना था कि सरकार और बैंक के बीच जारी विवाद का एक पहलू राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) समर्थक अर्थशास्त्रियों को आरबीआई के निदेशक मंडल में अस्थायी सदस्यों के बतौर मनोनीत करना भी रहा. जब नवंबर महीने में आरबीआई केंद्रीय समिति की बैठक हुई, तब ऐसा माना गया कि इस विवाद को दूर कर लिया गया है.
इस बीच दिसंबर में उर्जित पटेल ने निजी कारणों से गवर्नर पद से इस्तीफा दे दिया है और शक्तिकांत दास देश के 25वें गवर्नर के तौर पर चुने गये हैं. हालांकि, भारत के इतिहास में यह पहली बार नहीं हुआ, जब सरकार और आरबीआई के बीच मतभेद सामने आये. जवाहर लाल नेहरू से लेकर मनमोहन सिंह तक पूर्व की लगभग सभी सरकारों के कार्यकाल के दौरान छोटे-बड़े विवाद आरबीआई के साथ खड़े हो चुके हैं
शैक्षणिक संस्थानों में भी विवाद
यूजीसी की जगह उच्च शिक्षा आयोग
इसी वर्ष जून-जुलाई में सरकार ने उच्च शिक्षा की गुणवत्ता को बेहतर बनाने के लिए विश्वविद्यालय अनुदान आयोग यानी यूजीसी को भंग कर इसकी जगह उच्च शिक्षा आयोग यानी एचईसी बनाने की प्रक्रिया शुरू की. इसके तहत आम और खास लोगों से सुझाव और आपत्तियां मांगी गयीं. यूजीसी को समाप्त करने के लिए सरकार ड्राफ्ट भी तैयार कर चुकी है, जिसके जरिये एक आयोग का गठन किया जाना है, जो देशभर की सभी शैक्षणिक संस्थाओं का मूल्यांकन करेगा.
इसके जरिये शैक्षणिक स्तर पर और शिक्षकों के प्रशिक्षण के साथ ही शोध पर विशेष ध्यान दिया जायेगा. हालांकि यूजीसी की तरह एचईसी को अनुदान देने का अधिकार नहीं होगा और वह सिर्फ शैक्षणिक गतिविधियों पर नजर रखेगी. अनुदान का अधिकार सरकार के पास रहेगा. हालांकि यूजीसी को समाप्त करने के सरकार के फैसले का विरोध हो रहा है. विरोध करने वालों में शिक्षण से जुड़े लोग, छात्र संघ व विपक्षी दल के नेता शामिल हैं. इन लोगों का मानना है कि सरकार का यह कदम शैक्षणिक संस्थानों को अपने नियंत्रण में करने का है.
फंड कटौती से विद्यार्थियों में नाराजगी
जेएनयू में पुस्तकालय की राशि में कमी को लेकर विद्यार्थियों में नाराजगी है. पिछले महीने ही लाइब्रेरी एडवाइजरी कमेटी की मीटिंग में बताया गया था कि लाइब्रेरी का फंड अब 8 करोड़ से घटकर 1.7 करोड़ रुपये हो गया है. हालांकि जेएनयू प्रशासन का इस संबंध में कहना है कि यह राशि विश्वविद्यालय को यूजीसी से नहीं मिल पा रही है और इस प्रकार की कमी सभी विश्वविद्यालय में की गयी है. वहीं जेएनयू छात्र संघ का कहना है कि अनुदान राशि में कटौती जेएनयू की बीआर आंबेडकर लाइब्रेरी का निजीकरण है. प्रशासन ने ई-जर्नल्स व जेस्टॉर, सेज सहित तमाम ई-सब्स्क्रिप्शन के नवीनीकरण नहीं करने का भी फैसला किया है, जिससे विद्यार्थियों की पढ़ाई का नुकसान होगा.
अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय में विवाद
अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी (एएमयू) में पाकिस्तान के संस्थापक मोहम्मद अली जिन्ना की तस्वीर को लेकर इस वर्ष मई में विवाद खड़ा हो गया. यह मामला तब सामने आया जब अलीगढ़ से बीजेपी सांसद सतीश गौतम ने एएमयू के उप कुलपति (वीसी) तारिक मंसूर को पत्र लिखकर विश्वविद्यालय कैंपस में पाकिस्तान के संस्थापक मोहम्मद अली जिन्ना के तस्वीर टंगी होने की बात पूछी थी.
सांसद के पत्र का जवाब विश्वविद्यालय के पीआरओ सैफी किदवई की तरफ से ट्विटर पर दिया गया और कहा गया कि मोहम्मद अली जिन्ना 1938 में अलीगढ़ विश्वविद्यालय आये थे, तभी छात्र संघ द्वारा कई लोगों की तरह उन्हें भी मानद उपाधि व आजीवन सदस्यता दी गयी थी. उसी समय वहां जिन्ना की तस्वीर लगायी गयी थी. सांसद द्वारा पत्र के विरोध में बड़ी संख्या में छात्रों ने प्रदर्शन किया था. इस प्रदर्शन में जामिया मिलिया इस्लामिया, जेएनयू व इलाहाबाद विश्वविद्यालय के छात्र भी शामिल हुए थे. प्रदर्शन के दौरान पुलिस व छात्रों के बीच हिंसक झड़प भी हुई थी.
जामिया पहुंचा मामला
अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय (एएमयू) में जिन्ना की तस्वीर को लेकर हुआ विवाद थमा भी नहीं था कि इसने दिल्ली स्थित जामिया मिलिया इस्लामिया विश्वविद्यालय को भी अपनी चपेट में ले लिया था. दरअसल अलीगढ़ की घटना से बौखलाये बीस-पच्चीस लड़कों द्वारा जामिया विश्वविद्यालय के बाहर कथित तौर पर जिन्ना के खिलाफ नारेबाजी करने, पोस्टर लहराने व जामिया के छात्रों के खिलाफ बयानबाजी के कारण कैंपस में तनाव पैदा हो गया था. अपने ऊपर तरह-तरह के आरोप लगाये पर जामिया के छात्र नाराज हो गये थे और प्रदर्शनकारियों से लोहा लेन विश्वविद्यालय की गेट पर पहुंच गये थे, जहां दोनों पक्षों के बीच बहस के साथ-साथ हाथापाई भी हुई थी.
बीएचयू के जूनियर डॉक्टर व विद्यार्थियों के
बीच हिंसक झड़प
इस वर्ष सितंबर में बनारस हिंदू विश्वविद्यालय (बीएचयू) का माहौल तब बिगड़ गया जब जूनियर डॉक्टरों व विश्वविद्यालय के पूर्व छात्र के बीच हुए एक मामूली विवाद ने हिंसक रूप ले लिया था. दरअसल सुंदरलाल अस्पताल में बीएचयू के एक पूर्व छात्र जब अपने परिजन को दिखाने गये तो ड्यूटी पर तैनात जूनियर डॉक्टरों ने मरीज को भर्ती करने से मना कर दिया, जिससे छात्र व डाॅक्टरों के बीच कथित तौर पर तकरार शुरू हो गयी.
इसके बाद जूनियर डॉक्टरों ने पुलिस में शिकायत दर्ज करा दी, जिससे पूर्व छात्र की गिरफ्तारी हो गयी. इस बात की भनक जैसे ही वहां के छात्रों को लगी, उन्होंने डॉक्टरों के खिलाफ प्रदर्शन शुरू कर दिया. देखते-देखते यह मामला बिगड़ गया और डॉक्टरों व छात्रों के बीच मारपीट और पथराव की नौबत आ गयी.
यहां तक कि पेट्रोल बम भी एक-दूसरे पर फेंके गये. देर रात शुरू हुआ यह विवाद सुबह तक चलता रहा. स्थिति को काबू में करने के लिए पुलिस को लाठियां चलानी पड़ीं. धीरे-धीरे हालात इतने ज्यादा बेकाबू हो गये कि अनहोनी से निबटने के लिए सुरक्षाबलों को तैनात करना पड़ा. हालांकि, कड़ी मशक्कत के बाद किसी तरह स्थिति को नियंत्रित कर लिया गया.
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