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प्रेम की होली

गंगी का सत्रहवां साल था, पर वह तीन साल से विधवा थी, और जानती थी कि मैं विधवा हूं, मेरे लिए संसार के सुखों के द्वार बंद हैं. फिर वह क्यों रोये और कलपे? गंगी खाती-पीती थी, हंसती-बोलती थी, किसी ने उसे मुंह लटकाये, अपने भाग्य को रोते नहीं देखा. घड़ी रात को उठकर गोबर […]

गंगी का सत्रहवां साल था, पर वह तीन साल से विधवा थी, और जानती थी कि मैं विधवा हूं, मेरे लिए संसार के सुखों के द्वार बंद हैं. फिर वह क्यों रोये और कलपे? गंगी खाती-पीती थी, हंसती-बोलती थी, किसी ने उसे मुंह लटकाये, अपने भाग्य को रोते नहीं देखा. घड़ी रात को उठकर गोबर निकालकर, गाय-बैलों को सानी देना, फिर उपले पाथना, उसका नित्य का नियम था. फिर कुएं से पानी लाती, चौके का धंधा शुरू हो जाता. गांव की भावजें उससे हंसी करतीं, पर एक विशेष प्रकार की हंसी छोड़ कर. सहेलियां ससुराल से आकर उससे सारी कथा कहतीं, पर एक विशेष प्रसंग बचा कर. सभी उसके वैधव्य का आदर करते थे. जिस छोटे से अपराध के लिए, उसकी भावज पर घुड़कियां पड़तीं, उसकी मां को गालियां मिलतीं, भाई पर मार पड़ती, वह उसके लिए क्षम्य था. जिसे ईश्वर ने मारा है, उसे क्या कोई मारे! जो बातें उसके लिए वर्जित थीं, उनकी ओर उसका मन ही न जाता था.

होली आयी, सबने गुलाबी साड़ियां पहनीं, गंगी की साड़ी न रंगी गयी. मां ने पूछा-बेटी, तेरी साड़ी भी रंग दूं. गंगी ने कहा-नहीं अम्मां, यों ही रहने दो. भावज ने फाग गाया. वह पकवान बनाती रही. उसे इसी में आनंद था. तीसरे पहर दूसरे गांव के लोग होली खेलने आये. यह लोग भी होली लौटाने जायेंगे. गांवों में यही परस्पर व्यवहार है. मैकू महतो ने भंग बनवा रखी थी, चरस-गांजा, माजूम सब कुछ लाये थे. गंगी ने ही भंग पीसी थी, मीठी अलग बनायी थी, नमकीन अलग. उसका भाई पिलाता था, वह हाथ धुलाती थी. जवान सिर नीचा किये पीकर चले जाते, बूढ़े, गंगी से पूछ लेते-अच्छी तरह हो न बेटी, या चुहल करते-क्यों री गंगिया भावज तुङो खाना नहीं देती क्या, जो इतनी दुबली हो गयी है! गंगिया हंस कर रह जाती.

भंग पीने के बाद लोग फाग गाने लगे. गंगिया अपनी चौखट पर खड़ी सुन रही थी. एक जवान ठाकुर गा रहा था. कितना अच्छा स्वर था, कैसा मीठा. गंगिया को बड़ा आनंद आ रहा था. मां ने कई बार पुकारा-सुन जा. वह न गयी. एक बार गयी भी तो जल्दी से लौट आयी. उसका ध्यान उसी गाने पर था. न जाने क्या बात उसे खींचे लेती थी, बांधे लेती थी. जवान ठाकुर भी बार-बार गंगिया की ओर देखता और मस्त हो-होकर गाता. उसके साथवालों को आश्चर्य हो रहा था. ठाकुर को यह सिद्धि कहां मिल गयी! वह लोग विदा हुए तो गंगिया चौखटे पर खड़ी थी. जवान ठाकुर ने भी उसकी ओर देखा और चला गया.

गंगिया ने अपने बाप से पूछा-कौन गाता था दादा?

मैकू ने कहा-कोठार के बुद्धू सिंह का लड़का है, गरीब सिंह. बुद्धू रीति व्यवहार में आते-जाते थे. उनके मरने के बाद अब यह लड़का आने-जाने लगा.

गंगी-यहां तो पहले पहल आया है?

मैकू-हां, और मिजाज बिलकुल बाप का-सा है और वैसी ही मीठी बोली है. घमंड तो छू नहीं गया.

गोरू आ रहे थे. गंगी पगहिया लेने भीतर चली गयी. वही स्वर उसके कानों में गूंज रहा था.

कई महीने गुजर गये. एक दिन गंगी गोबर पाथ रही थी. सहसा उसने देखा, वही ठाकुर सिर झुकाये द्वार पर से चला जा रहा है. वह गोबर छोड़कर उठ खड़ी हुई. घर में कोई मर्द न था. सब बाहर चले गये थे. वह कहना चाहती थी-ठाकुर! बैठो, पानी पीते जाओ. पर उसके मुंह से बात न निकली. उसकी छाती जोर से धड़क रही थी. उसे एक विचित्र घबराहट होने लगी-क्या करे, कैसे उसे रोक ले. गरीब सिंह ने एक बार उसकी ओर ताका और फिर आंखें नीची कर लीं. उस दृष्टि में क्या बात थी कि गंगी के रोएं खड़े हो गये. वह दौड़ी घर में गयी और मां से बोली-अम्मां, वह ठाकुर जा रहे हैं, गरीब सिंह. मां ने कहा-किसी काम से आये होंगे. गंगी बाहर गयी तो ठाकुर चला गया था. वह फिर गोबर पाथने लगी, पर उपले टूट-टूट जाते थे, आप ही आप हाथ बंद हो जाते, जैसे कहीं दूर से उसके कानों में आवाज आ रही हो. वही दृष्टि आंखों के सामने थी. उसमें क्या जादू था? क्या मोहिनी थी? उसने अपनी मूक भाषा में कुछ कहा. गंगी ने भी कुछ सुना. क्या कहा? यह वह नहीं जानती, पर वह दृष्टि उसकी आंखों में बसी हुई थी.

रात को लेटी तब भी वही दृष्टि सामने थी. स्वप्न में भी वही दृष्टि दिखायी दी. फिर कई महीने गुजर गये. एक दिन संध्या समय मैकू द्वार पर बैठे सन कात रहे थे और गंगी बैलों को सानी चला रही थी कि सहसा चिल्ला उठी-दादा, दादा, ठाकुर.

मैकू ने सिर उठाया तो द्वार पर गरीब सिंह चला आ रहा था. राम-राम हुआ.

मैकू ने पूछा- कहां गरीब सिंह! पानी तो पीते जाओ.

गरीब आकर एक माची पर बैठ गया. उसका चेहरा उतरा हुआ था. कुछ वह बीमार-सा जान पड़ता था. मैकू ने कहा-कुछ बीमार थे क्या? गरीब सिंह- नहीं तो दादा!

मैकू- कुछ मुंह उतरा हुआ है, क्या सूद-ब्याज की चिंता में पड़ गये? गरीब सिंह- तुम्हारे जीते मुङो क्या चिंता है दादा!

मैकू- बाकी दे दी न? गरीब सिंह- हां दादा, सब बेबाक कर दिया.

मैकू ने गंगी से कहा- बेटी जा, कुछ ठाकुर को पानी पीने को ला. भैया हो तो कह देना चिलम दे जाये.

गरीब ने कहा- चिलम रहने दो दादा! मैं नहीं पीता.

मैकू- अबकी घर ही तमाकू बनी है, सवाद तो देखो. पीते तो हो?

गरीब सिंह- इतना बेअदब न बनाओ दादा. काका के सामने चिलम नहीं छुई. मैं तुमको उन्हीं की जगह देता हूं. यह कहते-कहते उसकी आंखें भर आयीं. मैकू का हृदय भी गदगद हो उठा. गंगी हाथ की टोकरी लिये मूर्ति के समान खड़ी थी. उसकी सारी चेतना, सारी भावना, गरीब सिंह की बातों की ओर खिंची हुई थी! ओह! कितनी नम्रता है, कितनी सज्जनता, कितना अदब.

मैकू ने फिर कहा- सुना नहीं बेटी, जाकर कुछ पानी पीने को लाओ! गंगी चौंक पड़ी. दौड़ी हुई घर में गयी. कटोरा मांजा, उसमें थोड़ी-सी राब निकाली. फिर लोटा-गिलास मांज कर शर्बत बनाया. मां ने पूछा- कौन आया है गंगिया?

गंगी- वह हैं ठाकुर गरीब सिंह. दूध तो नहीं है अम्मां, रस में मिला देती? मां- है क्यों नहीं, हांड़ी में देख.

गंगी ने सारी मलाई उतार कर रस में मिला दी और लोटा-गिलास लिये बाहर निकली. ठाकुर ने उसकी ओर देखा. गंगी ने सिर झुका लिया! यह संकोच उसमें कहां से आ गया?

ठाकुर ने रस लिया और राम-राम करके चला गया.

मैकू बोला- कितना दुबला हो गया है. गंगी- बीमार हैं क्या?

मैकू- चिंता है और क्या? अकेला आदमी है, इतनी बड़ी गिरस्ती; क्या करे.

गंगी को रात-भर नींद नहीं आयी. उन्हें कौन-सी चिंता है. दादा से कुछ कहा भी तो नहीं. क्यों इतने सकुचाते हैं. चेहरा कैसा पीला पड़ गया है. सबेरे गंगी ने मां से कहा- गरीब सिंह अबकी बहुत दुबले हो गये हैं अम्मां!

मां-अब वह बेफिक्री कहां है बेटी. बाप के जमाने में खाते थे और खेलते थे. अब तो गिरस्ती का जंजाल सिर पर है.

गंगी को इस जवाब से संतोष न हुआ. बाहर जाकर मैकू से बोली-दादा, तुमने गरीब सिंह को समझा नहीं दिया-क्यों इतनी चिंता करते हो?

मैकू ने आंखें फाड़ कर देखा और कहा-जा, अपना काम कर.

गंगी पर मानो बज्रपात हो गया. वह कठोर उत्तर और दादा के मुंह से. हाय! दादा को भी उनका ध्यान नहीं. कोई उसका मित्र नहीं. उन्हें कौन समझाए! अबकी वह आयेंगे, तो मैं खुद उन्हें समझाऊंगी. गंगी रोज सोचती- वह आते होंगे, पर ठाकुर न आये. फिर होली आयी. फिर गांव में फाग होने लगा. रमणियों ने फिर गुलाबी साड़ियां पहनीं. फिर रंग घोला गया. मैकू ने भंग, चरस, गांजा मंगवाया. गंगी ने फिर मीठी और नमकीन भंग बनायी! द्वार पर टाट बिछ गया. व्यवहारी लोग आने लगे. मगर कोठार से कोई नहीं आया. शाम हो गयी. किसी का पता नहीं! गंगी बेकरार थी. कभी भीतर जाती, कभी बाहर आती. भाई से पूछती- क्या कोठार वाले नहीं आये? भाई कहता- नहीं. दादा से पूछती- भंग तो नहीं बची, कोठार वाले आवेंगे तो क्या पीयेंगे? दादा कहते- अब क्या रात को आवेंगे, सामने तो गांव है. आते होते तो दिखायी देते.

रात हो गयी, पर गंगी को अभी तक आशा लगी हुई थी. वह मंदिर के ऊपर चढ़ गयी और कोठार की ओर निगाह दौड़ायी. कोई न आता था. सहसा उसे उसी सिवाने की ओर आग दहकती हुई दिखायी दी. देखते-देखते ज्वाला प्रचंड हो गयी. यह क्या! वहां आज होली जल रही है. होली तो कल ही जल गयी. कौन जाने वहां पंडितों ने आज होली जलाने की साइत बतायी हो. तभी वे लोग आज नहीं आये. कल आयेंगे.

उसने घर आकर मैकू से कहा- दादा, कोठार में तो आज होली जली है. मैकू- दुत पगली! होली सब जगह कल जल गयी.

गंगी- तुम मानते नहीं हो, मैं मंदिर पर से देख आयी हूं. होली जल रही है. न पतियाते हो तो चलो, मैं दिखा दूं. मैकू- अच्छा चल देखूं. मैकू ने गंगी के साथ मंदिर की छत पर आकर देखा. एक मिनट तक देखते रहे. फिर बिना कुछ बोले नीचे उतर आये.

गंगी ने कहा- है होली कि नहीं, तुम न मानते थे?

मैकू- होली नहीं है पगली-चिता है. कोई मर गया है. तभी आज कोठार वाले नहीं आये.

गंगी का कलेजा धक से हो गया. इतने में किसी ने नीचे से पुकारा-मैकू महतो, कोठार के गरीब सिंह गुजर गये.

मैकू नीचे चले गये, पर गंगी वहीं स्तंभित खड़ी रही. कुछ खबर न रही- मैं कौन हूं, कहां हूं, मालूम हुआ जैसे गरीब सिंह उस सुदूर चिता से निकल कर उसकी ओर देख रहा है- वही दृष्टि थी, वही चेहरा, क्या उसे वह भूल सकती थी? उस दिवस से फिर कभी गंगी होली देखने नहीं गयी. होली हर साल आती थी. हर साल उसी तरह भंग बनती थी. हर साल उसी तरह फाग होता था; हर साल अबीर-गुलाल उड़ती थी, पर गंगी के लिए होली सदा के लिए चली गयी. (हिंदी समय डॉट कॉम से साभार)

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